हरीश चन्द्र अन्डोला
पहाड़ की संस्कृति यहां के खान.पान की बात ही अलग है। यहां के अनाज तो गुणों का खान हैं ही, सब्जियां भी पौष्टिक तत्वों से भरपूर है। उत्तराखण्ड के अलावा छत्तीसगढ तथा झारखण्ड में भी लाल चावल का प्रयोग किया जाता है। जिसको स्थानीय भाषा में भामा के नाम से जाना जाता है। इन्ही राज्यों मे एक सामाजिक अध्ययन के दौरान यह पाया गया कि लाल चावल का पानी भी काफी लाभदायक होता है। इसके उपयोग से पूरे दिनभर ताजगी के साथ.साथ ऊर्जावान भी महसूस करते है तथा लम्बे समय तक कार्य करने के बावजूद भी प्यास नहीं लगती है। लाल चावल अन्य पोष्टिक गुणों को साथ.साथ के 2 मधुमेह के लिये भी लाभदायक पाया जाता है। लाल चावल में जो रंगीन तत्व पाया जाता है वह फल और सब्जियों में भी पाया जाता है। वह रोग प्रतिरोधक क्षमता बढाने के साथ.साथ को भी कम करता है।
सामान्यतः चावल तो विश्व प्रसिद्ध है आज भी देश के कई राज्यों जैसे हिमाचल में रक्तचाप तथा बुखार के निवारण के लाल चावल का प्रयोग किया जाता है तथा तमिलनाडु में महिलायें दूध बढाने के लिए लाल चावल लाभदायक मानती है। उत्तर प्रदेश में ल्यूकोरिया जबकि कर्नाटक में टॉनिक के रूप में प्रयोग किया जाता है। ही तथा सम्पूर्ण विश्व में चावल की बहुत सारी प्रजातियों को व्यवसायिक रूप से उगाया जाता है। जहां तक चावल उत्पादन में भारत की बात की जाए तो लगभग एक तिहाई जनसंख्या चावल के व्यवसायिक उत्पादन पर निर्भर करती है। आज विश्वभर में सफेद चावल की धूम मची हुई है जबकि स्वास्थ्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण लाल चावल को इतना महत्व नहीं मिला है। वर्तमान में भी भारत में स्थानीय बाजार में लाल चावल 50 रूपये किग्रा तथा अंतरराष्ट्रीय बाजार में जैविक लाल चावल 250 रुपये किग्रा तक बेचा जाता है। यदि उत्तराखण्ड के सिंचित तथा असिंचित दशा में मोटे धान की जगह पर यदि लाल चावल को व्यवसायिक रूप से उत्पादित किया जाय तो यह राज्य में बेहतर अर्थिकी का स्रोत बन सकता है। हिमालयी राज्यों तथा बिहार, झारखण्ड, तमिलनाडु तथा केरल में कुछ पारम्परिक प्राचीन चावल की प्रजातियां आज भी मौजूद हैं, जिनको स्थानीय लोग आज भी उगाते हैं व उपयोग करते हैं। इन्ही में से एक बहुमूल्य प्रजाति लाल चावल है, जिसकी राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय बाजार में काफी मांग रहती है। जहां तक रंगीन चावल की बात की जाय तो भारत के विभिन्न राज्यों में विभिन्न रंग के चावल जैसे कि हरा, बैंगनी, भूरा तथा लाल चावल आदि उत्पादन किया जाता है साथ ही उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में लाल चावल का उत्पादन किया जाता है।
उत्तराखण्ड के पुरोला में लाल चावल की पारम्परिक खेती की जाती है जिसको स्थानीय बाजार तथा कई देशो में खूब मांग रहती है। विश्व में दक्षिणी एशिया में रंगीन चावल पारम्परिक रूप से उगाया जाता है। तमिलनाडु तथा केरल में लाल चावल को उमा के नाम से जाना जाता है। कुछ वर्ष पूर्व संयुक्त राज्य अमेरिका में अंतरराष्ट्रीय चावल वर्ष मनाया गया। वर्तमान में सम्पूर्ण विश्व में करोड़ो लोग जीवनयापन तथा मुख्य खाद्य शैली मे चावल का उपयोग करते है। विश्व में अनाज उत्पादन तथा गरीबी व भुखमरी मिटाने में चावल का मुख्य योगदान रहा है। आज विश्वभर में चावल की असंख्य मौजूद है जिसमें सफेदद्ध चावल मुख्यतः विश्वभर में खाने में प्रयुक्त होता हैए जबकि कई वैज्ञानिक अध्ययनो में यह बताया गया है की सफेद चावल पौष्टिकता की दृष्टि से लाल चावल की अपेक्षा कम लाभदायक है क्योंकि कई महत्वपूर्ण पोषक तत्व प्रक्रिया के दौरान नष्ट हो