डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
विश्वविद्यालय के कुलपति का पद एक बहुत ही महत्वपूर्ण पद है। एक लीडर और संस्था के प्रमुख होने के नाते, विश्वविद्यालय के कुलपति को बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होती है। अकादमिक योग्यताएं, प्रशासनिक अनुभव, अनुसंधान प्रमाण-पत्र और ट्रैक रिकॉर्ड एक कुलपति का होना चाहिए। कुलपति, विश्वविद्यालय के साथ-साथ छात्रों की बेहतरी के प्रति अपने आचरण में एक स्पष्टता बनाए रखता है। एक कुलपति ऐसा होना चाहिए जो छात्रों को प्रेरित कर सके और विश्वविद्यालय प्रणाली में उच्च गुणवत्ता वाले शिक्षकों के प्रवेश की गारंटी दे सके। कुलपति एक विश्वविद्यालय के कार्यकारी और अकादमिक विंग के बीच एक सेतु के रूप में कार्य करता है क्योंकि वह एक ‘शिक्षक’ और ‘प्रशासक’ दोनों का प्रमुख होता है।किसी भी विश्वविद्यालय में कुलपति पद के चयन के लिए यूजीसी के नियमानुसार एक सर्च कमेटी होती है। समिति का अध्यक्ष माननीय कुलाधिपति द्वारा नामित एक कुशल योग्य व्यक्ति होता है , एक सदस्य यूजीसी के द्वारा नामित होता है, एक सदस्य संबंधित विश्वविद्यालय की कार्य परिषद से नामित होता है, किन्ही राज्यों में इस सर्च कमेटी का सदस्य तत्कालीन सरकार का नामित सदस्य भी होता है। ऐसा भी देखा गया है कि किसी राज्य में उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश या उसके द्वारा नामित एक सदस्य होता है। इस कुलपति सर्च कमेटी का मुख्य उद्देश होता है कि वह कुलपति पद के लिए आए हुए आवेदन पत्रों की जांच करें और जांच करके उनके अकादमिक, शैक्षणिक, प्रशासनिक एवं अन्य प्रकार के अनुभव के आधार पर 3 या 5 सदस्यों का एक पैनल बनाता है।यह पैनल राज्यों के अनुसार या तो मुख्यमंत्री के पास या राज्य के राज्यपाल के पास दे दिए जाते हैं। 3 या 5 सदस्यों के पैनल से माननीय मुख्यमंत्री या और माननीय राज्यपाल दोनों के निरीक्षण के बाद संबंधित विश्वविद्यालय के लिए कुलपति का नाम चयनित किया जाता है। यह अत्यंत दुख की बात है, बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि विश्वविद्यालय के कुलपति चयनित होने के बाद माननीय न्यायालय के द्वारा यह मालूम होता है कि चयनित कुलपति की नियुक्ति नियमानुसार नहीं हुई। कुलपति के द्वारा आवेदन पत्र में शैक्षणिक या अकादमिक या प्रशासनिक दस्तावेजों से संबंधित सूचनाएं गलत पेश की गई थी।चयनित कुलपति यूजीसी द्वारा बनाए गए नियमों के अनुसार योग्यता नहीं रखते थे – जब ऐसे समाचार मिलते हैं माननीय न्यायालय असंवैधानिक रूप से चुने गए कुलपतियों को उनके उनके पद से विमुक्त कर दिया जाता है तब बहुत दुख होता है। मन में एक प्रश्न उठता है कि इस प्रकार के दोष के लिए किसको जिम्मेदार ठहराया जाए।