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Uttarakhand Samachar

हिमालयन कांक्लेव-पहाड़ों को न्याय देने का सबसे बड़ा सवाल तो उठा ही नहीं!

30/07/19
in उत्तराखंड, देहरादून, पर्यटन
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16.2 प्रतिशत भूभाग वाले संपूर्ण भारतीय हिमालयी क्षेत्र का संसद में प्रतिनिधित्व आधा प्रतिशत से भी कम
शंकर सिंह भाटिया
संपूर्ण हिमालय 43 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में फैला है। इसमें से हिमालय का 5 लाख वर्ग किमी क्षेत्र भारत के हिस्से आता है। इस हिमालयी क्षेत्र में भारत के दस राज्य पूर्ण रूप से तथा दो राज्य आंशिक रूप से आते हैं। इन हिमालयी राज्यों की बोली भाषा चाहे अलग-अलग हो, लेकिन इनकी संस्कृतियां, समस्याएं एक जैसी हैं। ये हिमालयी राज्य अति संवेदनशील संपूर्ण उत्तरी सीमा बनाते हैं, जिसे तिब्बत सीमा कहा जाता है, लेकिन अब ये चीनी सीमा हो गई है। भारतीय हिमालयी क्षेत्र दस प्रशासनिक राज्यों में फैला हुआ है। ये राज्य हैं-जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, नागालैंड, मणीपुर, मिजोरम और त्रिपुरा। इन दस राज्यों के अतिरिक्त असम तथा पश्चिम बंगाल में भी हिमालयी क्षेत्र शामिल है। इन सभी राज्यों के 95 प्रशासनिक जिले इन हिमालयी क्षेत्रों में पड़ते हैं।
यह संपूर्ण हिमालयी क्षेत्र भारत की कुल भौगोलिक क्षेत्र का 16.2 प्रतिशत हिस्सा है। भारतीय हिमालय के अधिकांश क्षेत्रों में उंचे शिखर, ग्लेशियर, बुग्याल और घने जंगल फैले हुए हैं। जो संपूर्ण दक्षिण एशिया को उच्च स्तरीय पर्यावरणीय सेवाएं देते हैं। देश के अन्य क्षेत्रों के मुकाबले यहां जनसंख्या का घनत्व बहुत कम है। भौगोलिक हालातों की वजह से इस संपूर्ण क्षेत्र का ढांचागत विकास पूरी तरह से बाधित होता है।
देश की संसद में हिमालयी राज्यों के प्रतिनिधित्व की बात करें तो 16.2 प्रतिशत भूभाग वाले इस हिमालयी क्षेत्र को एक प्रतिशत प्रतिनिधित्व भी प्राप्त नहीं है। लोक सभा में 543 सांसद पूरे देश का प्रतिनिधित्व करते हैं। जो सीधे चुनकर आते हैं। यही सांसद कानून बनाते हैं। यही सांसद अपने क्षेत्रों में विकास कार्यों के लिए सरकार पर दबाव बनाते हैं। यदि समस्याओं से घिरे पूरे पर्वतीय क्षेत्र में जहां विकास कार्यों की लागत मैदानी क्षेत्रों से कई गुना अधिक बढ़ जाती है, उस क्षेत्र का संसद में प्रतिनिधित्व एक प्रतिशत से भी कम आधा प्रतिशत के करीब हो तो उनकी समस्याएं किस कदर उलझी रह जाएंगी? इसका प्रमाण हिमालयी क्षेत्र है। लोक सभा सीटों में दस हिमालयी राज्यों के हिस्से सिर्फ 26 सीटें आती हैं। यदि पश्चिम बंगाल तथा असम के हिमालयी क्षेत्रों की लोक सभा सीटें इनमें जोड़ ली जाएं तो ये 30 से अधिक नहीं हैं। यदि असम को पूर्ण रूप से हिमालयी राज्य मान लेते हैं तब यह संख्या 40 तक जाती है।
एक तरफ हिमालयी राज्यों का संसद में इतना कम प्रतिनिधित्व, दूसरी तरफ कभी एकजुट होकर एक तरह के भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक हालात वाले इस क्षेत्र की साझा जरूरतों के लिए एकजुट आवाज उठाने की पहल ही अब तक नहीं हुई।
अब उत्तराखंड के मसूरी में हिमालयी राज्यों का सम्मेलन हुआ है, तो यह केंद्र सरकार की छत्र-छाया में हुआ है। भारत की उस केंद्र सरकार की छत्र-छाया में यह सम्मेलन हुआ है, जिसने हमेशा हिमालयी राज्यों को हेय दृष्टि से देखा है। केंद्र में सरकार किस पार्टी की है, सवाल इसका नहीं है, जिस पार्टी की भी सरकार रही है, सभी का व्यवहार इन पहाड़ों से एक सा रहा है। इस सम्मेलन की एक और खासियत रही है कि सम्मेलन में शामिल लगभग अधिकांश राज्यों में बीजेपी की सरकार है, जिसकी केंद्र में भी सरकार है। ये सभी सरकारें केंद्र सरकार के सामने नतमस्तक हैं। अपना हक मांगने की बात छोड़ दीजिये ये सिर्फ भीख मांगने की मुद्रा में दिखाई देते हैं। जब सिर्फ एक राज्य उत्तराखंड 95 हजार करोड़ की पर्यावरणीय सेवाएं पूरे देश को दे रहा है, ऐसा वह अपना नुकसान उठाकर कर रहा है, तो भी वह अपने योगदान के बदले रायल्टी का दावा करने के बजाय ग्रीम बोनस की भीख मांगता है। उसके लिए भी बार-बार केंद्र सरकार हिमालयी राज्यों को दुत्कारती रहती है।
चूंकि यह सम्मेलन केंद्र सरकार की छत्र-छाया में हुआ। केंद्रीय वित मंत्री, नीति आयोग के उपाध्यक्ष समेत तमाम केंद्र सरकार के मंत्रियों, अफसरों के सामने यह पूरे सम्मेलन का खाका तैयार किया गया। इसलिए हिमालयी राज्यों के सम्मेलन में सबसे बड़ी मांग पीछे छूट गई, वह थी हिमालयी क्षेत्रों को संसद तथा विधानसभाओं में मिलने वाला प्रतिनिधित्व जनसंख्या के साथ-साथ भू क्षेत्र के आधार पर तय किया जाए। यहां यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि भाजपा प्रशासित इन राज्यों की हिम्मत नहीं है कि वह केंद्र में बैठी अपनी ही पार्टी की सरकार से यह मांग करने लगे, चाहे प्रतिनिधित्व बढ़ाने वाली यह मांग हिमालयी क्षेत्रों के लिए कितने ही हितकर क्यों न हो। इस मांग से केंद्र में बैठी सरकार को दिक्कत होती है, इस वाजिब मांग से केंद्र सरकार खुद असहज महसूस करती है। यदि ऐसा नहीं होता तो पूर्ववर्ती सरकारें इस अन्याय को इतने सालों तक नहीं थोपती। वर्तमान सरकार इसमें अपने पहले कार्यकाल में ही सुधार कर देती। चूंकि वर्तमान सरकार भी इस अन्याय को इसी तरह थोपे रखना चाहती है, इसलिए अपनी छत्र-छाया में हुए इस सम्मेलन में वह हिमालयी राज्यों की तरफ से ऐसी मांग कैसे रखवा सकती थी? इसलिए इस सम्मेलन की सबसे बड़ी खामी हिमालयी भूभाग को न्यायपूर्ण प्रतिनिधित्व न मिलने का सवाल उठाया तक नहीं गया।

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