डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला :
गिरीश चंद्र तिवारी ‘गिर्दा’ उत्तराखंड राज्य के एक बहुचर्चित पटकथा लेखक, निर्देशक, गीतकार, गायक, कवि, संस्कृति एवं प्रकृति प्रेमी, साहित्यकार और आंदोलनकारी थे। ‘जनगीतों के नायक’ गिर्दा का जन्म 9 सितम्बर 1945 को अल्मोड़ा जनपद के ज्योलि गाँव में हुआ था। गिर्दा ने अपनी प्रारंभिक परीक्षा अल्मोड़ा में ही संपन्न की।गीतों के माध्यम से अलग धार देने वाले जनकवि गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ के बिना उत्तराखण्ड ने ग्यारह साल का सफर तय कर लिया है।
ग्यारह सालों के इस सफर के दौरान गिर्दा का एक भी वह सपना राज्य के नीति नियंता पूरा नहीं कर पाए, जिन सपनों को आंखों में लिए हर उत्तराखंडी के दिलों पर राज करने वाले जनकवि गिरीश तिवारी “गिर्दा” ने 22 अगस्त 2010 को हमेशा के लिए आंखें मूंदकर अपने चाहने वालों से विदा ली थी।
बहुप्रतिभा के धनी गिरीश चंद्र तिवारी ‘गिर्दा’ उत्तराखंड राज्य के एक बहुचर्चित पटकथा लेखक, निर्देशक, गीतकार, गायक, कवि, संस्कृति एवं प्रकृति प्रेमी, साहित्यकार और आंदोलनकारी थे। रोजगार की तलाश में पीलीभीत, अलीगढ तथा लखनऊ आदि शहरों में रहे। लखनऊ में बिजली विभाग तथा लोकनिर्माण विभाग आदि में नौकरी करने के कुछ समय पश्चात ही गिर्दा को वर्ष 1967 में गीत और नाटक विभाग, लखनऊ में स्थायी नौकरी मिल गयी। इसी नोकरी के कारण गिर्दा का आकाशवाणी लखनऊ में आना जाना शुरू हुआ और उनकी मुलाकात शेरदा अनपढ़, केशव अनुरागी, उर्मिल कुमार थपलियाल, घनश्याम सैलानी आदि से हुई।
युवा रचनाकारों के सानिध्य में गिर्दा की प्रतिभा में निखार आया और उन्होंने कई नाटकों की प्रस्तुतियाँ तैयार की जिनमें गंगाधर, होली, मोहिल माटी, राम, कृष्ण आदि नृत्य नाटिकाएँ प्रमुख हैं। गिर्दा ने दुर्गेश पंत के साथ मिलकर वर्ष 1968 में कुमाउँनी कविताओं का संग्रह ‘शिखरों के स्वर’ प्रकाशित किया। जिसका दुसरा संस्करण वर्ष 2009 में ‘पहाड़’ संस्था द्वारा प्रकाशित किया गया है। गिर्दा ने कई कविताओं और गीतों की धुनें भी तैयार की।
गिर्दा ने नाटकों के निर्देशन में भी अपना हाथ आजमाया और ‘नगाड़े खामोश हैं, धनुष यज्ञ, अंधायुग, अंधेर नगरी चौपट राजा’ आदि नाटकों का सफल निर्देशन किया। नगाड़े खामोश हैं और धनुष यज्ञ स्वयं गिर्दा द्वारा रचित नाटक हैं। इसी दौरान वनों की अंधाधुंध कटाई को रोकने के लिए चलाये गए ‘चिपको आंदोलन’ ने पूरे विश्व का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया, गिर्दा भी अपने आप को इस जनांदोलन से न रोक सके और इस आंदोलन में एक जनकवि के रूप में कूद पड़े।
उन्होंने पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और नीलामी की विरोध में लोगों को जागरूक करने और एकजुट करने के लिए गिर्दा कई गीतों की रचना की। गिर्दा ने उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन और नदी बचाओ आंदोलनों में भी अपने गीतों द्वारा सक्रियता दिखाई। उनके गीतों ने जन जागरूकता फैलाई और इन्हें एक बड़ा जनांदोलन बनाने में सहायता की। गिर्दा ने अपने जीवन में समय समय पर वन, शराब एवं राज्य आंदोलन को अपने गीतों तथा आवाज से जीवंत किया था। प्रसिद्ध लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी के साथ की गई गिर्दा की जुगलबंदी ने देश में ही नहीं, अपितु विदेशों में भी ख्याति दिलाई
