डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
प्रो. खड्ग सिंह वल्दिया का जन्म 20 मार्च 1937 को कलौं म्यांमार वर्मा में हुआ था. द्वितीय विश्व
युद्ध के बाद उनके पिता देव सिंह वल्दिया अपने परिवार के साथ पिथौरागढ़ लौट आए थे. इसके बाद
वह शहर के घंटाकरण में स्थित भवन में रहे.प्रो. खड्ग सिंह वल्दिया का बचपन म्यांमार, तत्कालीन
बर्मा में बीता था. ये नन्हें बालक ही थे तभी विश्व युद्ध के दौरान एक बम के धमाके से इनकी श्रवण
शक्ति लगभग समाप्त हो गई. इनके दादा जी पोस्ट ऑफिस में चतुर्थ श्रेणी कर्मी थे और पिताजी
मामूली ठेकेदारी करते थे.परिवार में घोर गरीबी थी.माध्यमिक शिक्षा से पहले ही कान खराब होने पर
लोग इनका मजाक बनाने से भी नहीं चूकते थे और ताने मारते थे कि यह बच्चा जीवन में कुछ नहीं
कर पाएगा. पर अपने मनोबल, संकल्प और कठोर परिश्रम के बल पर इस बालक ने ऐसा कुछ कर
दिखाया कि समूचे विश्व ने उसकी बातें गंभीरता से सुनी. उस दौर में हियरिंग ऐड मशीन की आज
जैसी सुविधा नहीं थी. तब बालक रहे वल्दिया सदैव हाथ में एक बड़ी बैटरी लिए चलते थे जिससे जुड़े
यंत्र से वे थोड़ा बहुत सुन पाते थे. इसी हालात में उन्होंने न केवल अपनी शिक्षा पूरी की बल्कि टॉपर भी
रहे. पिथौरागढ़ से इंटरमीडिएट तक की शिक्षा प्राप्त करने के बाद वल्दिया ने लखनऊ विश्वविद्यालय
से उच्च शिक्षा प्राप्त की और वहीं भू-विज्ञान विभाग में प्रवक्ता पद पर उनकी नियुक्ति हो गई. उन्होंने
पिथौरागढ़ जिले के कई कॉलेजों में शिक्षण का काम भी किया. इसके अलावा वह जेएनयू में भी
अध्यापन का काम कर चुके थे.उन्होंने 1963 में डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त की.भू विज्ञान में उल्लेखनीय
कार्य करने पर 1965 में वह अमेरिका के जॉन हापकिंस विश्वविद्यालय के फुटब्राइट फैलो चुने गए थे.
1979 में राजस्थान यूनिवर्सिटी उदयपुर में भू विज्ञान विभाग के रीडर बने. इसके बाद 1970
से 76 तक वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी में वरिष्ठ वैज्ञानिक अधिकारी के
पद पर कार्यरत रहे. 1976 में उन्हें उल्लेखनीय कार्य के लिए शांति स्वरूप भटनागर
पुरस्कार से सम्मानित किया गया.1983 में वह प्रधानमंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार समिति के
सदस्य भी रहे. प्रो.वल्दिया की भूवैज्ञानिक शोध-यात्रा भाबर से लेकर हिमालय के शिखरों तक सन्
1958 से आरम्भ होती है. हिमालयी पत्थरों के भूत,भविष्य और वर्त्तमान के रहस्यों को जानने,उनकी
प्रकृति एवं प्रवृति को समझने के लिए उनके पास पद-यात्रा करना ही एकमात्र विकल्प था. मूक पत्थरों
से घण्टों बातचीत करने और और उस बातचीत को डायरी में लिखने के लिए भी उनकी यह पदयात्रा
बहुत आवश्यक थी. वे एक तरफ हिमालय की गूढता की खोज कर रहे होते तो दूसरी तरफ जंगल में
गिरि कन्दराओं से निकलने वाली निर्मल और स्वच्छंद बहती जलधाराओं का भी एक जलवैज्ञानिक के
रूप में मुआयना कर रहे होते.कहते हैं प्रकृति और जंगली जीव-जन्तुओं के साथ अंतरंग आत्मीयता के
अन्वेषक वल्दिया जी को जिस गुफा में ‘स्ट्रोमैटोलाइट’ के बारे में खोजी जानकारी मिली थी, तो उसी