अक्सर साधारण तौर पर माननीय राज्यपाल या माननीय मुख्यमंत्री की ओर इशारा किया जाता है। लेकिन क्या कभी इस बात पर गंभीरता से विचार नहीं किया जाना चाहिए कि आधिकारिक रूप से नियुक्त एक सर्च कमेटी के सदस्यों की क्या भूमिका है ? साधारण तौर पर इस पूरी चयन प्रक्रिया में सर्वप्रथम उस कार्यालय की जिम्मेदारी होती है जिसमें कुलपति पद के लिए आवेदन प्राप्त किए जाते हैं। उस कार्यालय की यह जिम्मेदारी होनी चाहिए की आवेदनकर्ता से मांगे गए सभी दस्तावेज प्रेषित किए हैं या नहीं और उन सभी दस्तावेज के बारे में गंभीर रूप से अध्ययन करना चाहिए कि दस्तावेज में कोई कमी तो नहीं है और यदि दस्तावेज में कोई कमी है तो उसको चयन समिति के सदस्यों को बताना चाहिए।सर्च कमेटी के सदस्य के नाते कुलपति का नाम प्रस्तावित तो करते हैं लेकिन वास्तव में वह कुलपति के लिए प्राप्त आवेदकों को आवेदन पत्रों को बिल्कुल जांच नहीं करते और उनके पास प्रस्तावित नामों की सूची पहले से ही या तो राज्य सरकार के द्वारा या अन्य माननीय व्यक्तियों के द्वारा दे दी जाती है। वह तो केवल हस्ताक्षर मात्र ही करते हैं।यदि यह सही है। यह बहुत ही गंभीर मामला है इस प्रकार के प्रकरण की गंभीरता से जांच होनी चाहिए। मैं मानता हूं कि किसी भी विश्वविद्यालय के लिए इस प्रक्रिया से कुलपति चुनना एक बहुत ही चुनौतीपूर्ण मामला है और पूरे नियमों का पालन करने के बाद भी एक सबसे आदर्श कुलपति का चुनाव हो जाए यह भी कहना उचित नहीं होगा लेकिन मेरा यह मानना है कि यदि कुलपति पद के चुनाव के लिए कुछ नियमावली है तो उस नियमावली का पूर्ण रूप से पालन करना चाहिए।कुलपति चयन प्रक्रिया में एक और भी गंभीर प्रश्न है।जब एक कुलपति की नियुक्ति के बारे में प्रश्न चिन्ह उठते हैं और कोई प्रभावित व्यक्ति न्यायालय में अपील करता है तब न्यायालय की अपनी व्यवस्था के अनुसार प्रक्रिया होती है। न्यायालय की प्रक्रिया के पूर्ण होने में इतना समय लग जाता है की तत्कालीन कुलपति का कार्यकाल स्वतः ही समाप्त हो जाता है। इस प्रकार न्यायालय में अपील करने से ही कोई भी निष्कर्ष नहीं निकल पाता और नियुक्ति में हुई धांधली को या कोई असंवैधानिक प्रक्रिया का समाधान नहीं हो पाता है। आने वाले समय मे फिर आम व्यक्ति गलत चयन प्रक्रिया ली अपील न्यायालय ले नहीं करते और गलत चयनित व्यक्ति अकादमिक का सत्यानाश कर देते हैं।कुलपति के चयन में या किसी भी संस्थान के मुखिया के चयन में यदि कोई न्यायिक प्रक्रिया प्रारंभ हो गई है तो उस पर शीघ्र से शीघ्र न्यायालय का निर्णय आ जाना चाहिए क्योंकि यदि अकुशल, अयोग्य व्यक्ति॰ किसी संस्थान के उच्च पद पर लंबे समय तक रह गया तब उस संस्थान के भविष्य एक चिंता का विषय रहता है। अतःमाननीय न्यायालय को शीघ्र से शीघ्र अपना निर्णय लेना चाहिए। विश्वविद्यालयों को तभी श्रेष्ठ कुलपति मिल सकते हैं जब चयन को लेकर गठित पैनल में अनुभवी शिक्षाविद शामिल हों और जो बिना किसी दबाव के पारदर्शी तरीके से योग्यता के आधार पर कुलपति का चयन करें। प्रदेश भर के शिक्षाविदों ने कुलपतियों के चयन को लेकर जागरण से बातचीत में खुलकर अपने विचार रखे।