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पंचायत चुनाव सामने लाए उत्तराखंड में पलायन की भयावह तस्वीर, पर्वतीय राज्य की अवधारणा ध्वस्त

14/10/19
in उत्तराखंड, देहरादून
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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
हिमालयी राज्य उत्तराखंड में आज पलायन एक बड़ी समस्या बन चुकी है। गांव के गांव खाली होते जा रहे हैं खेत-खलिहान बंजर हो रहे हैं और आबाद क्षेत्र अब वीरान हो रहे हैं। पलायन रोकने की कोशिश तो बहुत हो रही लेकिन चुनौतियां प्रयासों पर भारी पड़ती नज़र आ रही हैं। उत्तराखंड से राज्यसभा सांसद अनिल बलूनी ने इस दिशा में केंद्र से विशेष सहयोग मांगा है। पलायन का दंश झेल रहे उत्तराखंड राज्य की ये पीड़ा हमेशा से ही है। रोजगार और बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा व सुविधा की एवज में बड़ी तादात में लोग पलायन कर शहरों की तरफ भाग रहे हैं। इस भागमभाग में पहाड़ खाली हो रहे तो शहरी क्षेत्रों की आबादी बढ़ रही है। हाल ही में पलायन आयोग ने पलायन पर अल्मोड़ा जिले की रिपोर्ट जारी की तो मानो पहाड़ के इस जख्म को फिर से हरा कर दिया।
पर्वतीय समाज और संस्कृति को जिंदा रखने में इन मंडियों का बहुत बड़ा योगदान था। कमोबेश यह परंपरागत मंडियां हर पर्वतीय जनपद में मौजूद हैं, जो अब सिकुड़ रही हैं, इसी कारण मौजूदा समय में इन मंडियों को सरकार के संरक्षण की आवश्यकता है। अतीत में इन मंडियों ने पूरे क्षेत्र की खुशहाली की कहानी लिखी है, लेकिन आज पलायन के संकट ने और नई पीढ़ी की अरूचि तथा सब्जी और बागवानी में अधिक मेहनत और कम मुनाफा होने के कारण इन मंडियों का अस्तित्व संकट में है। यह पर्वतीय मंडियां बहुत थोड़े सरकारी संरक्षण से पुनर्जीवित हो सकती हैं। उदाहरण के लिये टिहरी गढवाल बाजार के हैं, जहां इन दिनों उत्साह का माहौल है। डेढ़ से दो ट्रक रोज अदरक की आमद आगराखाल बाजार में हो रही है, जहां से यह अदरक ऋषिकेश सहारनपुर दिल्ली तक भेजी जा रही है। इस वर्ष अदरक का मूल्य 100 किलो से ऊपर है। ;।हतपबनसजनतम ूवनसक ब्ीमबा डपहतंजपवद पद न्जजंतंाींदकद्ध जानकारी करने पर मालूम हुआ आगराखाल, धमानस्यू पट्टी, कुंजणी पट्टी और थोडा़ गजा पट्टी की परम्परागत मंडी है। यहां लगभग 40 दिन का अदरक का कारोबार होता है और दीपावली के आसपास से मटर की आमद होती है। यह सीजन भी लगभग 40 दिन चलता है। इसी दौरान पर्वतीय दालों की आमद होती है। क्षेत्र में गाय भैंस पालने का चलन अभी बाकी है, जिनके दूध से यहां स्थानीय स्तर पर मावा तैयार होता है। जिससे यहां की रबड़ी और सिंगोड़ी मिठाई साल भर खूब बिकती है। जिससे इसकी प्रसिद्धि भी है। इस प्रकार आगराखाल परंपरागत पर्वतीय कृषि मंडी और बाजार का आदर्श प्रतिनिधित्व करता है। ;।हतपबनसजनतम ूवनसक ब्ीमबा डपहतंजपवद पद न्जजंतंाींदकद्ध अदरक की आमद जहां पहली नजर में उत्साहित करती है। वही इसकी घटती हुई उत्पादकता अथवा किसानों की अरुचि एक बड़ी चिंता का कारण है।
