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समान काम के लिए समान वेतन: सुप्रीम कोर्ट

12/11/24
in उत्तराखंड, देहरादून
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https://uttarakhandsamachar.com/wp-content/uploads/2025/11/Video-60-sec-UKRajat-jayanti.mp4

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
देश में समान काम के लिए समान वेतन के सिद्धांत पर अमल होना आवश्यक हैं। सभी अस्थायी कर्मचारियों को स्थायी कर्मचारियों के बराबर वेतन दिया ही जाना चाहिए। उत्तराखंड में धामी सरकार ने पहली बार संविदा कर्मियों के नियमितीकरण को लेकर चर्चा नहीं की है. इससे पहले 2011 में तत्कालीन भाजपा सरकार ने संविदा कर्मियों के नियमितीकरण को लेकर पॉलिसी तैयार करते हुए 10 साल सेवा देने वाले संविदा कर्मियों को नियमित करने का फैसला किया था. इसके बाद 2013 में इस पॉलिसी की जगह एक नई पॉलिसी लाई गई और कांग्रेस सरकार ने 5 साल की सेवा देने वाले संविदा कर्मियों को नियमित करने का प्रावधान रखा.हाईकोर्ट की शरण में गए थे कर्मचारी  साल 2016 में भी एक नई पॉलिसी आई जिसमें 5 साल के इसी नियम को आगे बढ़ाया गया. हालांकि इसके खिलाफ कुछ कर्मचारी कोर्ट पहुंच गए और हाईकोर्ट ने 2016 की पॉलिसी को रद्द करने का निर्णय सुनाया. हाईकोर्ट के इस आदेश के दौरान नई पॉलिसी पर जो बात कही गई, उसी के तहत अब धामी सरकार संविदा कर्मियों के नियमितीकरण का रास्ता तैयार कर रही है.कर्मियों को नियमितीकरण का रास्ता तलाश रही सरकार ऐसे में उपनल कर्मचारियों के भी कुछ सवाल हैं. जिसको सरकार को स्पष्ट करना होगा. ऐसा इसलिए की एक तरफ संविदा कर्मचारियों को नियमितीकरण करने का रास्ता सरकार तलाश रही है तो दूसरी तरफ हाई कोर्ट ने उपनल कर्मचारियों को समान काम के बदले समान वेतन या नियमितीकरण करने का आदेश दिया था. जिसको सरकार कोर्ट में चुनौती देकर उपनल कर्मियों के नियमितीकरण के खिलाफ खड़ी हो गई है.नियम के तहत फैसले या नियमितीकरण में भी मनमर्जी सवाल उठ रहा है कि जिन संविदा कर्मियों को विभागों या सचिवालय स्तर पर नियुक्ति दी गई है. वो कौन लोग है और इसमें कौन सी प्रक्रिया अपनाई गई है? हैरत की बात ये है कि कुछ जगह पर तो कर्मचारियों को नियमित भी किया गया है. दरअसल, विनियमितीकरण नियमावली का हवाला देकर सरकारी विभागों, निगमों, परिषदों एवं स्वायत्तशासी संस्थाओं में काम करने वाले कर्मचारियों का नियमित करने का आदेश हुआ. जबकि कई विभाग ऐसे थे, जहां कर्मचारियों का नियमितीकरण नहीं किया गया.यानी प्रदेश में नियमितीकरण को लेकर भी कोई एकरूपता नहीं रही.कहीं 5 साल या 8 साल वाले भी नियमित हो गए तो कहीं 15 साल से कम कर रहे कर्मचारियों का नियमितीकरण नहीं हो पाया. बड़ी बात ये है कि कुछ जगह तो आउटसोर्स कर्मचारियों ने विभाग से इस्तीफा देकर इसके बाद फौरन उसी विभाग में संविदा पर तैनाती ले ली. यह सब किस नियम के तहत हुआ और आरक्षण से लेकर समान अवसर देने की अवधारणा इसमें कैसे अपनी गई? ये सब कुछ सवालों के घेरे में है. समान काम के लिए समान वेतन और नियमितीकरण की मांग को लेकर उपनल कर्मचारी सचिवालय कूच कर रहे हैं. इस हड़ताल से जुड़े लगभग 22,000 कर्मचारी अपनी मांगों के समर्थन में सड़कों पर उतरने की तैयारी में हैं. आंदोलन को राज्य निगम कर्मचारी महासंघ, हाईड्रो इलेक्ट्रिक इंपलाइज यूनियन, और विधायक ममता राकेश जैसे कई संगठनों का समर्थन मिल रहा है.उपनल कर्मचारी वर्षों से अपने अधिकारों की मांग कर रहे हैं. उत्तराखंड हाईकोर्ट ने 2018 में आदेश दिया था कि उपनल कर्मचारियों को समान काम के लिए समान वेतन दिया जाए और उनके नियमितीकरण की नीति बनाई जाए. यह आदेश कर्मचारियों की आर्थिक सुरक्षा और स्थायित्व के लिए एक महत्वपूर्ण कदम माना गया था. राज्य गठन के बाद वर्ष 2004 में राज्य सरकार ने उत्तराखंड पूर्व सैनिक कल्याण निगम (उपनल) का गठन किया। इसके बाद हजारों उपनल कर्मचारियों को नियुक्त किया गया, जिनकी संख्या आज 21 हजार है। कई वर्षों की सेवा देने के बाद भी उपनल कर्मचारियों का कोई भविष्य नहीं है और न ही उनको इस महंगाई के दौर में अपना जीवन यापन करने लायक वेतन भी नहीं दिया जाता है। वर्षों से प्रदेशभर में कार्यरत 21 हजार पदों को सीधी भर्ती से भरा जा रहा है। 15 से 20 वर्षों से कार्य कर रहे उपनल कर्मचारियों को नौकरी से निकाला जा रहा है। कहा कि यदि सरकार के स्तर पर जल्द निर्णय नहीं लिया गया तो संगठन की ओर से अवमानना याचिका दायर की जाएगी।अधिवक्ता एमसी पंत ने बताया कि 2018 में हाईकोर्ट ने सरकार को निर्देश दिए कि उपनल के माध्यम से स्कीम बनाकर कर्मियों को नियमित किया जाए। तब तक कर्मियों को वेतन व अन्य भत्तों का भुगतान करें। लेकिन सरकार के स्तर पर इस निर्णय पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। अभी कुछ समय पूर्व ही सुप्रीम कोर्ट ने लंबी अवधि से सेवा दे रहे कर्मियों को स्थाई नियुक्ति देने का आदेश दिया है। लेकिन सरकार व शासन की ओर से इस पर भी कोई सकारात्मक निर्णय नहीं लिया गया। हालांकि, राज्य सरकार ने इस आदेश पर अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया और इसके बजाय सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) दायर कर दी, जो बाद में खारिज हो गई. इससे कर्मचारियों में सरकार के प्रति गहरी असंतुष्टि उत्पन्न हुई है.लेखक के निजी विचार व्यक्त किए हैं।लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।

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