डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
समूचा हिमालय आज भारी संकट के दौर से गुजर रहा है। प्राकृतिक आपदाओं की विभीषिका और पलायन के दुष्परिणामों के कारण उत्तराखंड राज्य की हालत आज अन्य हिमालयीय राज्यों की तुलना में सबसे ज्यादा नाजुक और चिंताजनक बनी हुई है। किंतु संकट के इस दौर से निपटने की जैसी चिंता राज्य सरकार और केन्द्र सरकार को होनी चाहिए, वैसी चिंता कहीं देखने को नहीं मिल रही है। विरोधी राजनैतिक पार्टियों के पास भी सिवाय एक दूसरे पर आरोप मढ़ने के अलावा इन प्राकृतिक आपदाओं से हिमालय पर्यावरण की रक्षा करने का कोई ऐसा एजेंडा या विज़न नहीं दिखाई देता। जिससे की यह उम्मीद बन सके कि आने वाले समय में राजनैतिक बदलाव मात्र से हिमालय के बिगड़ते पर्यावरण में सुधार आ जाएगा। सचाई तो यह है कि सभी राजनैतिक दलों की सरकारों ने जब भी मौका मिला, इसे लूटने खसोटने तथा अंधविकासवाद की नीतियों पर चलकर इस के प्राकृतिक संसाधनों का इतना निर्ममतापूर्ण दोहन किया है, जिसके कारण हिमालय की प्रकृति आज भयंकर आक्रोश तथा तनाव के दौर से गुजर रही है।
चिंता का एक कारण यह भी है कि भारत के हिमालयन रेंज में अत्यधिक व्यापारिक दोहन होने के कारण अनेक दुर्लभ औषधीय वनस्पतियां आज विलुप्ति के कगार पर हैं। जलवायु परिवर्तन और वैश्विक ताप में वृद्धि भी इन औषधीय पादपों के लिए एक बहुत बड़ा खतरा बना हुआ है। रेंज की 800 औषधीय गुणों युक्त प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी हैं। यदि हिमालय की इन दुर्लभ औषधीय पौधों के संरक्षण की पहल केन्द्र सरकार या राज्य सरकार की ओर से नहीं हुई तो आयुर्वेद चिकित्सा पर संकट तो आ ही सकता है। साथ ही हिमालय के पर्यावरण में मौसम वैज्ञानिक असंतुलन के कारण आए दिन बादल फटने की घटनाएं, पहाड़ों के टूटने और नदियों में जलप्रलय से इस हिमालयीय राज्य का अस्तित्व ही खतरे मे पड़ सकता है। जैसा कि पिछले तीन चार महीनों से ऐसे संकेत प्रत्यक्ष रूप से मिल रहे हैं। पहले पहाड़ों के जंगलों में भयंकर आग से यहां की वानस्पतिक सम्पदाएं और दुर्लभ जड़ी बूटियां खाक हो गई्। उसके बाद लगातार बादल फटने और नदियों की बाढ़ से हजारों की संख्या में सड़कें और पुल टूट गए लाखों लोग बेघर हो गए। भारी मात्रा में जान-माल का नुक्सान हुआ।
विश्व में औषधीय पौधों की लगभग 2500 प्रजातियां पाई जाती हैं जिनमें से 1158 प्रजातियां भारत में हैं। इन औषधीय पौधों की सनातन उपयोगिता का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि इनका उल्लेख वेदों में भी है। इनमें से 81 औषधीय पौधों का वर्णन यजुर्वेद, 341 वनस्पतियों का अथर्ववेद, 341 का चरक संहिता और 395 औषधीय पादपों और प्रयोग का वर्णन सुश्रुत में है। भारत के उच्च और मध्य हिमालयन रेंज में पाई जाने वाली जड़ी बूटियां विशेषकर गन्द्रायण, कालाजीरा, जम्बू, ब्राह्मी, थुनेर, घृतकुमारी, गिलोय, निर्गुंडी, इसबगोल, दुधी, चित्रक, बहेड़ा, भारंगी, कुटज, इन्द्रायण, पिपली, सत्यानाशी, पलास, कृष्णपर्णी, सालपर्णी, दशमूल, श्योनाक, अश्र्वगंधा, पुनर्नवा, अरणा आदि अब दुर्लभ होती जा रही हैं।
