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पर्वतीय इलाकों में संतुलित आहार की परंपरागत संस्कृति मौजूद

09/04/20
in उत्तराखंड, हेल्थ
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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखण्ड आदि काल से ही महत्वपूर्ण जड़ी.बूटियों व अन्य उपयोगी वनस्पतियों के भण्डार के रूप में विख्यात है। इस क्षेत्र में पाये जाने वाले पहाड़ों की श्रृंखलायें, जलवायु विविधता एवं सूक्ष्म वातावरणीय परिस्थितियों के कारण प्राचीन काल से ही अति महत्वपूर्ण वनौषधियों की सुसम्पन्न सवंधिनी के रूप में जानी जाती हैं। कुदरत ने उत्तराखंड को कुछ ऐसे अनमोल तोहफे दिए हैं, जिनमें अद्भुत गुणों की भरमार है। पौष्टिक व्यंजन और लाजवाब जायका मौसम को खाने.पीने के लिहाज से सबसे बेहतरीन माना गया है। इस मौसम में जठराग्नि बहुत तेजी से काम करती है, जिसकी वजह से बहुत ज्यादा भूख लगती है।
हम जो भी खाते हैं, पाचन क्षमता दुरुस्त रहने की वजह से वह आसानी से पच जाता है। लेकिन, सर्दियों में ठंड बढऩे के साथ जहां सर्दी.जुकाम समेत अन्य बीमारियां दस्तक देने लगती हैं, वहीं सुस्ती और आलस की समस्या भी घेरे रहती है। ऐसे में हम आहार में शरीर को गर्मी प्रदान करने वाली चीजों को शामिल कर स्वयं को स्वस्थ रखने के साथ चुस्त.दुरुस्त भी रख सकते हैं। पर असल सवाल यही है कि आखिर हमारा आहार कैसे हो। इसके लिए उत्तराखंड की बारहनाजा पद्धति में सनातनी व्यवस्था है। यहां लोगों का पारंपरिक भोजन पूरी तरह सतुलित व पोषक तत्वों से परिपूर्ण है। वजह यह कि इसमें सभी मोटे अनाज शामिल हैं। एक प्रकार से यह बैलेंस डाइट है। हालांकि एक दौर में लोग पारंपरिक भोजन से दूरी बनाने लगे थे, लेकिन अब वे फिर से पारंपरिक भोजन का महत्व समझने लगे हैं। उत्तराखंड में कहीं पहाड़, कहीं मैदान, कहीं उपजाऊ तो कहीं ऊसर भूमि है। यहां का वातावरण भी ठंडा है। इन्हीं विविधताओं के अनुसार यहां के भोजन के लिए फसलें तैयार होती हैं, जो ज्यादातर मोटे अनाज के रूप में हैं। इनमें गेहूं, धान, मंडुवा, झंगोरा, ज्वार, चौलाई, तिल, राजमा, उड़द, गहथ, नौरंगी, लोबिया और तोर जैसी फसलें मुख्य हैं। इन्हीं अनाजों से यहां पर पौष्टिक एवं स्वादिष्ट व्यंजन बनाए जाते हैं। अब जबकि त्योहारों के साथ शादी.ब्याह का सीजन भी शुरू हो चुका है।
ऐसे अवसरों पर मोटे अनाजों से बनने वाले नाना प्रकार के व्यजनों का स्वाद हर किसी को भाता है। शादी.ब्याह के मौके पर चावल के आटे से बनने वाले अरसे और पिसी हुई उड़द की दाल से बनी पकोडिय़ां भला किसे नहीं ललचाती होंगी। स्वाले, भूड़े, खीर, रोट, पुए, पत्यूड़, गुंडला, पेठा व पिंडालू से बनने वाली बडिय़ां जैसेव्यजनों को ग्रहण करने का भी अलग ही मजा है। पहाड़ में लोगों ने अपनी आवश्यकता के अनुसार कई प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन ईजाद किए हैं। इनमें दाल.भात के साथ ही काफली, फाणु, झ्वली कढ़ी, चैंसु, रैलु, बाड़ी, पल्यो, कोदे मंडुवा व मुंगरी मक्का की रोटी, आलू का थिंचोंणी, आलू का झोल, झंगोरे का भात, अरसा, बाल मिठाई, भांग की चटनी, भट का चुलकाणि, डुबुक, गहत कुलथ का गथ्वाणि, गहत की भरवा रोटी, गुलगुला, झंगोरे की खीर, स्वाला, तिल की चटनी, उड़द की पकोड़ी आदि प्रमुख हैं। सब्जियों में कंडाली की भी सब्जी बनाई गई। जंगलों से लाकर तैडु, गींठी भी खाई गई। कभी बसिंग तो कभी सेमल के फूल का साग भी बनाया जाता रहा है। सर्दी के मौसम में भले ही हमारी डाइट कम होए लेकिन शरीर के लिए जरूरी पौष्टिक तत्वों और कैलोरी की मात्रा कम नहीं होनी चाहिए।
