डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड
विश्व में 10 अक्टूबर को मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों पर जागरूकता पैदा करने के लिए विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस मनाया जाता है। विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस 2019 का विषय, थीम विश्व के बदलते परिदृश्य में वयस्क और मानसिक स्वास्थ्य, रखी गयी है। विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस पहली बार वर्ष 1992 में मनाया गया था। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन, विश्व स्वास्थ्य संगठन और वर्ल्ड फेडरेशन ऑफ मेन्टल हेल्थ, विश्व मानसिक स्वास्थ्य महासंघ द्वारा मानसिक बीमारियों के प्रति जागरूकता फैलाने और अपने मन का आत्मनिरीक्षण करके अपने व्यक्तित्व विकारों व मानसिक विकृतियों को सक्रिय रूप से पहचानने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 10 अक्टूबर को विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस पूरी दुनिया में मनाया जाता है। इस दिन पूरे विश्व के सरकारी और सामाजिक संगठनों द्वारा तनावमुक्ति विषय पर कार्यक्रम आयाजित किए जाते हैं। विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस मुख्य का उद्देश्य मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित बीमारियों के बारे में लोगों को जागरूक करना है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, विश्व भर के लगभग 350 मिलियन से अधिक लोग मानसिक अवसाद से ग्रसित हैं। पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं इससे ज्यादा प्रभावित हैं।
सोचने वाली बात यह कि ऐसा कोई स्कूल अभी तक तो देश में स्थापित नहीं हुआ जहां बारहवीं तक के बच्चों का मोबाइल लेकर जाना स्वीकार्य हो। बात साफ थी कि ये बच्चे चोरी.छिपे मोबाइल लेकर स्कूल जाते होंगे। ऊपर से इतनी छोटी उम्र के बच्चों के पास स्मार्ट फोन का होना कहीं न कहीं माता.पिता की लापरवाही की वजह जान पड़ता थाण् दसवीं से बारहवीं तक के कई बच्चों को आपने चोरी से मोबाइल स्कूल ले जाते देखा होगा लेकिन यह आदत अब सातवीं-आठवीं के बच्चों तक पहुँच चुकी है यह हकीकत वास्तव में मेरे लिए बैचेन करने वाली थी। हो सकता है पाँचवी-छठी के बच्चे भी अपने सीनियरों की देखादेखी स्कूल में मोबाइल ले जाने लगे हों। तकनीक का ईजाद तो मनुष्य की सहायता, बोझ कम करने व समय बचाने के लिए किया गया लेकिन वर्तमान में मनुष्य उसका गुलाम होता चला गया। मोबाइल आज घर-घर की बात हो गया है। घर.घर से भी ज्यादा वह व्यक्ति विशेष की बात हो गया है। बच्चे अब कम्प्यूटर या लैपटॉप की मांग करने से पहले मोबाइल की मांग करने लगे हैं।
मोबाइल आज हर समस्या का हल जान पड़ता है। बोर हो रहे हो.मोबाइल उठा लो, घर में अनबन हुई हो.दरवाजा बंद करो और मोबाइल में लग जाओ, बस या मैट्रो में सफर कर रहे हो .जेब से मोबाइल निकाल लो। बाकी सब तो छोड़ो हालत आज यहां तक आन पड़ी है कि टॉयलेट जा रहे हो .मोबाइल साथ ले चलो। यत्र तत्र सर्वत्र सिर्फ मोबाइल ही नजर आता है। अभी कुछ दिन बीते दिल्ली मैट्रो में सफर कर रहा था तो देखा सामने वाली सीट पर बैठे सात लोगों के हाथ में आठ मोबाइल थे जिनका बाकायदा भरपूर इस्तेमाल किया जा रहा था। एक आदमी तो मोबाइल में ऐसा खोया हुआ था कि उसे दो स्टेशन आगे पहुँचने के बाद ध्यान आया कि वह अपने गंतव्य से दो स्टेशन आगे आ चुका है। सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक हर 10.15 मिनट में मोबाइल चैक करना लोगों की एक दैनिक क्रिया सी हो गई है।
व्हाट्सएप में लोगों के स्टेटस चेक करने से शुरू हुआ अभियान फेसबुक, ट्विटर से होता हुआ इन्स्टाग्राम में जाकर खत्म होता है। इसके बाद भी अगर मन नहीं भरता तो यूट्यूब ज़िंदाबाद है ही। अधिकांश लोगों ने तो पावर बैंक ही इसलिए लिया हुआ है ताकि स्विच बोर्ड तक जाने की जहमत न उठानी पड़े और बिस्तर पर लेटे.लेटे मोबाइल चार्जिंग और सोशल मीडिया का आनंद ले सकें। मोबाइल के बिना आज बच्चे तो छोड़ो वयस्क तक चंद घंटे नहीं रह सकतेण् मोबाइल के खुद से दूर हो जाने या कुछ समय के लिए न मिलने से इंसान के मन में एक डर पैदा होने लगता है और इसी डर को कहा जाता है।