राज्य बनने के बाद गिर्दा की मौत से महज दो साल पहले 2008 में नदी बचाओ आंदोलन के दौरान निकाली गई यात्रा में शामिल हर आंदोलनकारी के साथ यात्रा में खुद भी शामिल गिर्दा ने जब इन शब्दों के साथ नदी के दर्द को उकेरा तो लगा राज्य की नदियां भी अपनी धारा की कल-कल की आवाज से इस गीत के सुर में सुर मिला रही हों।
ज़िंदगी के अनुभवों की भट्टी में तपकर गिरीश चंद्र तिवारी से “गिर्दा” तक का सफर तय करने वाले गिर्दा ने तात्कालिक मुददों के साथ ही जिस शिद्दत से भविष्य के गर्भ में छिपी तमाम दुश्वारियों को पहचाना था, वह दुश्वारियां आज भी राज्य में बनी हुई हैं। दरअसल गिर्दा सिर्फ कवि नहीं थे, वे जनकवि थे। उनके पास सिर्फ पाठक नहीं थे, स्रोता भी थे जो उन्हें उनकी आवाज में ही सुनते समझते थे। वह राजनीति की बारीकियों को जितनी सहजता से खुद समझते थे, उतनी सहजता से वह दूसरों को भी बातों-बातों में कब समझा जाते थे, यह समझने वाले के लिए भी हैरानी भारी बात थी। गिर्दा को उनके गीतों-कविताओं के जरिए अपने आस-पास महसूस करते रहने की कोशिशों के बाद भी उनका अब न होना बेहद खलता है। उनके गीत, उनकी कवितायें उनके पूरे-पूरे अहसास के लिएनाकाफीहैं। चिपको आंदोलन तत्कालीन उत्तर प्रदेश के हर पहाड़ी जिल्ले में धीरे धीरे फ़ैल रहा था।
लखनऊ से बहुत दूर, उसके पहाड़ी जिल्ले नैनीताल में सुबह बहुत शांत थी, किसी को अंदेशा नहीं था की शाम तक क्या क्या बदलने वाला है। बात है 28 नवंबर 1977 की, सब लोग अपने समय से उठे, जंगलात के अफसर, प्रशाशन, सामान्य नागरिक, और आंदोलनकारी। प्रशाशन आत्मविश्वास से लबालब था कि कुछ नहीं होगा या होगा भी तो छुट पुट ही कुछ होगा। बच्चे समय से अपने अपने स्कूलों को जाने लगे, जान जीवन अपने अपने कार्यों में जाने लगा।
कुछ आंदोलनकारी बहुत कम संख्या में इधर उधर दुबके हुए थे, शाशन प्रशाशन उनको गिरफ्तार नहीं कर पाया था रात में। इस सब का कारण था, सरकार कुमाऊं रेंज के जंगलो को नीलम करके वाले थे, करीब 9 बजकर 30 मिनट पर ठेकेदार शैले हॉल की ओर आने लगे। पूरे शहर में 144 धरा लगी हुयी थी। आंदोलनकारी कम संख्या में आकर शैले हॉल के गेट के आगे जमा होने लगे थे। और तभी 1 युवक हुड़का (एक वाद्य यन्त्र) को बजाते हुए आया और गाने लगा “आज हिमाल तुमन कैं धत्यूँछ, जागौ जागौ हो मेरा लाल” जो कुमाउनी में बोलै जा रहा था और इसका हिंदी में मतलब है की “हिमालय के लाल आज हिमालय तुझे पुकार रहा है”, यह था जनमानस को जगाने के लिए गिरीश तिवाड़ी गिर्दा का हुंकार। राज्य 20 साल से अधिक का हो गया लेकिन गिर्दा का एक-एक गीत आज भी उतना ही ज्वलंत है जितना उस समय था.
गिर्दा के गीतों को एक बार फिर से घर-घर तक पहुँचाने की जरूरत आन पड़ी है. जिस राज्य में हम जी रहे हैं वह कहीं से भी किसी आंदोलनकारी के सपनों का राज्य नहीं लगता. राज्य निर्माण के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले अमर बलिदानियों व उनकी माँगों को हम भूलते जा रहे हैं और राज्य में मची लूट-खसोट-बर्बादी के मूक दर्शक बने हुए हैं.राज्य की युवा पीढ़ी से अगर कोई पूछ ले कि गिरीश तिवारी गिर्दा को जानते हो तो शर्त के साथ कह सकता हूँ कुछ विरले ही होंगे जो गिर्दा और उनके जनगीतों से वाकिफ होंगे.
भू-कानून को लेकर जिस तरह कुछ युवा सामने आए हैं उससे एक उम्मीद जरूर बंधती है लेकिन अपने राज्य व राज्य आंदोलनकारियों के सपने के उलट चल रहे उत्तराखंड को वास्तव में अगर पहाड़ोन्मुख, जनसरोकारी, पलायनविहीन, रोजगारयुक्त, शिक्षा-स्वास्थ्य युक्त बनाना है तो हमें गिर्दा जैसे आंदोलनकारियों को हर दिन पढ़ना व समझना होगा और उसी हिसाब से अपनी सरकारों से माँग करनी होगी. तब जाकर कहीं हमारे सपनों का उत्तराखंड धरातल पर नजर आएगा.