80 और 90 के दशक में आगराखाल बाजार से 4 से 5 ट्रक अदरक प्रतिदिन बाजार में आती थी। इस प्रकार पूरे सीजन में लगभग 200 ट्रक अदरक बाजार में उतरती थी। लेकिन अब यह मात्रा घट कर 60 से 80 ट्रक के बीच रह गई है। इसी प्रकार की कमी मटर के सीजन में भी देखी जा रही है। आगराखाल सिकुड़ते हुए पर्वतीय मंडी और बाजार का एक नमूना भर है। उत्तराखंड के सभी पर्वतीय जिलों में इस प्रकार के छोटे छोटे कस्बे स्थानीय फल और सब्जी के उत्पाद को सहारा देने के लिए प्रसिद्ध रहे हैं, जहां से अतीत में बहुत बड़ी मात्रा में स्थानीय फल और सब्जी का उत्पाद बाजार में आता था। इस प्रकार यह छोटी पर्वतीय मंडियां 20 किलोमीटर के दायरे में स्वरोजगार और अर्थव्यवस्था का आधार बनती थीं, जिस कारण पूरे इलाके में आर्थिक गतिविधियां बनी रहती थी। उत्तराखंड के 95 ब्लॉक से लगभग 76 ब्लॉक पर्वतीय क्षेत्र में पड़ते हैं। प्रत्येक ब्लॉक में सहायक कृषि रक्षा अधिकारी की तैनाती है और उनके साथ 2 सहायक भी हैं। वर्तमान में जिनका उपयोग परंपरागत कृषि के संरक्षण में नहीं के बराबर है। अगर प्रत्येक ब्लॉक में फल एवं सब्जी अनुसंधान परिषद की स्थापना हो और सहायक कृषि अधिकारी को सब्जी और फल पट्टियों से खुद को जोड़ कर एक निश्चित खसरे में किसानो की मदद से सब्जी उत्पादन का दायित्व दिया जाए, जहां वह आधुनिक बीज, खाद और परामर्श उपलब्ध कराएं तो पर्वतीय मंडियों की तस्वीर आज भीआसानी से बदल सकती है, जो काफी हद तक रोजगार एवं पलायन की समस्या का भी समाधान प्रस्तुत करती हैं।
अल्मोड़ा जिले के 80 गांव में 2011 के बाद 50 फीसदी से अधिक पलायन हुआ है। जिले से करीब 70 हज़ार से अधिक लोगों ने पलायन किया है। ये बताता है कि कैसे लोग पहाड़ों से पलायन कर रहे हैं और पहाड़ खाली हो रहे हैं। पलायन का दंश झेल रहे उत्तराखंड राज्य की ये पीड़ा हमेशा से ही है। रोजगार और बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा व सुविधा की एवज में बड़ी तादात में लोग पलायन कर शहरों की तरफ भाग रहे हैं। इस भागमभाग में पहाड़ खाली हो रहे तो शहरी क्षेत्रों की आबादी बढ़ रही है। ये बताता है कि कैसे लोग पहाड़ों से पलायन कर रहे हैं और पहाड़ खाली हो रहे हैं। सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हिमालय राज्य के लिए यह जीवनदान होगा। उन्होंने कहा कि विभिन्न मंत्रालयों और महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों से संवाद कर इस कड़ी को आगे बढ़ाया जाएगा। सांसद बलूनी की माने तो अगर ढांचागत अवस्थापना के साथ बेरोजगारी उन्मूलन की नीति बनती है तो यह पलायन रोकने में कारगर होगी। उत्तराखंड में पलायन की त्रासदी पर हाल में जारी की गई रिपोर्ट ने 18 बरस पूर्व उत्तर प्रदेश के पर्वतीय जिलों को मिलाकर एक हिमालयी प्रदेश के गठन के बाद शासन.प्रशासन की दिशाहीनता और विकास के दावों की कलई खोल दी।
रिपोर्ट में उत्तराखंड के उन 14 मानव शून्य गांवों की तस्वीर भी बयान की गई है जो तिब्बत और नेपाल की सीमा पर बसे हैं। हालांकि उत्तराखंड के गांवों में रोजगार और शिक्षा के अभाव में लोगों का पलायन 60 से 80 के दशक से ही गति पकड़ता रहा जो कि राज्य बनने के पहले और बाद में गति पकड़ता रहा। पर्वतीय लोगों की पहचान को संरक्षित करने, रोजगार, शिक्षा व स्वास्थ्य और विकास का मॉडल यहां के भौगोलिक परिवेश की तर्ज पर ढालना ही पर्वतीय राज्य के आंदोलन और राज्य