उन्होंने कहा कि कुलपति व कुलसचिव के चयन को लेकर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की गाइडलाइन का अक्षरस पालन होना चाहिए। पैनल पर जब बाहरी दबाव होता है तो योग्यता पीछे रह जाती है। शिक्षाविदों का मानना है कि कुलपति नियुक्त हो जाने के बाद उस पद पर सवाल खड़े नहीं किया जाने चाहिए। इसके लिए चयन करने वाले पैनल की जवाबदेही तय होनी चाहिए। यदि कुलपति व कुलसचिव पर सवाल खड़े होते हैं या उनकी योग्यता को चुनौती दी जाती है विश्वविद्यालय से आशय एक ऐसी संस्था से है, जो उपाधि प्रदान करती हो, जहाॅं पर पूरी दुनिया के विचारों को निष्पक्ष रूप से प्रश्रय मिलता हो, जहाॅ सभी बन्धनों एवं सीमाओं से हटकर विद्यार्जन, विद्यादान तथा मानवता एवं प्रकृति को ध्यान में रखकर ज्ञान की उत्पत्ति के लिए प्रयास किये जा रहे हों, जहाॅ पर एक-दूसरे के विचारों से सहमत-असहमत होते हुए बौद्विक परंपरा फल-फूल रही हो तथा जहाॅ पर उच्चतम स्तर का अनुसंधान एवं शिक्षण कार्य होता हो। ऐसे महत्वपूर्ण संस्थानों के मुखिया से इस तरह के उच्च नैतिक मानदण्डों की अपेक्षा की जाती है, जिसमें वे जनता, समाज, राश्ट्र एवं मानवता के मानकों पर खरे उतर सकें। लेकिन इन शिक्षा के मन्दिरों में जिस तरह की घटनायें देखने को मिल रही हैं, उन्होंने यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि कहीं न कहीं इन संस्थानों के मुखिया की चयन प्रक्रिया में आमूल-चूल परिवर्तन की आवष्यकता है। पहले कुलपतियों पर इक्का-दुक्का आरोप ही देखने को मिलते थे तथा इन आरोपों के चलते नैतिकता के आधार पर कुलपति पद भी छोड़ देते थे, लेकिन वर्तमान में विश्वविद्यालयों के अधिकतर कुलपतियों पर अनियमिततायें करने तथा भ्रष्टाचार एवं पक्षपातपूर्ण व्यवहार के आरोप लगना आम बात हो गई है। डाॅ0 हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर एवं जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर में भ्रष्टाचार तथा नियुक्तियों में हुए घोटालों से हम सभी वाकिफ हैं। उच्च शैक्षणिक संस्थानों में संस्था प्रमुख द्वारा निष्पक्षता बरकरार रखना उनकी सबसे बड़ी विषेशता एवं पक्षपातपूर्ण व्यवहार करना सबसे बड़ी कमी मानी जानी चाहिए। इससे बड़ा दुर्भाग्य और विडम्बना क्या होगी कि जिनके हाथों में हम इन शिक्षा के मन्दिरों की कमान सौंप रहे हैं उन्हें भ्रष्टाचार और अनियमितताओं के आरोप में जेल तक जाना पड़ रहा है। हमें इस पर संजीदगी से विचार करना होगा कि ये संस्था प्रमुख कुलपति बनने के बाद इस तरह का व्यवहार कर रहे हैं अथवा कुलपति चयन करने वालों से ही कहीं चूक हो रही है, क्योंकि कुलपति के लिए यूजीसी द्वारा निर्धारित योग्यताएं पूरी होते-होते एक शिक्षक पचास साल के आस-पास पहुंच जाता है। उनकी यही पचास सालों की उपलब्धियाॅं एवं कार्य प्रणाली कुलपति की नियुक्ति में प्रमुख आधार मानी जाती हैं। पचास तक पहुंचते-पहुंचते व्यक्ति की प्राथमिकताएं एवं काम करने का तरीका लगभग निश्चित हो जाता है। अतः यह मानना बहुत ही मुश्किल है कि कुलपति नियुक्त करते समय नियुक्त करने वालों को यह अहसास न हो कि वे जिनके हाथों में इन शैक्षणिक संस्थानों की कमान सौंपने जा रहे हैं उनकी प्राथमिकताएं क्या होंगी। श्रीलाल शुक्ल ने कहा है कि सोते को जगाया जा सकता है, पर कोई सोने का ढोंग करके पड़ा हो तो उसे कैसे जगाया जाये, यदि खेत की रखवाली करने वाला ही फसल को नुकसान पहुंचाने लगे तो फिर फसल को कौन बचायेगा। इसी तरह जब कुलपति ही पक्षपातपूर्ण व्यवहार करने लगें तो विश्वविद्यालय का वातावरण सही कैसे रह पाएगा। सिर्फ भ्रष्टाचार करने वाले को ही नहीं बल्कि भ्रष्टाचार से कमाई दौलत का उपयोग करने वाले सगे-संबंधियों के लिए भी कड़ी सजा का प्रावधान होना चाहिए।
