डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखण्ड में बहुतायात मात्रा में उगने वाले इस उत्पाद को समान्यतः अमेज या सी-बकथॉर्न नाम से जाना जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम हिप्पोफी जो कि एक एलाएग्नेसी कुल का पादप है। इसके अन्तर्गत विश्व में पायी जाने वाली कुल 7 प्रजातियों में से पांच मुख्य प्रजातियां । अमेज का मूल यूरोप तथा एशिया से माना जाता है, वर्तमान में इसकी अच्छी मांग और उपयोगिता को देखते हुए अमेरिकी देशों में भी उगाया जाने लगा है। भारत के उच्च हिमालयी राज्यों उत्तराखण्ड, हिमाचल तथा जम्मू कश्मीर आदि में यह 2000 से 3600 मीटर (समुद्र तल से) तक की ऊॅचाई वाले क्षेत्रों में पाया जाता है। उत्तराखण्ड राज्य के उत्तरकाशी, चमोली तथा पिथोरागढ जनपद में इसका बहुतायत उत्पाद होता है। इसे उत्तरकाशी में अमील, चमोली में अमेश तथा पिथोरागढ में चुक के नाम से जाना जाता है।अमेश को हिपोपी भी कहा जाता है और इसमें लगने वाले फल को ही मुख्य रूप से उपयोग में लाया जाता है जिससे जूस, जेम, जेली तथा क्रीम आदि निर्मित कर उपयोग में लाया जाता है। विभिन्न वैज्ञानिक विश्लेषणों तथा इस पर हुए शोध के अनुसार यह एक विशेष पौष्टिक तथा औषधीय फल है। जिसमें कुछ विशेष औषधीय रसायन होने के कारण विभिन्न औषधीय गुण है। इसके एसेंसियल ऑयल में लगभग 190 प्रकार के बायोएक्टिव अवयव पाये जाते है। जिसकी वजह से इसके ऑयल की अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में खास मांग रहती है। प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट तथा अन्य अमीनों एसिड की अच्छी मात्रा होने के साथ यह कैल्शियम, फास्फोरस तथा आयरन का अच्छा प्राकृतिक स्रोत है। इसमें विटामिन सी की मात्रा 695 मिग्रा/100ग्रा जो कि नीबू तथा संतरे से भी अधिक है, विटामिन ई -10 मिग्रा/100ग्रा तक तथा केरोटिन 15मिग्रा/100ग्रा तक पाये जाते है। इसके अलावा यह विटामिन के का एक अच्छा प्राकृतिक स्रोत है जो कि इसमें 230 मिग्रा/100ग्रा तक पाया जाता है। इसके फल का एक अलग ही स्वाद शायद हीकिसी अन्य फल से मेल रखता हो जो कि इसमें मौजूद वोलेटायल अवयव जैसे कि इथाइल डोडेसिलोएट, इथाइल औक्टानोएट, डीलानौल, इथाइल डीकानोएट तथा इथाइल डोडेकानोएट आदि के कारण होता है। इसके अलावा यह एक अच्छा प्राकृतिक एंटीऑक्सीडेंट का भी स्रोत है जो कि इसमें उपस्थित एस्कोर्बिक एसिड, टोकोफेरोल, कैरोटेनोइडस, फ्लेवोनोइडस आदि के कारण है। अच्छे पोषक तथा औषधीय रसायनों के कारण इसका उपयोग पाचन, अल्सर, हृदय, कैंसर तथा त्वचा रोगों में परम्परागत ही किया जाता है।वर्तमान में अमेज से निर्मित विभिन्न व्यवसायिक उत्पाद जैसे एनर्जी ड्रिंक्स, स्किन क्रीम, न्यूट्रिशनल सप्लिमेंटस, टॉनिक, कॉस्मेटिक क्रीम तथा सेम्पू आदि बाजार में उपलब्ध है। यह त्वचा कोशिका तथा म्यूकस मेम्ब्रेन रिजेनेरेशन आदि में प्रभावी होने के कारण कॉस्मेटिक में खूब प्रयोग किया जाता है। रोमेनियो द्वारा इससे निर्मित क्रीम तथा शैम्पू विकसित कर अन्तर्राष्ट्रीय पेटेंट किया गया है। इसके अलावा अमेज को अच्छा नाइट्रोजन फिक्सेशन करने वाला पौधा भी माना जाता है जो कि लगभग 180मिग्रा/हैक्टअर प्रतिवर्ष नाइट्रोजन फिक्शेसन करने की क्षमता रखता है जो कि मिट्टी की उर्वरकता में प्रभावी होता है।