बनाने के मकसद की मूल अवधारणा थी। लेकिन सालों में इस राज्य की सरकारों ने इन लक्ष्यों को पाने के लिए कैसे काम किया, पलायन आयोग की रिपोर्ट उसी नाकामी का दस्तावेज है। कुल 53,483 वर्ग किमी के क्षेत्र में हिमाचल, तिब्बत, नेपाल और तराई में उत्तर प्रदेश से सटे उत्तराखंड के सुदूर गांवों से पलायन कोई एक दिन या रातों रात नहीं हुआ। अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के आसपास के गांवों के खंडहर में तब्दील हो जाने से राष्ट्रीय सुरक्षा का एक बड़ा सवाल भी पैदा हो गया।
अतीत से अंतर्राष्ट्रीय सीमा क्षेत्रों के ये गांव देश की सीमाओं के लिए सुरक्षा ढाल की तरह थे। बाहरी घुसपैठ या आक्रमण की सूरत में सदियों से इन गांवों के वाशिंदे ही सेना व सुरक्षा बलों के लिए बीहड़ रास्तों और भौगोलिक स्थिति समझने का बड़ा सहारा बनते थे। भारत.चीन सीमा से जुड़ी 3,488 किमी की वास्तविक नियंत्रण रेखा इसी क्षेत्र से होकर गुजरती है। जुलाई 2017 में चमोली के बाराहोती क्षेत्र में चीनी सेना घुसपैठ कर चुकी है। 1962 की लड़ाई में ही चीन ने अक्साई चिन क्षेत्र पर कब्जा जमाया था। अवकाश प्राप्त नौकरशाह एसएस नेगी की अध्यक्षता में बने पलायन आयोग ने मात्र पिछले 10 साल में हुए पलायन का ही अपनी रिपोर्ट में जिक्र किया है। 2008 के पहले पलायन के कारण क्या थे इस पर आयोग का मौन यह समझने के लिए काफी है कि पर्वतीय जिलों की आबादी राज्य बनते ही इतनी ज्यादा घटती चली गई कि 2008 में पर्वतीय जिलों की 6 विधानसभा सीटें खत्म कर देहरादून, हरिद्वार और उधमसिंहनगर में मिला दी गईं। उस वक्त तत्कालीन मुख्य निर्वाचन आयोग डॉ मनोहर सिंह गिल का कहना था कि आयोग विधानसभा क्षेत्रों की परीसीमन प्रक्रिया को आबादी के घनत्व के हिसाब से ही पूरा करेगा। हालांकि 2008 में उत्तराखंड की भाजपा सरकार व मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने भौगोलिक स्थितियों को देखते हुए आयोग पर यह दबाव बनाने की रत्ती भर भी कोशिश नहीं की कि पर्वतीय क्षेत्रों की विधानसभाओं में भी आबादी के मानदंड का मैदानी क्षेत्रों का मापदंड अपनाने से सुदूर क्षेत्रों में विकास के बजट में कटौती होगी और शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार सृजन जैसे अहम मामलों की उपेक्षा होगी।
अब खतरा यह है कि पहाड़ों में पलायन के कारण वहां आबादी घटने का क्रम इसी तरह जारी रहा और गैर पर्वतीय लोगों का वहां बसने का सिलसिला ऐसे ही चला तो 10 साल बाद उत्तराखंड जैसे पर्वतीय राज्य में वहां के मूल लोगों के अल्पमत में आने से इस हिमालयी राज्य के गठन की पूरी अवधारणा ही ध्वस्त हो जाएगी। पलायन के कारणों की विभिन्न वजहों का रिपोर्ट में महज जिक्र किया गया। सब लोग और सरकार चलाने वालों के लिए आयोग की रिपोर्ट में उल्लिखित की गई बातों में नया कुछ भी नहीं है। दो तरह का पलायन सब लोगों को दिखता है, एक तो लोग हमेशा के लिए ही उत्तराखंड छोड़ चुके। उनके घर और गांव बंजर हो चुक दूसरे वे लोग हैं। जिन्होंने अपना गांव छोड़ा लेकिन वे पहाड़ी गांवों से देहरादून, ऋषिकेश, कोटद्वार, हरिद्वार, रामनगर, रूद्रपुर या हल्द्वानी आ गए, उत्तराखंड के गांवों से मैदानी जिलों.