डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा रही है। हुड़किया बौल इसमें प्रमुख है। खेती और सामूहिक श्रम से जुड़ी यह परंपरा सिमटती कृषि के साथ ही कम होती चली गई। स्थिति यहां तक पहुंच गई कि अधिकांश इलाकों में हुड़किया बौल की परंपरा समाप्त हो चुकी है। आज हुड़किया बौल गायकी वाले कलाकारों को खोजना मुश्किल है। ऐसे मुश्किल समय में बागेश्वर जिले के भास्कर भौर्याल ने हुड़किया बौल परंपरा के साथ आंचलिक लोक गायकी की एक विधा को जीवंत करने का बीड़ा उठाया है। बागेश्वर के रीमा क्षेत्र में 40 साल बाद सुनाई दे रहे हुड़किया बौल के बोल सकारात्मक बदलाव की उम्मीद जगा रहे हैं।बागेश्वर जिला मुख्यालय से 40 किमी दूर कुरौली गांव के रहने वाले भास्कर अल्मोड़ा से फाइन आर्ट की पढ़ाई कर रहे हैं। मां जानकी देवी आंचलिक लोक गायकी की विधा न्योली गाती थीं। बचपन से मां को सुनते हुए भास्कर को भी इसका शौक पैदा हो गया और हुड़का लोक वाद्य थाम लिया। पढऩे व कविता रचने के शौकीन भास्कर ने इंटरनेट पर अपने लोक गायकी के बारे में पढ़ा। भास्कर बताते हैं कि हाथ में हुड़का लिए बुजुर्ग के साथ स्वर से स्वर मिलाते हुए सामूहिक रूप से धान की रोपाई लगाने की कल्पना ने इसे सीखने की जिज्ञासा जगा दी। मां के साथ पास के गांव में अपने ननिहाल जाना हुआ। वहां एक बुजुर्ग कलाकार धर्म सिंह रंगीला से मिलना हुआ तो हुड़किया बौल की बारीकी सीखी। सीखने की चाहत में अक्सर ननिहाल चले जाया करते। तीन साल पहले रंगीला का निधन हुआ तो भास्कर ने ठान लिया कि इस परंपरा को अब वह खुद आगे बढ़ाएंगे। हुड़किया बौल हुड़का व बौल शब्द से मिलकर बना है। जिसका अर्थ है कई हाथों का सामूहिक रूप से कार्य करना। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में धान की रोपाई व मडुवे की गोड़ाई के समय हुड़किया बौल गाए जाते हैं। पहले भूमि के देवता भूमियां, पानी के देवता इंद्र, छाया के देव मेघ की वंदना से शुरुआत होती है। फिर हास्य व वीर रस आधारित राजुला मालूशाही, सिदु-बिदु, जुमला बैराणी आदि पौराणिक गाथाएं गाई जाती हैं। हुड़के को थाम देता कलाकार गीत गाता है, जबकि रोपाई लगाती महिलाएं उसे दोहराती हैं। हुड़के की गमक और अपने बोलों से कलाकार काम में फुर्ती लाने का प्रयास करता है। युवा बौल गायक भास्कर भौर्याल ने बताया क कुमाऊं के लोक का अतीत अत्यंत समृद्ध रहा है। लोक गीतों के ही कई आयाम हैं। लोकगीतों को इतने सलीके से तरासा गया है कि इनमें जीवन का सार दिखता है। पेसेवर बौल गायकों के बराबर मैं कभी नहीं जा सकता, मगर अपनी पुरातन विरासत को संरक्षित करने और उसे नई पीढ़ी तक ले जाने का प्रयास सभी को करना चाहिए। मैं यही कर रहा हूं। ऐसे होते हैं हुड़किया बौल के स्वर
सेलो दिया बितो हो धरती माता
दैंणा है जाया हो भुमियां देवा
दैंणा है जाया हो धरती माता
हैंणा है जाया हो पंचनाम देवा
सेवो द्यो बिदो भुम्याल देवा..
