—————– प्रकाश कपरुवाण ।
देवभूमि उत्तराखंड, हिमांचल व अन्य हिमालयी राज्यों मे प्राकृतिक आपदाओं की घटनाओं मे एकाएक बृद्धि देखी जा रही है, पहले इस प्रकार की घटनाएं वर्षो मे कभी कभार देखने सुनने को मिलती थी लेकिन अब हर दो चार वर्ष के अंतराल मे घटित हो रही भीषण आपदाओं ने देवभूमि का भौगोलिक परिदृश्य ही बदल कर रख दिया। हिमालयी राज्यों के पर्वतवासी बादल फटने की बढ़ती घटनाओं से बेहद डरे व सहमे हुए हैं।
पर सवाल यह है कि प्राकृतिक आपदाओं की घटनाओं मे बृद्धि के आखिर कारण क्या हो सकते हैं ?, क्या देवभूमि के स्वरूप को पर्यटन व राजस्व उगाही के दृष्टिकोण से देखना भी प्राकृतिक आपदाओं की घटना का कारण हो सकता है या कोई अन्य कारण।
वैज्ञानिक हिमालय की संवेदनशीलता को लेकर बार बार चेतावनी देते रहे हैं,लेकिन अनियंत्रित व अवैज्ञानिक विकास की होड़ हिमालय को खोकला करने पर उतारू है।
हालांकि हिमालयी राज्यों मे घटने वाली प्राकृतिक आपदाओं को रोका तो नहीं जा सकता लेकिन जनहानि को कम अवश्य किया जा सकता है।
वर्ष 2013की केदारनाथ आपदा के बाद तो सबक लेना ही था कि आखिर किसी भी आपदा मे जनहानि को रोकने या कम करने के क्या क्या उपाय हो सकते हैं, केदारनाथ त्रासदी के बाद कई स्तरों पर हुए सर्वेक्षणों के उपरांत वैज्ञानिकों ने जनहानि कम करने के जो सुझाव दिए थे उनमे अर्ली वार्निंग सिस्टम भी एक था, लेकिन 2021मे रैणी -तपोवन की विनाशकारी आपदा के बाद अर्ली वार्निंग सिस्टम का ना होना भी भारी जनहानि का एक कारण माना गया।
प्रकृति के अवैज्ञानिक दोहन व अनियंत्रित छेड़ छाड़ ही हिमालय वासियों के जीवन को संकट मे डाल रहा है।
देवभूमि वास्तव मे देवभूमि है, सेना ने एक बरिष्ठ अधिकारी ने स्वयं के साथ घटित एक घटना से इसका उल्लेख किया था, दरसअल वर्ष 1963–64मे जब वे सेना मे कमीशन हुए तो उनकी पहली पोस्टिंग जोशीमठ ही हुई, तब घर से निकलते वक्त उनके माता पिता ने ने कहा कि तुम्हारी पोस्टिंग साक्षात् देवभूमि मे हुई है वहाँ तो कण कण मे भगवान हैं, दो वर्ष की कार्यावधि के बाद जब वे लौट रहे थे तब उनके मन मे अचानक यह भाव आया कि उनके माता पिता ने तो कहा था वहाँ कण कण मे भगवान हैं दो वर्ष मे उन्हें तो नहीं दिखा।
तब जोशीमठ से कुछ ही दूरी पर गौँखगधेरा अब श्री ज्ञान गंगा के समीप सड़क के निचली ओर से एक दिव्य महात्मा व साध्वी सड़क पर आते दिखे, उनके दिव्य स्वरूप को देखकर सेना अधिकारी की उनके दर्शन करने की लालसा हुई ओर ड्राइवर को वाहन रोकने को कहा, वाहन से उतरकर वे पीछे मुड़े तो देखा कि वे दोनों दिव्य मूर्तियां कहीं ओझल हो गई, उन्होंने वाहन को वापस मोड़ा और सेना के टीसीपी तक सड़क के दोनों ओर उन दिव्य विभूतियों को देखते हुए पहुंचे लेकिन कहीं नजर नहीं आए, तब उन्हें अपने माता पिता की बातों का एहसास हुआ कि वास्तव मे देवभूमि के कण कण मे भगवान हैं।
इस प्रत्यक्ष घटनाक्रम का जिक्र उन्होंने तब किया था जब नब्बे के दशक मे वे सेना के बरिष्ठ अधिकारी बनकर पुनः जोशीमठ आए और तब उन्होंने विद्वानों की राय पर उस स्थान पर एक छोटा सा मंदिर भी बनवाया था जो आज भी है।
लेकिन आज ठीक इसके उलट संपूर्ण देवभूमि तो छोड़िये भू वैकुंठ धाम श्री बद्रीनाथ जहाँ माना जाता है कि भगवान श्रीहरि नारायण तपस्यारत हैं और उनकी तपस्या मे व्यवधान न हो वहाँ शंख बजाने पर भी प्रतिबन्ध है,वहाँ न केवल ग्रीष्म काल बल्कि शीतकाल मे बर्फबारी होने तक भी बड़ी बड़ी मशीनें धरती के साथ अलकनंदा नदी को भी चीर रही है।
अलकनंदा नदी का तो ऐसा विकास हो रहा है कि श्री बद्रीनाथ मंदिर के समीप गाँधी घाट ही खतरे की जद मे आ गया है, और तप्त कुण्ड पर भी खतरा मंडराने की संभावना बनी हुई है।
हालांकि समय की जरुरतों के अनुसार धामों का विकास भी जरुरी हो सकता है, लेकिन हिमालयी धामों व देश के अन्य धर्मस्थलों के विकास के पैमाने का फर्क समझना होगा, साथ इन हिमालयी धामों व कसबों की भार वहन क्षमता का आंकलन किया जाना भी बेहद जरुरी है तभी जोशीमठ जैसी भू धसाव की घटना व प्राकृतिक आपदाओं की घटनाओं मे जन धन की हानि को कम किया जा सकता है