कस्बों में बच्चों की पढ़ाई के नाम पर हुआ यह पलायन और भी अभिशाप बन गया। गांवों से मैदानी शहरों में बसे लोगों ने पहाड़ों से उतरते ही अपनी खेती बाड़ी बंजर छोड़ दी। आज हालत ये हैं कि वे शहरी गंदगी के जिस रहन.सहन में रहने को विवश हैं। उससे वे अनेक तरह की बीमारियों के शिकार होते जा रहे हैं। सरकारी स्कूलों की बदहाली की वजह से मैदानी क्षेत्रों के प्राईवेट स्कूलों में लोग अपने बच्चों का दाखिला करवाने लगे। अब यह तादाद दिनों दिन बढ़ रही है। इसी का सबूत सरकार के वे आंकड़े हैं, जिनके मुताबिक पूरे उत्तराखंड में 10 से कम संख्या वाले 700 स्कूलों को बंद करने के निर्देश दिए गए। इससे अकेले कुमायुं मंडल में बीते सत्र में 394 स्कूल बंद कर दिए गए। सुदूर ग्रामीण अंचलों से अभिभावक अपने बच्चों को जिस गति से मैदानी क्षेत्रों या उत्तराखंड के बाहर के स्कूलों में भेज रहे हैं उससे ऐसा लगता है कि आने वाले दिनों में उत्तराखंड के 2430 प्राइमरी स्कूल बंद होने के कगार पर पहुंच चुके होंगे। सरकारी स्कूलों में शिक्षा की बदहाली पलायन का प्रमुख कारण है। पलायन आयोग द्वारा राज्य बनने के पहले 8.10 वर्षों के हालात की अनदेखी करने से पलायन के कारणों की सही तस्वीर का पता लगाया जाना मुमकिन नहीं। रिपोर्ट कहती है कि 10 साल में 700 गांव बंजर हो गए। 3.83 लाख लोगों ने अपना गांव ही छोड़ दिया। इनमें से 1,18,981 लोगों ने स्थायी तौर पर उत्तराखंड को बाय.बाय कह दिया। हालांकि रिपोर्ट को जिस हड़बड़ी व जल्दबाजी में तैयार किया गया, उसके पीछे मकसद लोगों की समझ से परे है।
पलायन का असर उत्तराखण्ड के ग्राम पंचायत चुनावों में साफ़ दिखाई दे रहा है। कई ग्रामीण क्षेत्रों में चुनाव लड़ने के लिए प्रत्याशी तक नहीं मिल रहे हैं। दैनिक हिन्दुस्तान की रपट के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। कुमाऊं में ग्राम पंचायत सदस्य के पद के लिए कुल 26,155 पदों में से 13,797 में ही नामांकन हो पाए हैं। ऐसी स्थिति में कुमाऊं की ग्राम पंचायत के 12,358 पद खाली रह जाने की संभावना है। कुल पर्वतीय जिलों में से अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ में हालात ज्यादा खराब हैं। अल्मोड़ा में सबसे ज्यादा 5468 पंचायत सदस्य और पिथौरागढ़ में 2227 पदों पर वर्तमान में अभी तक कोई नामांकन नहीं हुआ है। पलायन का असर उत्तराखण्ड के ग्राम पंचायत चुनावों में साफ़ दिखाई दे रहा है। कई ग्रामीण क्षेत्रों में चुनाव लड़ने के लिए प्रत्याशी तक नहीं मिल रहे हैं। इससे पहले कई सीटों पर अप्रवासी उत्तराखंडियों को उम्मीदवार बनाये जाने की ख़बरें सुर्खियाँ बटोर चुकी हैं। कुल मिलाकर राज्य में पलायन की स्थिति इतनी गंभीर हो गयी है कि लोकतंत्र का बुनियादी ढांचा तक खतरे में है। इसके बावजूद अब तक की सरकारों ने पर्वतीय जिलों में शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, पानी और रोजगार आदि के लिए कोई ठोस नीति नहीं बनायी है। पलायन रोकने की अनुष्ठानिक और कागजी कार्रवाइयों के अलावा कोई ठोस पहल कहीं नहीं दिखाई देती। कुल मिलकर पर्वतीय राज्य की जिस अवधारणा के साथ उत्तराखण्ड राज्य की लड़ाई लड़ी गयी थी वह धरातल से कोसों दूर ही है। राज्य के नीति नियंताओं के पास पर्वतीय