यूजीसी द्वारा 18 जुलाई, 2018 को भारत के राजपत्र में जारी अधिसूचना के अनुसार व्यवसायिक आचार संहिता के अंतर्गत शिक्षकों के दायित्वों का उल्लेख किया गया है। जिसमें एक शिक्षक से उनकी ‘कथनी और करनी’ के बीच भेद न करने की अपेक्षा की गई है। चूंकि इन्हीं शिक्षकों में से ही कुलपतियों का चयन होता है इसलिए यह बात कुलपतियों पर भी लागू होती है। इसी अधिसूचना में कुलपतियों के लिए भी दिशा-निर्देश जारी किये गये हैं, जिनके अनुसार एक कुलपति को पारदर्षिता, निष्पक्षता, ईमानदारी, सर्वोच्च नैतिकता के साथ आचरण करने एवं विश्वविद्यालय के सर्वोत्तम हित में निर्णय लेने के लिए कहा गया है। कुलपति के चयन के लिए निकाले गये विज्ञापन में इन सब बातों का उल्लेख तो रहता है, लेकिन इन कुलपतियों के कुलपति बनने के पहले के एक-दो माह की काॅल डिटेल एवं काॅल रिकार्डिंग निकलवा ली जाए, तो अधिकतर कुलपतियों के खिलाफ आपराधिक प्रकरण दर्ज हो सकते हैं क्योंकि ये साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति पर अमल करते हुए कुलपति बनने एवं बने रहने के लिए प्रयास कर रहे हैं। यही नहीं कुलपति चयन करने वाली समिति के सदस्यों की काॅल डिटेल एवं काॅल रिकार्डिंग सामने आ जाये तो पैरों के नीचे से जमीन खिसक जायेगी। यदि कुलपति बेहतर एवं निष्पक्ष रूप से काम कर रहें हैं तो सार्वजनिक रूप से उनका एवं उनको नियुक्त करने वालों का सम्मान भी होना चाहिए। वर्तमान में जो कुलपति निष्पक्ष रूप से एवं अच्छा कार्य कर रहें हैं वे भी इस बात से सहमत हों्रगे कि कुलपति नियुक्त करने की प्रक्रिया पर पुर्नविचार की आवष्यकता है। चयन समिति को यह अधिकार भी दिया जाना चाहिए, जिससे वे कुलपति के लिये आवेदन न करने वालों के नाम पर भी विचार कर सकें। यूजीसी द्वारा ईमानदारी, नैतिकता एवं निष्पक्षता को आधार मानकर शिक्षकों की एक सूची तैयार करनी चाहिए, जिसमें अनुशंसा करने वालों के नाम भी सार्वजनिक रूप से प्रकाशित हों। शिक्षक सिर्फ वे बनंे, जिनमें देने का भाव हो तथा जिनकी ‘कथनी और करनी’ में अन्तर न हो।समवर्ती सूची में आने के कारण शिक्षा पर संघ एवं राज्य दोनों को कानून बनाने का अधिकार है। देश में कुलपतियों की नियुक्तियों को लेकर न्यायालयों में वर्षों से विचाराधीन प्रकरण इस बात का प्रमाण हैं कि अभी तक पूरी तरह से यह स्पश्ट नहीं हो पाया है कि यूजीसी द्वारा जारी दिशा-निर्देश भारत सरकार के राजपत्र में प्रकाशित होने के बाद राज्यों में किस तरह से लागू होंगे। यदि राज्यों को इन्हें लागू न करने का अधिकार है तो इसका भी उल्लेख होना चाहिए। यदि स्थिति बिल्कुल स्पश्ट हो जाये तो कुलपति की नियुक्तियों को लेकर विचाराधीन प्रकरणों का निराकरण बहुत जल्दी हो सकता है। चूंकि कुलपति की चयन समिति में एक सदस्य यूजीसी का रहता है इसलिए इस तरह के प्रकरणों में इस सदस्य की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। एक निश्चित अवधि से अधिक समय तक चलने वाले न्यायालयीन प्रकरणों में आने वाले निर्णयों के आधार पर जबावदेह अधिकारियों की पहचान होनी चाहिए। जब तक अनावष्यक रूप से न्यायालयीन प्रकरणों को जन्म देने एवं उन्हें लंबित करने वाले अधिकारियों की जबावदेही तय नहीं होगी तब तक न्यायालयीन प्रकरणों में कमी नहीं आयेगी।
