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प्रकृति ने जमकर लुटाया पर वैज्ञानिकों लिए शोध का विषय है: डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

03/09/24
in उत्तराखंड
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ब्यूरो रिपोर्ट। वर्तमान में हम खतरनाक रूप की समस्या से घिरे हुए हैं और यह समस्या भविष्य में हमारे लिये जानलेवा भी हो सकती है। इस भयंकर पर्यावरणीय समस्या के मुख्य कारण हैं- औद्योगीकरण, शहरीकरण, वनों की कटाई और प्राकृतिक संसाधनों को नुकसान पहुंचाने वाले उत्पाद जो सामान्य जीवन की दैनिक जरूरतों के रूप इस्तेमाल किए जाते हैं। पेट्रोल और डीजल गाड़ियों का अत्याधिक उपयोग होने और उनसे निकले धुएँ से प्रदूषण की समस्या उत्पन्न होती है। प्रदूषण के बहुत से प्रकार होते है जिनमें मुख्य रूप से जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, भू-प्रदूषण, रेडियोधर्मी और ध्वनि प्रदुषण शामिल हैं। बड़े पैमाने पर उद्योगों में उत्पादन की प्रक्रिया में केमिकलों, विषैले पदार्थों और गैसों का उपयोग किया जाता है जो मानवीय स्वास्थ के लिए हानिकारक होते हैं। इससे वातावरण में ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन जैसी विभिन्न प्रकार की समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। पिछले एक दशक में वातावरणीय प्रदूषण का स्तर बहुत बढ़ा है।सभी प्रकार के प्रदूषण बेशक पूरे पर्यावरण और पारिस्थितिकी को प्रभावित कर रहे हैं। मनुष्य की गलत क्रिया-कलापों से पृथ्वी पर स्वाभाविक रूप से सुंदर वातावरण दिन-ब-दिन बिगड़ता जा रहा है। प्रदूषण के दुष्प्रभावों के बारे में विचार करें तो ये बड़े गंभीर नजर आते हैं। प्रदूषित वायु में साँस लेने से फेफड़ों और श्वास-संबंधी अनेक रोग उत्पन्न होते हैं और प्रदूषित जल पीने से पेट संबंधी रोग फैलते हैं। गंदा जल, जल में रहने वाले जीवों के लिए भी बहुत हानिकारक होता है। ध्वनि प्रदूषण मानसिक तनाव उत्पन्न करता है। इससे बहरापन, चिंता, अशांति जैसी समस्याओं से गुजरना पड़ता है।इस पूरे ब्रह्माण्ड में केवल पृथ्वी ही एक ऐसा ग्रह है जहाँ जीवन जीने हेतु सभी संसाधन उपलब्ध हैं। हम दशकों से पृथ्वी को प्रदूषित कर रहे हैं लेकिन हम अपनी दैनिक दिनचर्या के चलते इतने व्यस्त हो गए कि प्रकृति के प्रति हम अपनी जिम्मेदारियों को ही भूल गए। साफ पानी और शुद्ध हवा हमारी स्वस्थ जिंदगी के लिए बहुत जरुरी है लेकिन आज के आधुनिक युग में इन दो में से एक भी संसाधन साफ और शुद्ध नही। आज के आधुनिक युग में हमने औद्योगिक विकास तो कर ही लिया है लेकिन प्राकृतिक विकास हम नही कर पा रहे हैं। औद्योगिक विकास करने की दौड़ में हम प्रकृति को ही भूल गए। औद्योगीकरण की वजह से जीवन रक्षा प्रणाली तेजी से जीवन विनाशी प्रणाली में परिवर्तित होती दिखाई दे रही है।