जिलों के लिए कोई विजन ही नहीं है। इससे पहले कई सीटों पर अप्रवासी उत्तराखंडियों को उम्मीदवार बनाये जाने की ख़बरें सुर्खियाँ बटोर चुकी हैं। कुल मिलाकर राज्य में पलायन की स्थिति इतनी गंभीर हो गयी है कि लोकतंत्र का बुनियादी ढांचा तक खतरे में है। इसके बावजूद अब तक की सरकारों ने पर्वतीय जिलों में शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, पानी और रोजगार आदि के लिए कोई ठोस नीति नहीं बनायी है। पलायन रोकने की अनुष्ठानिक और कागजी कार्रवाइयों के अलावा कोई ठोस पहल कहीं नहीं दिखाई देतीण् कुल मिलकर पर्वतीय राज्य की जिस अवधारणा के साथ उत्तराखण्ड राज्य की लड़ाई लड़ी गयी थी वह धरातल से कोसों दूर ही है। राज्य के नीति नियंताओं के पास पर्वतीय जिलों के लिए कोई विजन ही नहीं है। पंचायत चुनावों में उम्मीदवारों का अभाव इसी का नतीजा है। राज्यसभा सांसद अनिल बलूनी ने इस बात पर जोर दिया कि अगर राज्य को विशेष फण्ड मिलता है तो यह पलायन रुकने की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता है और सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हिमालय राज्य के लिए यह जीवनदान होगा। उन्होंने कहा कि विभिन्न मंत्रालयों और महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों से संवाद कर इस कड़ी को आगे बढ़ाया जाएगाण् सांसद बलूनी की माने तो अगर ढांचागत अवस्थापना के साथ बेरोजगारी उन्मूलन की नीति बनती है तो यह पलायन रोकने में कारगर होगी। कुल मिलकर पर्वतीय राज्य की जिस अवधारणा के साथ उत्तराखण्ड राज्य की लड़ाई लड़ी गयी थी वह धरातल से कोसों दूर ही है। पलायन ने हिमालयी राज्य की अवधारणा को ध्वस्त कर दिया है। 18 साल पहले राज्य बना लेकिन परंपरागत पर्वतीय जनजीवन की खुशहाली के लिए कुछ भी ठोस दिशा नीति तय नहीं की गई। चूंकि उत्तराखंड उत्तर प्रदेश के पर्वतीय हिस्सों को अलग करके एक पर्वतीय राज्य बनाया गया लेकिन व्यावहारिक तौर पर पर्वतीय प्रदेश की जीवन पद्धति के हिसाब से विकास का आधारभूत ढांचा बनाने के बारे में सिर्फ जुबानी जमा खर्च होता रहा हैं, असल में अतीत से ही इस संवेदनशील पर्वतीय अंचल की समस्याएं बाकी उत्तर प्रदेश से एकदम जुदा थीं। लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि राज्य बनने के बाद यहां बदला कुछ भी ज्यादा नहींण् देहरादून में राजधानी उत्तर प्रदेश की राजधानी के एक्सटेंशन कांउटर की तरह काम कर रही है। निर्वाचन आयोग विधानसभा क्षेत्रों की परीसीमन प्रक्रिया को आबादी के घनत्व के हिसाब से ही पूरा करेगा तो पर्वतीय हिस्सों पर्वतीय की विधानसभा क्षेत्रों में लोकतंत्र का बुनियादी ढांचा सबसे गम्भीर समस्या दिखाई देगी। शहीदों की कुर्बानी से उत्तराखंड बन राज्य के निर्माण में शहीदों की कुर्बानी को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। बेरोजगारी की वजह से होने वाला पलायन रोकने में इनकी सरकारें फेल रही हैं। कुल मिलकर पर्वतीय राज्य की जिस अवधारणा के साथ उत्तराखण्ड राज्य की लड़ाई लड़ी गयी थी वह धरातल से कोसों दूर ही है। राज्य के नीति नियंताओं के पास पर्वतीय जिलों के लिए कोई विजन ही नहीं है।

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