हमें आकलन के पैमानों पर पुर्नविचार करना होगा क्योंकि जो कभी गाॅव में नहीं रहे वे ग्रामीण विकास पर निबन्ध लिखकर बड़ी-बड़ी प्रतियोगी परीक्षायें पास कर रहे हैं। दो साल पहले चेन्नई में एक आई.पी.एस. अधिकारी संघ लोक सेवा आयोग की मुख्य परीक्षा में नकल करते हुए पकड़े गये थे। हमारे आकलन की इससे बड़ी विसंगति और क्या होगी कि 2014 में संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में इन्होंने ईमानदारी एवं नैतिकता जाॅचने वाले प्रश्नपत्र में अन्य प्रश्नपत्रों की तुलना में अधिक अंक प्राप्त किये थे। ईमानदारी, नैतिकता एवं संवेदनशीलता चयन की पहली शर्त होनी चाहिए। कुलपति का चयन करते समय अकादमिक उपलब्धियों के साथ-साथ संबंधित संस्था से ईमानदारी, नैतिकता एवं संवेदनशीलता के संबंध में गोपनीय जानकारी भी हासिल की जानी चाहिए, क्योंकि किसी भी शिक्षक के बारे में सही जानकारी उनके छात्र एवं वे लोग ही दे सकते हैं, जो वर्षों से उनके साथ कार्य कर रहे हैं। जिस तरह से एक शिक्षक के बारे में छात्रों से फीड बैक लेने की व्यवस्था है उसी तरह छात्रों, कर्मचारियों, शिक्षकों एवं मीडिया से कुलपति के बारे में भी फीडबैक लिया जाना चाहिए। हमें आकलन के ऐसे पैमाने स्थापित करने होंगे, जिससे नैतिक रूप से मजबूत, ईमानदार, चरित्रवान एवं संवेदनशील लोग ही मुख्य धारा में आ सकें। लेकिन यह तब तक संभव नहीं होगा जब तक कि चयन करने वाले लोगों एवं संस्थाओं को जबावदेह नहीं बनाया जाएगा। जिस तरह मोटर वाहन (संषोधन) अधिनियम, 2019 में नाबालिग द्वारा वाहन चलाने पर अभिभावक को दोषीमाना जायेगा, उसी तरह कुलपति बनाने वालों की जबावदेही भी तय होनी चाहिए, जिससे ऐसे कुलपति नियुक्त हों जो वास्तव में पारदर्षिता, निष्पक्षता, ईमानदारी एवं सर्वोच्च नैतिकता के साथ आचरण करें एवं विश्वविद्यालय के सर्वोत्तम हित में निर्णय लें।भ्रष्टाचार तथा नियुक्तियों में हुए घोटालों से हम सभी वाकिफ हैं। उच्च शैक्षणिक संस्थानों में संस्था प्रमुख द्वारा निष्पक्षता बरकरार रखना उनकी सबसे बड़ी विषेशता एवं पक्षपातपूर्ण व्यवहार करना सबसे बड़ी कमी मानी जानी चाहिए। इससे बड़ा दुर्भाग्य और विडम्बना क्या होगी कि जिनके हाथों में हम इन शिक्षा के मन्दिरों की कमान सौंप रहे हैं उन्हें भ्रष्टाचार और अनियमितताओं के आरोप में जेल तक जाना पड़ रहा है। हमें इस पर संजीदगी से विचार करना होगा कि ये संस्था प्रमुख कुलपति बनने के बाद इस तरह का व्यवहार कर रहे हैं अथवा कुलपति चयन करने वालों से ही कहीं चूक हो रही है, क्योंकि कुलपति के लिए यूजीसी द्वारा निर्धारित योग्यताएं पूरी होते-होते एक शिक्षक पचास साल के आस-पास पहुंच जाता है। उनकी यही पचास