तीनों समय के खाने में ऐसी चीजों को शामिल किया जाना चाहिए, जिनसे हमारे शरीर के लिए जरूरी कैलोरी के साथ प्रोटीन, कैल्शियम, विटामिन व खनिज लवण की कमी पूरी हो जाए। भोजन में एंटी ऑक्सीडेंट तत्वों से भरपूर वस्तुएं शामिल होनी चाहिएं। इनके सेवन से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है, जिससे हम मौसमी बीमारियों से बचे रहते हैं। इस मौसम में शरीर की प्राकृतिक नमी कम हो जाती है। सो इससे बचने के लिए खूब सारा पानी पीना जरूरी है। बारहनाजा का शाब्दिक अर्थ श्बारह अनाज है। लेकिन इसमें सिर्फ बारह अनाज ही नहीं, बल्कि तरह.तरह के रंग.रूप, स्वाद और पौष्टिकता से परिपूर्ण दलहन, तिलहन, शाक.भाजी, मसाले व रेशा मिलाकर 20-22 प्रकार के अनाज आते हैं। यह सिर्फ फसलें नहीं हैं, बल्कि पहाड़ की एक पूरी कृषि संस्कृति है।
स्वस्थ रहने के लिए मनुष्य को अलग.अलग पोषक तत्वों की जरूरत होती है, जो इस पद्धति में मौजूद हैं। उत्तराखंड में 13 प्रतिशत सिंचित और 87 प्रतिशत असिंचित भूमि है। सिंचित खेती में विविधता नहीं है, जबकि असिंचित खेती विविधता लिए हुए है। यह खेती जैविक होने के साथ ही पूरी तरह बारिश पर निर्भर है। इसके तहत पहाड़ में किसान ऐसा फसल चक्र अपनाते हैं, जिसमें संपूर्ण जीव.जगत के पालन का विचार समाया हुआ है। इसमें न केवल मनुष्य के भोजन की जरूरतें पूरी होती हैं, बल्कि मवेशियों के लिए भी चारे की कमी नहीं रहती। इसमें दलहन, तिलहन, अनाज, मसाले, रेशा, हरी सब्जियां, विभिन्न प्रकार के फल.फूल आदि सब.कुछ शामिल हैं। मनुष्य को पौष्टिक अनाज, मवेशियों को फसलों के डंठल या भूसे से चारा और जमीन को जैव खाद से पोषक तत्व प्राप्त हो जाते हैं। इससे मिट्टी बचाने का भी जतन होता है। बारहनाजा का एक और फायदा यह है कि अगर किसी कारण एक फसल न हो पाए तो दूसरी से उसकी पूर्ति हो जाती है।
जिस तरह प्रकृति विविधता लिए हुए है, उसी तरह की विविधता बारहनाजा फसलों में भी दिखाई देती है। कहीं गरम, कहीं ठंडा, कहीं कम गरम और ज्यादा ठंडा। रबी की फसलों में इतनी विविधता नहीं है, लेकिन खरीफ की फसलें विविधतापूर्ण हैं। बारहनाजा प्रणाली पर वैज्ञानिक दृष्टि डालें तो इसके कई वैज्ञानिक पहलू उजागर होते हैं। जैसे दलहनी फसलों में राजमा, लोबिया, भट, गहत, नौरंगी, उड़द और मूंग के प्रवर्धन के लिए मक्का बोई जाती है। जो बीन्स के लिए स्तंभ या आधार की जरूरत पूरा करती है। दलहनी फसलों में वातावरणीय नाइट्रोजन स्थिरीकरण का भी अद्भुत गुण होता है, जो मिट्टी की उर्वरकता बनाए रखने और नाइट्रोजन को फिर से भरने में मदद करती हैं। इसे अन्य सहजीवी फसलें भी उपयोग करती हैं। जबकि, फलियां प्रोटीन का समृद्ध स्रोत हैं। इनमें पोषण सुरक्षा के अलावा कैल्शियम, लोहा, फॉस्फोरस और विटामिन भरपूर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। सब्जियों में कद्दू, लौकी, ककड़ी आदि भूमि पर फैलकर सूरज की रोशनी को अवरुद्ध करने के साथ ही खरपतवारों को रोकने में मदद करते हैं। इनकी बेलों की पत्तियां मिट्टी में नमी बनाए रखने के लिए माइक्रोक्लाइमेट का निर्माण करती हैं। जबकि, बेल के कांटेदार रोम कीटों से सुरक्षा प्रदान करते हैं। मक्का, सेम और टेनड्रिल वाइन्स में जटिल