कुमाऊं क्षेत्र में हुड़किया बोल की परंपरा काफी पुरानी है। सिंचित भूमि पर धान की रोपाई के वक्त इस विद्या का प्रयोग होता है। महिलाएं कतारबद्ध होकर रोपाई करती हैं। उनके आगे लोक गायक हुड़के की थाप पर देवताओं के आह्वान के साथ किसी लोकगाथा को गाता है। इसमें बेहतर खेती और सुनहरे भविष्य की कामना की जाती है। माना जाता है कि हुड़किया बोल के चलते दिनभर रोपाई के बावजूद थकान महसूस नहीं होती। हुड़के की थाप पर लोक गीतों में ध्यान लगाकर महिलाएं तेजी से रोपाई के कार्य को निपटाती है। समूह में कार्य कर रही महिलाओं को हुड़का वादक अपने गीतों से जोश भरने का काम करता है। यह परम्परा पीढ़ी दर पीढ़ी आज भी कुमाऊं के कई हिस्सों में जीवंत है।पहाड़ों में जून में बारिश के साथ ही खेतों में रोपाई का काम शुरू हो जाता है। पहले रोपाई में हुड़किया बोल का बोलबाला रहता था, अब यह प्रथा कम होती जा रही है। हालांकि कुछ गांव अब भी हुड़के की थाप पर झोड़ा-चांचरी गाकर रिवाज को बचाने का प्रयास कर रहे हैं। अल्मोड़ा के सोमेश्वर क्षेत्र के बोरारो घाटी में हर साल हुड़किया बोल के साथ ही रोपाई की जाती है। ग्रामीणों का मानना है कि हुड़के की थाप पर रोपाई से काम आसान हो जाता है। गानों के बोल और हुड़के से निकलने वाली मधुर ध्वनि थकान का अहसास नहीं होने देती। सोमेश्वर के बौरारो घाटी में इन दिनों हुड़किया बौल के साथ रोपाई देखी जा सकती है।ग्रामीण कहते हैं कि कुमाऊं में रोपाई के वक्त हुड़किया बौल की लोक परम्परा काफी पुरानी है। लेकिन आज यह परम्परा अल्मोड़ा के सोमेश्वर घाटी और बागेश्वर के बिनौला में देखने को मिलती है। इस परंपरा में महिलाएं समूह में इकठा होकर एक दूसरे की रोपाई को जल्दी जल्दी निपटाती है। हुड़का वादक उनमें जोश भरने का कार्य करता है। पहाड़ के घर गांव में लगने वाली रोपणी सामूहिक सहभागिता का बेहतरीन उदाहरण है। जिसमें गांव के लोगों के खेतों में रोपाई के अलग-अलग दिन निर्धारित होते हैं। जिस दिन जिसके खेत में रोपाई लगानी होती है, गांव की सभी महिलाएं वहां पहुंचती हैं। इन महिलाओं के भोजन, चाय-पानी की व्यवस्था भू-स्वामी को करनी होती है। भोजन में लजीज पकवान और व्यंजन शामिल होते हैं। भोजन सर्वप्रथम ईष्ट देवता और पितृ देवता को चढ़ाया जाता है। रोपाई के बाद महिलाएं और बच्चे एक साथ बैठकर भोजन करते हैं। सारा काम निपटने के बाद भू-स्वामी सभी लोगों की सहायता और आगमन के लिए उनका आभार व्यक्त करता है। एक एक करके पूरे अषाड में हर गांव के लोगों की रोपणी लगाई जाती है जो सामूहिक सहभागिता का सबसे बेहतरीन उदाहरण है। बेमौसम बारिश और कम उपज होने से लोग खेती को छोड़ रहे है। लोगों के खेती से विमुख होने से रोपणी के समय गाये जाने वाले कुमाऊं की लोकसंस्कृति ’हुडका बोल’ विधा पर भी संकट गहराने लगा है। इस परंपरा में एक लोक कलाकार हुड़का बजाते हुए लोकगाथाएं आदि का वर्णन करता था। लोकगाथाएं सुनते हुए रोपाई करने वाली महिलाओं को थकान का आभास भी नहीं होता था। लेकिन पिछले कुछ सालों से हुड़किया बोल की परंपरा कम ही दिखाई देती है। कतिपय स्थानों को छोड़कर हुड़किया बोल का आयोजन विलुप्त होने के कगार पर जा पहुंचा है।
वास्तव मे देखा जाए तो अषाड महीने में लगने वाली पहाड़ की रोपणी यहां के लोकजीवन का अभिन्न अंग तो रही है साथ ही लोकसंस्कृति की सौंधी खुशबू भी बिखेरती है। तभी तो इस पर पहाड़ के लोक में एक कहावत प्रचलित है।
आषाढ़ की रोपणी भादो कु घाम,
सौण की बरखा अशूज कु काम,
ह्युन्द की मैना की लम्बी लम्बी रात,
आहा कन छा आपडा गौं की बात,
*लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*