सालों की उपलब्धियाॅं एवं कार्य प्रणाली कुलपति की नियुक्ति में प्रमुख आधार मानी जाती हैं। पचास तक पहुंचते-पहुंचते व्यक्ति की प्राथमिकताएं एवं काम करने का तरीका लगभग निश्चित हो जाता है। अतः यह मानना बहुत ही मुश्किल है कि कुलपति नियुक्त करते समय नियुक्त करने वालों को यह अहसास न हो कि वे जिनके हाथों में इन शैक्षणिक संस्थानों की कमान सौंपने जा रहे हैं उनकी प्राथमिकताएं क्या होंगी। श्रीलाल शुक्ल ने कहा है कि सोते को जगाया जा सकता है, पर कोई सोने का ढोंग करके पड़ा हो तो उसे कैसे जगाया जाये, यदि खेत की रखवाली करने वाला ही फसल को नुकसान पहुंचाने लगे तो फिर फसल को कौन बचायेगा। इसी तरह जब कुलपति ही पक्षपातपूर्ण व्यवहार करने लगें तो विश्वविद्यालय का वातावरण सही कैसे रह पाएगा। सिर्फ भ्रष्टाचार करने वाले को ही नहीं बल्कि भ्रष्टाचार से कमाई दौलत का उपयोग करने वाले सगे-संबंधियों के लिए भी कड़ी सजा का प्रावधान होना चाहिए।
यूजीसी द्वारा 18 जुलाई, 2018 को भारत के राजपत्र में जारी अधिसूचना के अनुसार व्यवसायिक आचार संहिता के अंतर्गत शिक्षकों के दायित्वों का उल्लेख किया गया है। जिसमें एक शिक्षक से उनकी ‘कथनी और करनी’ के बीच भेद न करने की अपेक्षा की गई है। चूंकि इन्हीं शिक्षकों में से ही कुलपतियों का चयन होता है इसलिए यह बात कुलपतियों पर भी लागू होती है। इसी अधिसूचना में कुलपतियों के लिए भी दिशा-निर्देश जारी किये गये हैं, जिनके अनुसार एक कुलपति को पारदर्षिता, निष्पक्षता, ईमानदारी, सर्वोच्च नैतिकता के साथ आचरण करने एवं विश्वविद्यालय के सर्वोत्तम हित में निर्णय लेने के लिए कहा गया है। कुलपति के चयन के लिए निकाले गये विज्ञापन में इन सब बातों का उल्लेख तो रहता है, लेकिन इन कुलपतियों के कुलपति बनने के पहले के एक-दो माह की काॅल डिटेल एवं काॅल रिकार्डिंग निकलवा ली जाए, तो अधिकतर कुलपतियों के खिलाफ आपराधिक प्रकरण दर्ज हो सकते हैं क्योंकि ये साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति पर अमल करते हुए कुलपति बनने एवं बने रहने के लिए प्रयास कर रहे हैं। यही नहीं कुलपति चयन करने वाली समिति के सदस्यों की काॅल डिटेल एवं काॅल रिकार्डिंग सामने आ जाये तो पैरों के नीचे से जमीन खिसक जायेगी। यदि कुलपति बेहतर एवं निष्पक्ष रूप से काम कर रहें हैं तो सार्वजनिक रूप से उनका एवं उनको नियुक्त करने वालों का सम्मान भी होना चाहिए। वर्तमान में जो कुलपति निष्पक्ष रूप से एवं अच्छा कार्य कर रहें हैं वे भी इस बात से सहमत हों्रगे कि कुलपति नियुक्त करने की प्रक्रिया पर पुर्नविचार की आवष्यकता है। चयन समिति को यह अधिकार भी दिया जाना चाहिए, जिससे वे कुलपति के लिये आवेदन न करने वालों के नाम पर भी विचार कर सकें। यूजीसी द्वारा ईमानदारी, नैतिकता एवं निष्पक्षता को आधार मानकर शिक्षकों की एक सूची तैयार करनी चाहिए, जिसमें अनुशंसा करने वालों के नाम भी सार्वजनिक रूप से प्रकाशित हों। शिक्षक सिर्फ वे बनंे, जिनमें देने का भाव हो तथा जिनकी ‘कथनी और करनी’ में अन्तर न हो।