जाते है। सफेद चावल के नष्ट होने से लगभग 29 प्रतिशत प्रोटीन, 79 प्रतिशत वसा तथा 67 प्रतिशत लौह तथा 67 प्रतिशत विटामिन बी1 80 प्रतिशत विटामिन बी1 90 प्रतिशत विटामिन बी6 तथा भी नष्ट हो जाते है जबकि लाल चावल में मौजूद होने से सभी विटामिन्स, मिनरल्स तथा पोषक तत्व पूर्णत विद्यमान रहते हैं। लाल चावल में सबसे महत्वपूर्ण राइस ब्रान ही है जो पोष्टिक एवं औषधीय गुणों से भरपूर होता है। जहां तक लाल चावल तथा सफेद चावल को पौष्टिकता की दृष्टि से तुलनात्मक विश्लेषण किया जाय तो सफेद चावल में प्रोटीन 6.8ग्राम 100ग्राम, लौह 1.2 मिग्रा 100 ग्राम, जिंक 0.5 मिग्रा 100ग्राम, फाईवर 0.6 ग्राम 100 ग्राम, जबकि लाल चावल में प्रोटीन 7.0 ग्राम 100 ग्राम फाइबर 2 ग्राम 100 ग्राम, लौह 5.5 मिग्रा 100 ग्राम तथा जिंक 3.3 मिग्रा 100 ग्राम तक पाए जाते हैं।
प्राचीन ग्रन्थ चरक संहिता में भी लाल चावल का उल्लेख पाया जाता है जिसमें लाल चावल को रोग प्रतिरोधक के साथ.साथ पौष्टिक बताया गया है। पौष्टिक तथा औषधीय गुणों से भरपूर होने के साथ.साथ लाल चावल में विपरीत वातावरण में भी उत्पादन देने कि क्षमता होती है। यह कमजोर मिटटी, कम या ज्यादा पानी तथा पहाड़ी ढालूदार आसिंचित खेतो में भी उत्पादित किया जा सकता है। लाल चावल में मौजूद गुणों के कारण ही वर्तमान में भी उच्च गुणवत्ता युक्त प्रजातियां के विकास के लिए के लिए लाल चावल का प्रयोग किया जाता है। विश्वभर में हुए कुछ ही अध्ययनों में लाल चावल का वैज्ञानिक विश्लेषण होने के प्रमाण मिले है जबकि लाल चावल के निवारण के लिए अच्छी क्षमता रखता है। सर्वप्रथम सबसे प्राचीन लाल चावल जापान में लगभग 300 काल में एक प्रमुख जापानी डिश, जो विशेष अवसरों पर बनाई जाती थी, में होने के प्रमाण मिले है। जापानी सरकार द्वारा वर्ष 2007 में के सौजन्य से सूक्ष्म एवं लघु उद्योगों के सहयोग हेतु प्राचीन लाल चावल का एक परियोजना में विस्तृत अध्ययन किया गया। उपरोक्त अध्ययन के दौरान लाल चावल में मौजूद गुण पाये जाते है और इसी वजह से लाल चावल तथा विभिन्न स्वास्थ्य उत्पादों के लिए प्रयुक्त होता है जो कि में लाभदायक पाये जाते है। लाल चावल जैसे पेट में वसा का जमाव सेएआज विश्वभर में सफेद चावल की धूम मची हुई है जबकि स्वास्थ्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण लाल चावल को इतना महत्व नहीं मिला है। वर्तमान में भी भारत में स्थानीय बाजार में लाल चावल 50 रूपये किग्रा0 तथा अंतरराष्ट्रीय बाजार में जैविक लाल चावल 250 किग्रा0 तक बेचा जाता है। यदि उत्तराखण्ड के सिंचित तथा असिंचित दशा में मोटे धान की जगह पर यदि लाल चावल को व्यवसायिक रूप से उत्पादित किया जाय तो यह राज्य में बेहतर अर्थिकी का स्रोत बन सकता है। जो पर्यावरण के संतुलन, जल और वायु की शुद्धता, भूमि के प्राकृतिक रूप को बनाये रखनेमें सहयोगी, जलधारण क्षमता बनाये रखने में सक्षम थीं इसीलिए यह सदियों से कम लागत से लम्बे समय तक बेहतर उत्पादन देने में समर्थ बनीं रहीण् इन पर परम्परगत ज्ञान का ठप्पा लगा तो इसे पिछड़ेपन का संकेत माना गया हैण् उत्तराखण्ड हिमालय राज्य होने के कारण बहुत सारे बहुमूल्य फसल उत्पाद जिनकी अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में अत्यधिक मांग रहती हैण्भारत में प्रायः सभी प्रान्तों में पाया जाता हैं।उत्तराखण्ड के परिप्रेक्ष्य में इतनी पोष्टिक एवं औद्योगिक रूप से महत्वपूर्ण फसल जिसका अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अधिक मांग हैए को प्रदेश में व्यवसायिक रूप से उत्पादित कर जीवका उपार्जन का साधन बनाया जा सकता है।