कॉर्बोहाइड्रेट, आवश्यक फैटी एसिड और सभी आठ आवश्यक अमीनो अम्ल इस क्षेत्र के लोगों की आहार संबंधी जरूरतें पूरी करने में सहायक सिद्ध होते हैं। आलू के गुटके विशुद्ध रूप से कुमाऊंनी स्नैक्स हैं। इसके लिए उबले हुए आलू को इस तरह से पकाया जाता है कि आलू का हर टुकड़ा अलग दिखे। इसमें पानी का इस्तेमाल बिल्कुल नहीं होता। मसाले मिलाकर इसे लाल भुनी हुई मिर्च व धनिए के पत्तों के साथ परोसा जाता है। स्वाद में वृद्धि के लिए इसमें जख्या के तड़के की अहम भूमिका होती है। आलू के गुटके मंडुवे की रोटी और चाय के साथ भी खाए जा सकते हैं। भांग या तिल की चटनी बनाने के लिए इनके दानों को पहले गर्म तवे या कढ़ाई में भूना जाता है। फिर इन्हें सिल या मिक्सी में पीसा जाता है। इसमें जीरा पाउडर, धनिया, नमक और स्वादानुसार मिर्च डालकर अच्छे से सभी को सिल में पीस लिया जाता है। बाद में नींबू का रस डालकर इसे आलू के गुटके, अन्य स्नैक्स, रोटी आदि के साथ परोसा जाता है। इस चटनी का स्वाद अलौकिक होता है।
कुमाऊं का रायता देश के अन्य हिस्सों के रायते से काफी अलग होता है। इसे आमतौर पर दोपहर के भोजन के साथ परोसा जाता है। इसमें बड़ी मात्रा में ककड़ी खीरा, सरसों के दाने, हरी मिर्च, हल्दी पाउडर और धनिए का इस्तेमाल होता है। इस रायते की खास बात छनी हुई छाज प्लेन लस्सी होती है। मंडुवे में बहुत ज्यादा फाइबर होता है। इसलिए इसकी रोटी स्वादिष्ट होने के साथ स्वास्थ्यवर्धक भी होती है। मंडुवे की रोटी भूरे रंग की बनती है। क्योंकि इसका दाना गहरे लाल या भूरे रंग का होता है, जो कि सरसों के दाने से भी छोटा होता है।
मंडुवे की रोटी को घीए दूध या भांग व तिल की चटनी के साथ परोसा जाता है। कई बार पूरी तरह से मंडुवे की रोटी के अलावा इसे गेंहू की रोटी के अंदर भरकर भी बनाया जाता है। ऐसी रोटी को लोहोटु डोठ रोटी कहा जाता है। जबकि, गेहूं के आटे व मंडुवे को मिलाकर जो रोटी बनती है, उसे ढबडि़ रोटी कहते हैं। कंडाली के साग में बहुत ज्यादा पौष्टिकता होती है। कंडाली को आमतौर पर बिच्छू घास भी कहते हैं। इसके हरे पत्तों का साग बनाया जाता है। मुलायम कांटेदार होने के कारण कंडाली के पत्तों या डंडी को सीधे नहीं छुआ जा सकता। यह अगर शरीर के किसी हिस्से में लग जाए तो वहां सूजन आ जाती है और बहुत ज्यादा जलन होती है। लेकिन, इसके साग का कोई जवाब नहीं। गांव.देहात के अनुभवी लोग इसे बड़ी सावधानी से हाथ में कपड़ा लपेटकर काटते हैं। काली दाल और चावल के साथ इसकी खिचड़ी भी बेहद स्वादिष्ट होती है। यह एक हरी करी है।
सरसों, पालक आदि के पत्तों को पीसकर बनाया जाने वाला काप कुमाऊंनी खाने का अहम हिस्सा है, जिसे गढ़वाल में काफली कहते हैं। इसे रोटी और चावल के साथ लंच और डिनर में परोसा जाता है। यह एक शानदार और पोषक आहार है। काप बनाने के लिए हरे साग को काटकर उबाल लिया जाता है। फिर इन पत्तों को पीसकर पकाया जाता है। डुबक भी कुमाऊं अंचल में अक्सर खाई जाने वाली डिश है। असल में यह दाल ही है, लेकिन इसमें दाल को दड़दड़ा मोटा पीसकर बनाया जाता है। बावजूद यह मास उड़द के चैस चैंसू से अलग है। डुबक पहाड़ी दाल भट, गहत आदि को पीसकर बनाया जाता है। लंच के समय चावल के साथ डुबुक का सेवन किया जाता है। गहत की दाल के पराठे उत्तराखंड का एक प्रसिद्ध पकवान हैं। यह पराठे गहत की दाल को गेहूं या मंडुवे के आटे के मिश्रण में भरकर बनाए जाते हैं। देसी घी, भांग व लहसुन की चटनी या घर के बने अचार के साथ खाने का इसका स्वाद ही निराला है। यह एक खास प्रकार का पहाड़ी व्यंजन है। इसके लिए विभिन्न प्रकार की दाल विशेषकर गहत रातभर पानी में भिगोई जाती है। फिर इस दाल को अच्छे से पीस कर फाणु बनाया जाता है। गर्म.