डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड में जंगली खाद्य फलों में महत्वपूर्ण मेलू को वनस्पति जगत में पाइरस पेसिया के नाम से जाना जाता है। हिमालयी क्षेत्रों में मेलू के पेड़ 20 से 25 फीट तक की ऊँचाई लिये हुये 500 से 2000 मी0 तक गांव से लगे जंगलों तथा कृषि क्षेत्रों के आस पास प्राकृतिक रूप से बहुतायत संख्या में उगे हुये पाये जाते हैं। मेलू को साउथर्न एशिया का नेटिव यानि स्थानीय वासी माना गया है।मेलू का पेड़ फरवरी मार्च के माह में फूलता है।
इसके पेड़ पर बहुत सारे लाल पुष्पंज लगे सफेद फूल पेड़ की खूबसूरती के साथ ही धरती की सुन्दरता को बढा़ने में भी चार चांद लगा देते रोजेसी परिवार के मेलू को वाइल्ड हिमालयन पियर या इन्डियन वाइल्डपियर भी कहा जाता है। मेलू को उर्दू में बतंगी, कश्मीरी में तंगी तथा नेपाली में पासी कहा जाता है। मेलू में एंटी ऑक्साइड, विटामिन की भरपूर मात्रा मौजूद होती है। इसके फलों को शूगर, प्रोटीन, ऐस, पैक्टिन के साथ ही मिनिरल्स जैसे फौसफोरस, पोटेशियम, कैल्सियम, मैग्नीसियम तथा आयरन का अच्छा स्रोत माना गया है।
जानकारों द्वारा मेलू के फलों का सेवन पाचन शक्ति बढा़ने के साथ ही कैंसर जैसी घातक बिमारी के रोकथाम में उपयोगी माना गया है। मेलू के पके मीठे फलों का सेवन यथा समय शरीर को ताकत एवं ऊर्जा प्रदान करनें का कार्य करते हैं। ग्रामीण महिलाओं द्वारा जंगलों से सम्बन्धित कार्यों के सम्पादन हेतू जाने के समय रास्ते में मिलने पर मेलू के फलों को खूब खाया जाता है। विशेषज्ञों की मानें तो मेलू के पेड़ की अपनी विशेष इकोलॉजिकल व इकोनामिकल वैल्यू है।मेलू के पेड़ स्थानीय पारिस्थितिकीय तंत्र को सुरक्षित रखने में भी अहम भूमिका निभाते हैए जबकि फल सेहत और आर्थिक लिहाज से महत्वपूर्ण है। मेलू का पौधा बिभिन्न विपरीत परिस्थितियों में भी उग जाने एवं निरोगी गुणों के कारण अन्य नाशपाती प्रजातियों के पौधों के ग्राफ्ट हेतु रूट स्टाक के तौर पर खूब इस्तेमाल किया जाता है।
मेलू की लकडी़ मजबूत होने कारण, चलने की लाट्ठी, कृषि उपकरणों के हत्थे, बिंन्डे, इत्यादि बनाने के काम में लायी जाती है। श्वस्थ एवं निरोगी शरीर के लिये जून जुलाई में पकने वाले मेलू के फल का अवश्य सेवन करें और जेम, जैली जैसे उत्पाद बना कर आर्थिक लाभ भी कमायें।साथ ही राज की बात भी याद रखें कि जंगली फलों के महत्व को समझते हुये सभी को अपने अपने स्तर से इनकी पौध तैयार कर रोपड़ में पाए जाने वाला जंगली फल मेलू राज्य की लोकसंस्कृति में रचा बसा हूआ है। लेकिन वर्तमान पीढी़ में इसके प्रति जिज्ञासा के अभाव में आज मेलू को उतना महत्व नहीं मिल पाया है जिसकी उसको दरकार है।अगर जंगली फलों को बाजार से जोड़कर देखा जाए तो ये फल प्रदेश की आर्थिक स्थिति को संवारने का जरिया बनने के साथ ही जंगली जानवरों के लिये आसानी से भोजन भी उपलब्ध करा सकते हैं। जिससे जंगली जानवरों द्वारा कृषि को किये जा रहे नुकसानों को कम किया जा सकता है।
बढ़ती आबादी, सड़कों का निर्माण तथा विकास के नाम बनते जाते भवन, संस्थान और संरचनाओं के कारण पहाड़ एकदम नंगे हो गये हैं। जिन वनों में आज से साठ साल पहले दिन के समय भी अकेले जाने में डर लगता था और जिनमें कई तरह के जानवर जैसे गोह, शशक, रंगबिरंगे सांप, चितरौल, सेही, तीतर, चाखुड़, वनमुर्ग, सियार, वन विडाल, बघेरे, नेवले आदि सघन झाड़ियों से भागते, दुबकते, सरकते, उछलते, फुदकते रास्ता काटकर निकल जाते थे। आज उनमें वृक्ष. झाड़ियाँ पहले से दशमांश भी नहीं मिलते और जीव.जन्तु तो नदारद ही हो गये हैं। उन जंगलों को फिर से पूर्ववत न किया गया तो हमारी स्वयं की जीवनरक्षा असम्भव हो जायेगी। लेकिन अपने स्तर से इनकी पौध को बागेश्वर जिला मुख्यालय से करीब 60 किमी दूर चंतोला गांव के प्रयाग राम को पौधे लगाने और उन्हें बच्चों की तरह पालने का जुनून बचपन से रहा है। उनके द्वारा रोपे गए पौधों ने अब वन का रूप ले लिया है। उनकी हाड़तोड़ मेहनत से स्थापित जंगल से गांव के दो नौले चार्ज हो गए हैं। धारे में पानी भी बढ़ गया है। इनसे अब ग्रामीणों की प्यास बुझ रही है। बुढ़ापे के बावजूद पौध रोपना आज भी उनकी दिनचर्या का हिस्सा में शामिल है। जिससे वर्तमान पीढी़ को एक रोजगार परक जरिया बनने के साथ साथ इसके संरक्षण से पर्यावण को भी सुरक्षित रखा जा सकता हैए ताकि इस बहुमूल्य सम्पदा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आर्थिकी का जरिया बनाया जा सके।