12 अप्रैल की सुबह मैं अपने निर्माणाधीन घर में कुछ काम में जुटा था। फोन आवास पर ही था। आवास पर आया तो नैनीताल से राजीव लोचन शाहजी का मिसकाल देखा। फोन पर कई मैसेज देखे, जिनमें पुरुषोत्तम असनौड़ा को हृदयघात होने की सूचनाएं थी। मैं समझ गया मामला गड़बड़ है। सरकार में अपने सीमित संपर्कों को फोन करने की कोशिश की, लेकिन किसी का स्विच आफ था, किसी ने फोन नहीं उठाया। वापस शाहजी को फोन किया तो उन्होंने सारी जानकारी दी। इस बीच यह सूचना आई कि स्थानीय विधायक, राज्य सभा सांसद अनिल बलूनी और भाई सतीश लखेड़ा आदि ने मुख्यमंत्री तक सूचना पहुंचाकर उन्हें एयरलिफ्ट करने की व्यवस्था कर दी है। थोड़ी सी आस जगी। करीब दो साल पहले पौड़ी के पत्रकार साथी एल मोहन कोठियाल को लाख कोशिश करने के बाद भी हम एयरलिफ्ट नहीं करा पाए थे। खुद पुरुषोत्तम असनौड़ा और हम सभी लोग भी इस काम में जुटे हुए थे। जब तक श्रीनगर से कोठियालजी को एयरलिफ्ट करने की व्यवस्था हो पाती उन्होंने दम तोड़ दिया था।
इस बार समय से एयरलिफ्ट की व्यवस्था हो गई तो लगा कि असनौड़ाजी अब बच जाएंगे। जब वह ऋषिकेश एम्स पहुंचे तो उनका इलाज शुरू हुआ और सूचनाएं मिल रही थी कि इलाज सही दिशा में चल रहा है, अब वह बेहतर स्थिति में हैं। लेकिन अचानक सूचना आई कि असनौड़ाजी नहीं रहे। पहले इस सूचना पर विश्वास नहीं हुआ। फिर सोशल मीडिया पर जब विश्वसनीय लोगों के लगातार मैसेज दिखाई देने लगे तो विश्वास करना ही पड़ा।
एक पत्रकार, लेखक, आंदोलनकारी के नाते पुरुषोत्तम असनौड़ा की उत्तराखंड आंदोलन से लेकर गैरसैंण राजधानी आंदोलन में जो भूमिका रही, वह सबके सामने है। 1994 का उत्तराखंड आंदोलन गैरसैंण पर केंद्रित था। गैरसैंण में कोई भी आंदोलन हो, उसमें पुरुषोत्तम असनौड़ा की भूमिका न हो यह संभव ही नहीं था। असनौड़ा जी में एक विशेषता मैंने देखी। किसी भी आंदोलन में उनकी सक्रिय भूमिका रहती थी, लेकिन आंदोलन के लिए बनने वाले संगठनों में किसी भी पद की दौड़ में वह कभी नहीं रहे। मुझे भी कई बार गैरसैंण जाने का मौका मिला। कई बार उनके घर पर भी ठहरा। अमर उजाला में जब हम लोग साथ में थे, तब से हमारा परिचय था। गढ़वाल डेस्क में रहते हुए उनकी खबरों को संपादित करने का मौका मिला।
अमर उजाला से हटने के बाद उनके प्रयासों से रीजनल रिपोर्टर का प्रकाशन शुरू हुआ। जिसके संपादक उनके दामाद थे। उनकी असामयिक मौत के बाद उनके समधी भी स्वर्ग सिधार गए। उनकी पुत्री गंगा पर यह बहुत बड़ा बज्रपात था। असनौड़ाजी उनकी बेटी गंगा ने रीजनल रिपोर्टर को साझा प्रयासों से आगे बढ़ाया और एक के बाद एक आघात सह रही अपनी पुत्री गंगा को संबल दिया। अभी गंगा संभली ही थी कि असनौड़ा जी उसे यों ही रास्ते में छोड़कर चले गए। यही भाग्य में था, इसे कोई टाल नहीं सकता है, लेकिन कई झंझावातों को झेलने की आदी हो चुकी गंगा इन विपरीत हालातों में भी खड़ी रहेगी, ऐसी मुझे आशा है।
असनौड़ा जी का इस असमय चला जाना गैरसैंण आंदोलन को तो कमजोर करेगा ही, आंदोलनकारी ताकतों को भी कमजोर करेगा। उत्तराखंड की आंदोलनकारी ताकतों के लिए यह बड़ा आघात है, जिसकी क्षतिपूर्ति होना आसान नहीं है।