नोमोफोबिया छवउवचीवइपंद्धण् यह एक तरह की बिमारी ही है जो धीरे.धीरे महामारी का रूप ले रही है और हर कोई जाने अनजाने इस महामारी की गिरफ्त में आने लगा है। इसे एक तरह का स्लो पॉयजन भी कहा जा सकता है। छोटे बच्चों में मोबाइल की लत का पूरा श्रेय परिवार और परिवार में भी माँ.बाप को जाता है। बच्चा रो रहा हो .मोबाइल पकड़ा दो, किचन में काम करना हो मोबाइल में कार्टून चला दो, बच्चा दूसरे की गोद में न जा रहा होमोबाइल का लालच दे दो, बच्चा खेलने को कहे मोबाइल में गेम लगा दो, बच्चा घुमाने की जिद्द करे.मोबाइल में गाने चला दो। बच्चे से जुड़े हर मसले का समाधान मोबाइल में ही खोजा जाने लगा है। बचपन से ही मोबाइल के साथ बड़े होने वाले बच्चे उसके इतने आदी होने लगे हैं कि खेलकूद व किताबों से ज्यादा उनका ध्यान मोबाइल पर रहने लगा है। यही सबसे बड़ा कारण है कि सातवी.आठवीं विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चे भी आज स्कूल में चोरी छुपे मोबाइल ले जाने लगे हैं। आईटी युग में जी रहे माता.पिता को यह बात समझनी चाहिये कि बच्चों की बदलती परवरिश के इस माहौल में उन्हें किस तरह तकनीक का आदी व गुलाम होने से बचाया जाए और तकनीक का बेहतर इस्तेमाल सिखाया जाए वरना नोमोफोबिया का स्लो पॉयजन नन्हें बच्चों को भी देर.सबेर अपनी गिरफ्त में ले ही लेगा।
आज भारत जहां दुनिया को हर क्षेत्र में एक दिशा दिखाने का काम कर रहा है तो भारत में युवा पीढ़ी में स्मार्टफोन के बढ़ते क्रेज की वजह से फोन बनाने वाली कंपनियों की चांदी हो गई है। शहरी इलाकों में पांच करोड़ दस लाख लोगों के पास स्मार्टफोन हैं। एक साल के भीतर इसमें 89 फीसदी की वृद्धि हुई है। स्मार्टफोन युवक.युवतियों को तेजी से अपने नशे की गिरफ्त में ले रहा है। इसके दूरगामी असर होंगे। महानगरों, नगरों में तो युवाओं को कानों में ईयरफोन लगाकर बात करते या गेम खेलते देखना आम है। बस या ट्रेनों में चढ़ने.उतरने के दौरान भी वह अपने फोन में व्यस्त रहते हैं। यही वजह है कि मोबाइल पर बात करने के दौरान ट्रेन से कट कर होने वाली मौतों या सड़क हादसों की तादाद भी तेजी से बढ़ रही है दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने राष्ट्रीय राजधानी से चोरी हुए 1 करोड़ रुपए के मोबाइल फोन को बरामद किया है। इनमें से ज्यादातर एपल के आईफोन हैं। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि स्नैचर चोरी किए हुए मोबाइल को हर महीने नेपाल भेज दिया करते थे। कर होने वाली मौतों या सड़क हादसों की तादाद भी तेजी से बढ़ रही है तो वही हमारी यह ज़िम्मेदारी और भी ज़्यादा बढ़ जाती है कि मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित जागरूकता दुनियाभर में फैलाई जाएँ। इसलिए इस बार के विश्व मानसिक स्वास्थ्य सप्ताह में हम सभी की यह ज़िम्मेदारी होनी चाहिए कि अपने आसपास के लोगों से ज़्यादा से ज़्यादा बात करें और ये जानने की कोशिश करें कि ऐसी कोन सी चीज़ें हैं जो लोगों को परेशान करती है अभिभावकों को सचेत कहने के अलावा इस समस्या से निपटने का दूसरा कोई विकल्प नहीं है। ऐसा मस्तिष्क बनाओ, जैसा था बापू का, जैसा था गाँधी का महात्मा गाँधी के 150वीं जयंती अहिंसा के विचार एवं आदर्श को अपनाकर आज सारे विश्व में एकता एवं शांति की स्थापना की जा सकती है।
हमारे विद्यालय के बच्चे प्रतिवर्ष गांधी जयन्ती के अवसर पर सारी दुनियाँ के लोगों से महात्मा गाँधी के सत्य, अहिंसा, सादगी आदि महत्वपूर्ण विचारों को अपनाने तथा उनके बताये हुए रास्ते पर चलने का आह्वान करते हैं। ऐसा मस्तिष्क बनाओ, जैसा था बापू का, जैसा था गाँधी का गीत के माध्यम से बच्चों को संकल्प कराया जाता है कि वह अपने मस्तिष्क को महात्मा गांधी के तरह सामाजिक, मानवीय एवं आध्यात्मिक बनायेंगे। किताबें पढ़ना हैं तो पहले फोन का नशा दूर करना होगा। समाज में बड़े पैमाने पर जागरूकता लाने की ज़रूरत है, वो भी हर स्तर पर स्कूलों.कॉलेजों में या जागरूकता ध्संगोष्ठी के माध्यमों से यह काम हो सकता है। सोशल मीडिया के उपयोग लिए ही नहीं है केवल यह सूचना का एक भंडार गृह है, सब का उद्देश्य नागरिकों में देशभक्ति की भावना जगाना और उन्हें सरकार की योजनाओं के बारे जानकारी देना हैं जिस से वह अनुसाशित जानकार नागरिक बन सकें इसलिए इसका उपयोग सहज बुद्धिमानी से करें।