गर्म चावल के साथ परोसे जाने पर यह व्यंजन अत्यंत स्वादिष्ट होता है। सर्दियों में फाणू.भात उत्तराखंड में बहुत ज्यादा खाया जाता है।बाड़ी उत्तराखंड के सबसे पुराने व्यंजनों में से एक है। इसे मंडुवे के आटे से बनाया जाता है। बाड़ी में पोषक तत्व भरपूर मात्रा में होते हैं। मंडुवे के आटे को पानी में घी के साथ अच्छे से पकाकर इसे बनाया जाता है। इसे फाणू अथवा तिल की चटनी के साथ भी खाया जाता है। घर के घी और फाणू में इसका स्वाद और निखर जाता है। चैंसू एक प्रोटीन युक्त लाजवाब व्यंजन है, जो कि काली दाल उड़द को पीसकर बनता है। यह हर पहाड़ी के लिए एक लोकप्रिय भोजन विकल्प है। चैंसू बनाने के लिए दाल को सिल या मिक्सी में पीसा जाता है। दाल का अच्छा पेस्टतैयार कर उसे धीमी आंच पर पकाया जाता है और फिर भात के साथ खाया जाता है। बेहतर स्वाद के लिए इसे लोहे के बर्तन कढ़ाई में पकाया जाता है।
थिंच्वाणी बनाने के लिए पहाड़ी मूला या पहाड़ी आलू को क्रश थींचा कर पकाया जाता है। सर्दियों में इसे रोटी या चावल के साथ बड़े चाव से खाया जाता है। जख्या या फरण का तड़का इसका स्वाद और बढ़ा देता है।यह पहाड़ का पारंपरिक मीठा पकवान है। आमतौर पर पहाड़ी शादियों में इसे बनाया जाता है। इसमें गुड़, चावल और सरसों के तेल का इस्तेमाल होता है। पहले चावल को कम से कम तीन.चार घंटे तक भिगोया जाता है और फिर उसे बारीक कूटकर गुड़ की चासनी के साथ पेस्ट बनाया जाता है। इस मिश्रण को छोटे.छोटे गोलों के रूप में तैयार कर तेल में तला जाता है। कहीं.कहीं अरसे तलने के बाद दोबारा गुड़ की चासनी में डाला जाता है। इसे पाक लगाना कहते हैं। इस बीच हैरानी की बात तो ये भी है कि आधुनिकता की इस दौड़ में हम लगातार इन अनमोल संपदाओं को भूलते जा रहे हैं। ढांचागत अवस्थापना के साथ बेरोजगारी उन्मूलन की नीति बनती है तो यह पलायन रोकने में कारगर होगीण् कुल मिलकर पर्वतीय राज्य की जिस अवधारणा के साथ उत्तराखण्ड राज्य की लड़ाई लड़ी गयी थी वह धरातल से कोसों दूर ही हैण् पलायन ने हिमालयी राज्य की अवधारणा को ध्वस्त कर दिया हैण् 18 साल पहले राज्य बना लेकिन परंपरागत पर्वतीय जनजीवन की खुशहाली के लिए कुछ भी ठोस दिशा नीति तय नहीं की गईण् चूंकि उत्तराखंड उत्तर प्रदेश के पर्वतीय हिस्सों को अलग करके एक पर्वतीय राज्य बनाया गया लेकिन व्यावहारिक तौर पर पर्वतीय प्रदेश की जीवन पद्धति के हिसाब से विकास का आधारभूत ढांचा बनाने के बारे में सिर्फ जुबानी जमा खर्च होता रहाण्असल में अतीत से ही इस संवेदनशील पर्वतीय अंचल की समस्याएं बाकी उत्तर प्रदेश से एकदम जुदा थीं। लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि राज्य बनने के बाद यहां बदला कुछ भी ज्यादा नहींण् देहरादून में राजधानी उत्तर प्रदेश की राजधानी के एक्सटेंशन कांउटर की तरह काम कर रही हैण् निर्वाचन आयोग विधानसभा क्षेत्रों की परीसीमन प्रक्रिया को आबादी के घनत्व के हिसाब से ही पूरा करेगा तो पर्वतीय हिस्सों पर्वतीय की विधानसभा क्षेत्रों में लोकतंत्र का बुनियादी ढांचा सबसे गम्भीर समस्या है।

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