डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
देवभूमि उत्तराखंड की सहस्त्रों वर्ष पुरानी संस्कृति का दीदार यहां पग पग पर बने मंदिर करवाते हैं। स्थापत्य कला के ये बेजोड़ नमूने बेशक पुराने या जर्जर हालत में पहुंच गए हैं। मगर इनमें मौजूद जीवंत कलाकृतियां पहाड़ के सदियों पुराने मूर्ति विज्ञान से हमें रूबरू कराता है। विशिष्ट एवं अनूठी स्थापत्य कला के संरक्षण की लचर नीति ही कहेंगे कि आधुनिकता की बयार में अब पुरातात्विक महत्व वाली धरोहरें धीरे धीरे विलुप्त होती जा रही हैं। विशुद्ध पर्वतीय शैली के बजाय अब कंकड़ सीमेंट व सरियों के ढांचे में खड़े मंदिर भवन देखने में आकर्षक जरूर लगें, लेकिन बेजोड़ शिल्पकला अपनी अलग पहचान रखती है।
उत्तराखंड में एक से एक सुन्दर प्राचीन मंदिर हैं, जिनका सदियों पुराना स्थापत्य आज भी चमत्कृत करता है। उत्तराखंड में जगह जगह मंदिरों, नौलों, अभिलेखों आदि के जरिये स्थापत्य कला अपनी चरम पर रही। इसके पश्चात चंदवंशीय राजाओं ने भी इस ओर अनेकों प्रयास किए। नागर, रूचक, पीढ़ा प्रसाद आदि शैलियों में निर्मित इन मंदिरों की बनावट, उकेरी गई कलाकृतियां आज भी देश विदेश के पर्यटकों के लिए उत्सुकता व गहन शोध के अद्भुत स्थल हैं। ऐसा ही एक मंदिर समूह अल्मोड़ा जिले के एक छोटे से गाँव नारायण देवल में है। अल्मोड़ा जिले के भैंसियाछाना ब्लॉक में नारायण देवल पंचायत का हिस्सा है, नारायण देवल गाँव। अल्मोड़ा नगर से पूर्व दिशा में आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस गाँव को जाने के लिए अल्मोड़ा.जागेश्वर मार्ग में पड़ने वाली पेटशाल नामक छोटी सी बसासत से एक कच्ची.पक्की सड़क जाती है। भैंसियाछाना से इसकी दूरी कुल 13 किलोमीटर है। नारायण देवल के आसपास गोलू देवता का विख्यात चितई मंदिर, स्याल, सिराड़ बिन्तोला और पेटशाल जैसे स्थान हैं।
वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक इस गाँव में कुल सात परिवार रहते हैं और इसकी कुल आबादी है मात्र बाईस है। लिखी सूचना एक सरकारी वेबसाईट से ली गयी है। यह वेबसाईट आपको यह नहीं बताती कि नारायण देवल में न सिर्फ भगवान राम का एक विलक्षण प्राचीन मंदिर है, बल्कि यह भी कि देवी भगवती की स्मृति में निर्मित दर्जनों संरचनाएं भी हैं। भगवान राम का यह मंदिर नागरा शैली में बना है। जिसकी छाप कुमाऊँ के अनेक प्राचीन मंदिरों में देखी जाती है। अनुमानतः यह मंदिर भी नवीं से बारहवीं शताब्दी के दौरान अस्तित्व में आया होगा।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के नियंत्रण में लाये जा चुके इस मंदिर की देखभाल के लिए एक पुजारी नियुक्त किया गया है। जिसे नाममात्र का पारिश्रमिक मिलता है। मंदिर के भीतर बेहद मूल्यवान पुरातन प्रतिमाएं हैं, जो देखरेख के अभाव में धीरे.धीरे जर्जर हो रही हैं। गाँव में घूमने पर आपको सिर्फ महिलाएं और बच्चे ही नजर आते हैं। बाकी के पहाड़ी गाँवों की तरह यहाँ भी पलायन का दंश साफ.स्पष्ट दिखाई देता है। समय रहते ऐतिहासिक धरोहरें नहीं बचाई गई तो हम अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक विरासत व पहचान को हमेशा के लिए खो देंगे। इस शैली के संरक्षण को युद्धस्तर पर कार्ययोजना बनानी होगी। इसके लिए समेकित प्रयास की जरूरत है, तो सरकारों को भी गंभीर रुख अपनाना होगा। वर्तमान में इंग्लैंड, इटली, दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों में प्राचीन सांस्कतिक धरोहरों व हस्तशिल्पों के संरक्षण का कार्य कर रहे हैं। पहाड़ में निर्मित मंदिर धर्म विधि पूर्वक, विष्णु धर्मोत्तर पुराण व शिल्पशास्त्र के अनुसार ही बनाए जाते रहे हैं। यही खासियत मंदिरों के मूल अस्तित्व को बचाए रखती है। मगर वर्तमान योजनाकार या निर्माणकर्ता इस ओर ध्यान नहीं दे रहे। आलम यह है कि सांसद व विधायक निधि से बनने वाले मंदिरों व देवालयों को पुरानी शैली में बनाने की जरूरत नहीं समझी जा रही।
समृद्ध एवं विशिष्ट पर्वतीय स्थापत्यकला को समय रहते संरक्षित कर बढ़ावा न दिया गया तो बहुत जल्द हम इस अनूठी प्रस्तरशैली के निर्माण की कला को खो देंगे। देवभूमि की जिस विशिष्ट सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, धार्मिक विरासत देश दुनिया में विशिष्ट पहचान दिलाती आई है, उसे बचाने के लिए राज्य सरकार भी संजीदा नजर नहीं आ रही। चूंकि देवभूमि देवताओं, ऋषि मुनियों व तपस्वियों की तपोस्थली रही है। देवभूमि उत्तराखंड की सहस्त्रों वर्ष पुरानी संस्कृति का दीदार यहां पग पग पर बने मंदिर करवाते हैं। स्थापत्य कला के ये बेजोड़ नमूने बेशक पुराने या जर्जर हालत में पहुंच गए हैं। मगर इनमें मौजूद जीवंत कलाकृतियां पहाड़ के सदियों पुराने मूर्ति विज्ञान से हमें रूबरू कराता है। विशिष्ट एवं अनूठी स्थापत्य कला के संरक्षण की लचर नीति ही कहेंगे कि आधुनिकता की बयार में अब पुरातात्विक महत्वाली धरोहरें धीरे धीरे विलुप्त होती जा रही है। विशुद्ध पर्वतीय शैली के बजाय अब कंकड़ सीमेंट व सरियों के ढांचे में खड़े मंदिर भवन देखने में आकर्षक जरूर लगें लेकिन बेजोड़ शिल्पकला अपनी अलग पहचान रखती हैं।