समय गुफा के अंदर दो बच्चों के साथ बैठी बाघिन उन्हें निहार रही थी.मगर गुफा के बाहर पत्थर पर
बैठ बेखबर वल्दिया जी वहां का आंखों देखा हाल अपनी शोध डायरी लिखने में तल्लीन थे.प्रो.वल्दिया
को गंगोलीहाट में मिले एक पत्थर ने अंतरराष्ट्रीय फलक पर पहुंचाया था. उन्होंने अपनी किताब
‘पथरीली पगडंडियों’ में भी इसका उल्लेख भी किया है.1960 में जब प्रोफेसर वल्दिया गंगोलीहाट आए
थे तो उन्हें एक पत्थर मिला था. उन्होंने इस पत्थर का नाम ‘गंगोलीहाट डोलोमाइट’ रखा
और इसी पत्थर के आधार पर उन्होंने हिमालय की आयु बताई थी. जब उन्होंने यह बात
कही तो कई भारतीय वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने उनका उपहास उड़ाया था. इसके बाद 1964 में
अंतरराष्ट्रीय मंच पर विदेशी वैज्ञानिकों ने प्रो.वल्दिया का समर्थन किया था तब उनकी बात
को मान्यता मिली.बताया जाता है कि इसी के बाद उनका गंगोलीहाट से विशेष लगाव हो
गया था.प्रो.वल्दिया 2009 से हिमालयन ग्राम विकास समिति गंगोलीहाट में लगातार
कार्यशालाएं आयोजित कर रहे थे. कार्यक्रम समिति के अध्यक्ष राजेंद्र बिष्ट के अनुसार
‘साइंस आउटरीच’ कार्यक्रम के माध्यम से उन्होंने पिथौरागढ़, चंपावत, बागेश्वर, चमोली और
रुद्रप्रयाग के दुर्गम जिलों में 554 विद्यालयों में जाकर 25 हजार छात्र-छात्राओं और 1055
शिक्षकों को लाभान्वित किया था. प्रो. वल्दिया की भारत के लब्धप्रतिष्ठ वैज्ञानिकों में ख्याति
रही थी. इसरो प्रमुख सीएन राव उनके साथ दो बार ‘साइंस आउटरीच’ कार्यक्रम में भाग लेने
के लिए गंगोलीहाट आए थे. इसके अलावा उनके साथ हर साल आईआईटी कानपुर,इसरो,
पंतनगर, डीआरडीओ आदि संस्थानों से वैज्ञानिक आकर बच्चों को विज्ञान की बारीकियों से
अवगत कराते थे. प्रो. के.एस.वल्दिया,ने वर्ष 1990 के दशक में सूख रहें जल स्रोतों के पुनर्जीवन हेतु
जल स्रोत अभयारण्य विकसित करने का भी सरकार को सुझाव दिया था. इस तकनीक के अन्तर्गत
वर्षा जल का अभियान्त्रिक एवं वानस्पतिक विधि से जलस्रोत के जल समेट क्षेत्र में अवशोषण किया
जाता है. इस तकनीक से भूमि के ऊपर वनस्पति आवरण एवं कार्बनिक पदार्थों से युक्त मृदा एक स्पंज
की तरह वर्षा के जल को अवशोषित कर लेती है,जिससे कि तलहटी के भू जल स्रोतों (एक्वीफर्स) में
वृद्धि हो सके.आज जब हिमालय का पर्यावरण ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के दौर से गुजर
रहा है,ऐसे में प्रो. खड्ग सिंह वल्दिया जैसे लब्धप्रतिष्ठ भूवैज्ञानिक और पर्यावरणविद का चला जाना
केवल उत्तराखंड के लिए ही नहीं बल्कि समूचे देश और अंतरराष्ट्रीय जगत के लिए भी अपूरणीय
क्षति है.हिमालय पुत्र प्रो. खड्ग सिंह वल्दिया का आज इस इहलोक से जाना हिमालयी समाज के
लिए अपूरणीय क्षति है। ऐसा सच्चा इंसान अब हमारे समाज में दिखने ही दुर्लभ हैं। हिमालय के
महानायकहिमालय के प्रति उनकी चिंता और चिंतन हमेशा हमारा मार्गदर्शन करेगी।नमन पुण्य
आत्मा तुम्हें बारंबार सलाम कुमाऊं विश्वविद्यालय के भूविज्ञान विभाग के संस्थापक अध्यक्ष रहे
प्रोफेसर वाल्दिया को पहाड़ और समूचे देश के लोग कभी नहीं भूलेंगे।। *लेखक वर्तमान में दून*
*विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।*