प्रकृति ने हमें हरे-भरे जंगल व बुग्याल, बर्फीले पहाड़, कलकल करती अविरल बहती नदियाँ, झीले और प्राकृतिक सौन्दर्यता को मनोरंजन के साधन के रूप में प्रदान किया है लेकिन आज के इस मौज मस्ती भरे मानवीय क्रिया-कलापों से इन संसाधनों का अस्तित्व बढ़ते प्रदूषण के कारण संकट में आ गया है। आज ये प्राकृतिक संसाधन धीरे- धीरे प्रदूषित हो रहे हैं। इसी प्रदूषण को झेलते सुनहरे बुग्यालों का भविष्य संकट की ओर जाता दिखाई दे रहा है। उत्तरकाशी के डीएफओ के मुताबिक दरअसल दयारा बुग्याल एक सिंकिंग जोन के अंतर्गत आता है। डीएफओ ने बताया की भटवाड़ी से लेकर दयारा बुग्याल तक का पूरा ऊपरी इलाका धंसाव क्षेत्र है। जैसे ही नीचे का इलाका धंसता है तो ऊपर बुग्याल में दरारें पड़ने लगती हैं। समय के साथ ये दरारें और चौड़ी होती जा रही हैं। लिहाजा जब बरसात होती है तो इन दरारों में पानी घुस जाता है। इस कारण दयारा बुग्याल में भूस्खलन और भूधंसाव और भी ज्यादा तेजी से बढ़ने लगा है। बता दें कि साल 2019-20 में भी दयारा बुग्याल से भूस्खलन और भू-धंसाव की तस्वीरें सामने आईं थी। तब वन विभाग ने ओडिशा से जूट और नारियल के रेशों से तैयार जाल यानें केयर नेट मंगवा कर बिछाए थे। जिससे भूस्खलन और भू- धंसाव में कमी आ सके। लेकिन अब ये कोशिशें बीते वक्त की बातें बन चुकी हैं।हाल ही में अंढूड़ी उत्सव के दौरान एक बार फिर दयारा बुग्याल की भूस्खलन और दरारों की डरावनी तस्वीरें सामने आई हैं। इसके पीछे का एक सबसे बड़ा कारण यहां बढ़ रहा मानवीय हस्तक्षेप है। इन बुग्यालों का लगातार दोहन किया जा रहा है। जिससे यहां का नाजुक इको सिस्टम सूखी पत्तियों की तरह बिखरने लगा है।हालांकि ऐसा नहीं है की पहली बार ही लोग इन बुग्यालों में जा रहे हैं। पहले भी लोग अपने मवेशी चराने के लिए इन बुग्यालों में जाया करते थे। यहां अपने मवेशियों के कई महीनों तक छोड़ दिया करते थे। अब बढ़ते पर्यटन के कारण इन बुग्यालों के हाल और भी खस्ता होते जा रहे हैं। सीएम ने हर वर्ष दो सितंबर को बुग्याल संरक्षण दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की। उन्होंने कहा कि हिमालय हमारी पहचान है, हमारी संस्कृति है, और हमारी जीवनरेखा भी है। हमारी भावी पीढ़ियों के लिए हिमालय की सुंदरता और समृद्ध जैव विविधता को संरक्षित करना हमारा कर्तव्य है, बुग्यालों का संरक्षण करना हम सभी की जिम्मेदारी है। बुग्यालो को लेकर पद्मश्री और मैती आंदोलन के जनक कल्याण सिंह रावत की 16 अगस्त को बुग्याल संरक्षण दिवस के रूप में मनाने की अनूठी पहल का स्वागत किया जाना चाहिए और इसको व्यापक समर्थन दिया जाना चाहिए। अगर बुग्याल रहेंगे तो ही जीवन रहेगा। यूकॉस्ट के महानिदेशक ने कहा कि विश्व धरोहर हिमालय के भव्य बुग्याल, न केवल सुंदरता से भरे हुए हैं, बल्कि जैव विविधता और जीवनयापन के लिए महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र भी हैं। जबकि बुग्याल हिमालयी क्षेत्र के गावों का आंगन है। यदि वह अपने आंगन में नहीं खेलेगा तो कहा जाएगा। वन विभाग बुग्यालों में रात बीताने वालों पर भी शिकंजा कस रहा है। यह सिर्फ पर्यटकों के लिए तय होना चाहिए, जबकि स्थानीय निवासी इसका पालन कतई नहीं कर सकते हैं। बुग्याल हिमालय की तलहटी में रहने वाले लोगों के आय के साधन हैं। सरकारों ने भुलाया नहीं।इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।

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