विश्वभर में अमेज से निर्मित विभिन्न उत्पादों की बढती मांग को देखते हुए इसका अच्छी मात्रा में उत्पादन किया जाता है। पूरे विश्व के सम्पूर्ण उत्पादन का लगभग 90 प्रतिशत उत्पादन चीन, रूस, कनाडा, मंगोलिया तथा उतरी यूरोप में होता है। प्राकृतिक रूप में लगभग 750 से 1500 किग्रा बेरी प्रति हैक्टेयर उत्पादन जंगलों से प्राप्त होता है। चीन में इसके लगभग 200 से अधिक प्रोसेसिंग प्लांट हैं। विस्तृत वैज्ञानिक तथा शोध अध्ययन के अनुसार अमेज की पौष्टिक तथा औषधीय महत्ता को देखते हुए पर्वतीय राज्य उत्तराखण्ड की आर्थिकी का बेहतर विकल्प बनाया जा सकता है।भगवान बदरीनाथ की भूमि का फल ‘बदरी बेर’ अब कैंसर को भी मात देगा। हिमालयी राज्य में अब तक के सफल शोध ने इस लाइलाज बीमारी के खात्मे को न केवल रामबाण ढूंढ निकाला है, बल्कि औषधीय गुणों से भरपूर आस्था के इस फल ने चिकित्सा विज्ञान में अनुसंधान की नई राह भी खोल दी है। बदरीनाथ धाम में बहुतायत में यह फल पाया जाता है, इसीलिए इसे बदरी बेर कहा गया। भगवान बदरीनाथ के सेवक एवं कुलदेव घंटाकर्ण के भोजन थाल में सजने वाली जड़ी-बूटियों में बदरी बेर भी शामिल है। इसलिए यह फल आस्था से भी जुड़ा है। वाइब्रेंट विलेज योजना के तहत उत्तरकाशी जिले में सीमांत गांवों के समग्र विकास एवं आजीविका संवर्द्धन के लिए आमील (सीबकथोर्न) के उत्पाद बनाए जाने लगे हैं। साथ ही उत्पादन, प्रोसेसिंग, विपणन और ब्रांडिंग की कवायद भी चल रही है। सीबकथोर्न से सीमांत क्षेत्र के ग्रामीणों की आर्थिकी बदल सकती है। उत्तरकाशी के जसपुरा और झाला गांव में पहली बार तैयार किए गए सीबकथोर्न के चार उत्पादों को मुख्यमंत्री ने इसी वर्ष आठ जनवरी को आयोजित दीदी-भुली महोत्सव में लांच किया था। एंटीऑक्सीडेंट और विटामिनों से भरपूर यह पौधा कैंसर, मधुमेह व यकृत की बीमारियों में रामबाण औषधि है। इसकी पत्तियों से ग्रीन-टी, जबकि तने और बीज से विभिन्न प्रकार की दवाइयां व अन्य उत्पाद तैयार किए जाते हैं।पर्यावरणीय दृष्टि से भी यह पौधा बेहद महत्वपूर्ण है। इसकी जड़ों में जीनस फ्रैंकिया जीवाणु के सहजीवी पाए जाते हैं। इसलिए जहां भी ये पौधे होते हैं, वहां नाइट्रोजन अच्छी मात्रा में होती है, जो मिट्टी की उर्वरता बढ़ाती है। सी बकथॉर्न’ से जैम, जूस, हर्बल चाय, दवाईयों, विटामिन ‘सी’ सप्लीमेंट, एनर्जी ड्रिंक, क्रीम, तेल और साबुन जैसे दर्ज़नों उत्पाद बनते हैं। इसकी देश-विदेश में ख़ूब माँग है। इसीलिए माना जा रहा है कि ‘सी बकथॉर्न’ की जैविक खेती, प्रसंस्करण और विपणन के क्षेत्र में स्थानीय किसानों, स्वयं सहायता समूहों और उद्यमियों को लाभकारी रोज़गार का बेहतरीन मौक़ा मुहैया करवाया जा सकता है। व्यावसायिक खेती के लिहाज़ से वैज्ञानिकों पर पूरा ज़ोर ‘सी बकथॉर्न’ बेरी की कटाई के लिए ऐसी मशीन विकसित करने पर है जिससे इसका उत्पादन बढ़ाया जा सके। क्योंकि ‘सी बकथॉर्न’ के फलों के लिए काम में लाये जा रहे मौजूदा उपकरणों से सिर्फ़ 10 प्रतिशत बेरी ही निकल पा रही है। बद्री बेरी को अब डीआरडीओ उत्पादित करने का काम भी कर रहा है, जिसमें महिलाएं इन्हें इकट्ठा करने का काम करती हैं, जिससे उन्हें भी रोजगार मिल रहा है. हमारा देश कई वनस्पतियों से भरा हुआ है जिसमें कुछ अनमोल हैं। ऐसा ही एक फल है जो किस्मत बदल सकता है और मालामाल भी कर सकते है। अपने खास भूगोल और आबो हवा के कारण उत्तराखंड में कई दुर्लभ वनस्पतियां मौजूद हैं, जिनका किसी न किसी रूप में औषधीय महत्व भी है। *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*