समवर्ती सूची में आने के कारण शिक्षा पर संघ एवं राज्य दोनों को कानून बनाने का अधिकार है। देश में कुलपतियों की नियुक्तियों को लेकर न्यायालयों में वर्षों से विचाराधीन प्रकरण इस बात का प्रमाण हैं कि अभी तक पूरी तरह से यह स्पश्ट नहीं हो पाया है कि यूजीसी द्वारा जारी दिशा-निर्देश भारत सरकार के राजपत्र में प्रकाशित होने के बाद राज्यों में किस तरह से लागू होंगे। यदि राज्यों को इन्हें लागू न करने का अधिकार है तो इसका भी उल्लेख होना चाहिए। यदि स्थिति बिल्कुल स्पश्ट हो जाये तो कुलपति की नियुक्तियों को लेकर विचाराधीन प्रकरणों का निराकरण बहुत जल्दी हो सकता है। चूंकि कुलपति की चयन समिति में एक सदस्य यूजीसी का रहता है इसलिए इस तरह के प्रकरणों में इस सदस्य की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। एक निश्चित अवधि से अधिक समय तक चलने वाले न्यायालयीन प्रकरणों में आने वाले निर्णयों के आधार पर जबावदेह अधिकारियों की पहचान होनी चाहिए। जब तक अनावष्यक रूप से न्यायालयीन प्रकरणों को जन्म देने एवं उन्हें लंबित करने वाले अधिकारियों की जबावदेही तय नहीं होगी तब तक न्यायालयीन प्रकरणों में कमी नहीं आयेगी।
हमें आकलन के पैमानों पर पुर्नविचार करना होगा क्योंकि जो कभी गाॅव में नहीं रहे वे ग्रामीण विकास पर निबन्ध लिखकर बड़ी-बड़ी प्रतियोगी परीक्षायें पास कर रहे हैं। दो साल पहले चेन्नई में एक आई.पी.एस. अधिकारी संघ लोक सेवा आयोग की मुख्य परीक्षा में नकल करते हुए पकड़े गये थे। हमारे आकलन की इससे बड़ी विसंगति और क्या होगी कि संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में इन्होंने ईमानदारी एवं नैतिकता जाॅचने वाले प्रश्नपत्र में अन्य प्रश्नपत्रों की तुलना में अधिक अंक प्राप्त किये थे। ईमानदारी, नैतिकता एवं संवेदनशीलता चयन की पहली शर्त होनी चाहिए। कुलपति का चयन करते समय अकादमिक उपलब्धियों के साथ-साथ संबंधित संस्था से ईमानदारी, नैतिकता एवं संवेदनशीलता के संबंध में गोपनीय जानकारी भी हासिल की जानी चाहिए, क्योंकि किसी भी शिक्षक के बारे में सही जानकारी उनके छात्र एवं वे लोग ही दे सकते हैं, जो वर्षों से उनके साथ कार्य कर रहे हैं। जिस तरह से एक शिक्षक के बारे में छात्रों से फीड बैक लेने की व्यवस्था है उसी तरह छात्रों, कर्मचारियों, शिक्षकों एवं मीडिया से कुलपति के बारे में भी फीडबैक लिया जाना चाहिए। हमें आकलन के ऐसे पैमाने स्थापित करने होंगे, जिससे नैतिक रूप से मजबूत, ईमानदार, चरित्रवान एवं संवेदनशील लोग ही मुख्य धारा में आ सकें। लेकिन यह तब तक संभव नहीं होगा जब तक कि चयन करने वाले लोगों एवं संस्थाओं को जबावदेह नहीं बनाया जाएगा। जिस तरह मोटर वाहन (संषोधन) अधिनियम, 2019 में नाबालिग द्वारा वाहन चलाने पर अभिभावक को दोषीमाना जायेगा, उसी तरह कुलपति बनाने वालों की जबावदेही भी तय होनी चाहिए, जिससे ऐसे कुलपति नियुक्त हों जो वास्तव में पारदर्षिता, निष्पक्षता, ईमानदारी एवं सर्वोच्च नैतिकता के साथ आचरण करें एवं विश्वविद्यालय के सर्वोत्तम हित में निर्णय लें।लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। *लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*