आयुर्वेदाचार्य के अनुसार पिछले कुछ दशकों से बढ़ती आयुर्वेदिक दवाओं की मांग को पूरा करने के लिए औषधीय पौधों का व्यापारिक दृष्टि से अत्यधिक दोहन हो रहा है। जिसके कारण औषधीय पौधों की अनेक प्रजातियां संकट में हैं या विलुप्ति के कगार पर हैं। उत्तराखंड राज्य की स्थापना के बाद पिछले 20 वर्षों में अंधाधुन्ध वनों की कटाई, डायनामाइट विस्फोट से हिमालय की गिरि कन्दराओं की तोड़.फोड़ तथा विशालकाय बांधों की पर्यावरण विरोधी योजनाओं से समूचे हिमालय पर्यावरण की पारिस्थिकी को निरन्तर रूप से बिगाड़ने के जो कार्य किए गए उसी का दुष्परिणाम है कि ग्लोबल वार्मिंग का राक्षस हिमालय के ग्लेशियरों को आज लील जाना चाहता है। इसलिए आज हिमालय के पर्यावरण की रक्षा को राजधर्म की चेतना से नहीं बल्कि राष्ट्रधर्म की अपेक्षा से मुख्य वरीयता देने की आवश्यकता है।
आज बिगड़ते हिमालय पर्यावरण को यदि बचाना है और पलायन को रोकना है तो विकास और पर्यावरण के मध्य संतुलन कायम करते हुए उत्तराखण्ड को औषधिप्रस्थ हर्बल स्टेट बनाकर ही भयंकर प्राकृतिक आपदाओं की त्रासदी से भी बचाया जा सकता है और जड़ी बूटी उद्योग को प्रोत्साहित करके नए नए रोजगार पैदा किए जा सकते हैं और विदेशी मुद्रा भी कमाई जा सकती है। उत्तराखंड सरकार द्वारा विभिन्न स्तरों पर लुप्त होते औषधीय पादपों के संरक्षण का युद्धस्तर पर प्रयास किया जाना चाहिए। इन पर कार्य होना चाहिए तथा ग्राम स्तर, जिला स्तर एवं मंडलस्तर की ऐसी नर्सरियां विकसित की जानी चाहिए ताकि उस क्षेत्र में उत्पन्न होने वाली दुर्लभ और जीवन रक्षक जड़ी बूटियों का स्थानीय स्तर पर ही संरक्षण हो सके और उनकी व्यापारिक मांग को भी पूरा किया जा सके। जलवायु परिवर्तन का असर हर चीज पर पड़ रहा है। चाहे वह जड़ी बूटियां हो या फिर पेड़ पौधे और जंगली जानवर लगातार जलवायु में हो रहे परिवर्तन के चलते हिमालयी क्षेत्रों में पाए जाने वाली जड़ी बूटियां, उच्च हिमालई क्षेत्रों की ओर खिसक रही हैं। क्योंकि ये जड़ी बूटियां अपने वातावरण के अनुसार धीरे.धीरे ऊपर शिफ्ट होती रहती हैं। हालांकि प्रकृति का नियम है कि वह खुद चीजों को एडॉप्ट कर लेती है, लेकिन जिस तरह से हिमालयी क्षेत्रों में जड़ी बूटियां ऊपर की तरफ खिसक रही हैं ऐसे में एक समय ऐसा भी आएगा जब वहां भूमि खत्म हो जाएगी और यह जड़ी.बूटियां भी विलुप्त होने लगेंगी। उत्तराखंड को प्रकृति ने कई अनमोल तोहफों से नवाजा है। इनमें ना सिर्फ हिमालय की गोद में बसी खूबसूरत वादियां हैं बल्कि इन वादियों में हजारों किस्म की बेशकीमती जड़ी.बूटियां भी मौजूद हैं, लेकिन मौजूदा समय में इन बेशकीमती जड़ी.बूटियों पर जलवायु परिवर्तन का सीधा असर देखने को मिल रहा है। क्योंकि, हिमालयी क्षेत्रों में पाई जाने वाली जड़ी.बूटियां धीरे.धीरे उच्च हिमालयी क्षेत्रों की ओर खिसकती जा रही हैं। राज्य सरकार इन जड़ी.बूटियों को संरक्षित करने को लेकर समय.समय पर तमाम रणनीतियां भी बनाती है उत्तराखंड में अब पैदा होने वाली जड़ी बूटियों का खरीद मूल्य की घोषणा अब राज्य सरकार नहीं करेगी। यह फैसला सरकार ने किया है। अब से जड़ी बूटियों का दाम निजी व्यावसायिक तय करेगी। ऐसा पहली बार होगा कि जब राज्य सरकार ने जड़ी बूटियों का दाम तय करने का अधिकार एक निजी व्यावसायिक कंपनी को दे दिया। इसके साथ ही सरकार ने यह फैसला लिया है।