डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
तेजपात का बानस्पतिक नाम सीनामोमम तमाला (Cinnamomum tamala) बानस्पतिक परिवार लारेसी (Lauriaceae) हिन्दी स्थानीय नाम तेजपत्ता व्यापारिक नाम इंडियन बे लीफ यह पौधा भारत के हिमालयी राज्यों, विशेषकर उत्तराखण्ड के जंगलों में बहुतायत मात्रा में स्वतः ही उग जाता है तथा उत्तराखण्ड के जंगलों से एकत्रित कर बाजारों में उपलब्ध कराया जाता है। भौगोलिक बितरण यह प्रायः पूरे संसार के ऊष्ण कटिबन्धीय जंगलों में प्राकृतिक रूप में पाया जाता है। जैसे ऑस्ट्रेलिया, पाकिस्तान, भारत, नेपाल, भूटान, म्यामार आदि। भारत में यह जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, असम, मिजोरम एवं मेघालय के निचले हिमालयी भू भाग में पाया जाता है। उत्तराखंड के जंगलों में तेजपात के साथ मेलू, मालू, टिमरु, बांज, काफल, लम्बपतिया, फनियाट, हिन्सलु, खड़ीग, आंवला आदि इसकी प्रमुख सहप्रजातियां हैं।
विश्व विख्यात दालचीनी का आयुर्वेद एवं अन्य भारतीय ग्रन्थों में विस्तृत वर्णन मिलता है। लगभग 2000 ई0पूर्व के इतिहास में इसको मसालों तथा औषधीय के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है। दालचीनी की पत्तियों को हिन्दी तथा नेपाली में तेजपत्ता, आसामी में तेजपात, मराठी में तामलपत्रा तथा सामान्यतः इसे इण्डियन बे लीफ के नाम से भी जाना जाता है। अपनी एक अलग सुंगध की वजह से इसकी पत्तियों तथा छाल का भारतीय मसालों में प्रयोग किया जाता है जो कि विश्व विख्यात है। सिनामल्डिहाइड तथा यूजिनौल रासायनिक अवयव के कारण इसकी एक अलग सुगंध होती है। आयुर्वेद में दालचीनी के पौधे का उपयोग पैरालाइटिक, बवासीर, उल्टी, एनोरेक्सिया तथा साइनोसाईटिस आदि में बताया गया है। इसकी पत्तियों को स्केबीज, कफ, हीमोप्टाईटिस, गठिया, एनीमिया, त्वचा रोड तथा हृदय विकार में प्रयोग किया जा सकता है। अनेकों फार्माकोलॉजिकल अध्ययन में दालचीनी के एक्सट्रेक्ट को हाइपोग्लाइसीमिक में प्रभावी बताया गया है। उत्तराखण्ड को हर्बल राज्य की संज्ञा भी दी जाती है क्योंकि राज्य में उपलब्ध पौधें विभिन्न उपयोगों में लाये जाते हैं। इनमें से एक तेजपत्ता या दालचीनी का पौधा भी है जो प्रायः मसालों की श्रेणी में रखा जाता है तथा भारतीय रसाई में तो इसे एक अलग ही स्थान प्राप्त है।
अपने उष्ण प्रकृति के देखते हुये दालचीनी की छाल तथा पत्ते को गर्म मसालों के रूप में प्रयोग किया जाता है जिसका उत्तराखण्ड राज्य को जियोग्राफिकल इंडिकेटर ;ळप्द्ध भी प्राप्त है। तेजपत्ता का जड़ी बूटी शोध एवं विकास संस्थान, मंडल, गोपेश्वर द्वारा ळप्ळ एक्ट 1999 के अन्तर्गत रजिस्टर किया गया जो कि उत्तराखण्ड में तेज पत्ता की गुणवत्ता, पर्याप्त उत्पादन तथा अन्य महत्वपूर्ण विशेषताओं का सूचक है। विश्व भर में दालचीनी की कुल 350 प्रजातियों में से लगभग 20 प्रजातियां भारत में पायी जाती हैं। दालचीनी का वैज्ञानिक नाम सिनामोमम तमाला (Cinnamomum tamala) जो कि लाउरेसी (Lauriaceae) जाति का पौधा है। एशिया मूल का यह पौधा उत्तर, मध्य एवं दक्षिणी अमेरिका, एशिया, ओसीमिया, आस्ट्रेलिया आदि स्थानों पर भी पाया जाता है। समुद्र तल से 900-2000 मीटर तक की ऊँचाई में पाये जाने वाला विभिन्न शोध पत्रों में प्रकाशित दालचीनी के पौधे की छाल तथा पत्तियों पर हुये अलग.अलग शोध में इसे विभिन्न औषधीय प्रयोग में लाया जा सकता है। पौधे में मुख्य रूप से फैलोड्रेन, यूजिनॉल, लीनालूल, एल्फा व बीटा पाइनीन, साइमीन, सिनामल्डिहाइड, लीमोनीन, फीनाइलप्रोपानॉइड आदि औषधीय रसायन होने की वजह से अच्छा प्रयोग है। इसके अलावा पौधे को पोष्टिक तथा प्राकृतिक तत्वों का स्रोत व अच्छा विकल्प भी माना जाता है। इसमें कार्बोहाईड्रेड 74.97 ग्राम, प्रोटीन 7.61 ग्राम, फाइवर 26.3 ग्राम, फोलेट 180 माइक्रो ग्राम, नियासीन 2.0 मि0ग्रा0, विटामिन ए 6185 आई0यू0, विटामिन सी 46.5 मिग्रा0, सोडियम 23 मिग्रा0, पोटेशियम 529 मिग्रा0, कैल्शियम 834 मिग्रा, आयरन 43 मिग्रा, मैग्नीशियम 120 मिग्रा0, मैग्नीज 8.16 मिग्रा0, फास्फोरस 113 मिग्रा0, सेलेनियम 2.2 माइक्रोग्राम तथा जिंक 3.70 मि0ग्रा0 प्रति 100 ग्राम में पाये जाते हैं।
दालचीनी का भारतीय बाजार में मसालों के अलावा फार्मा, फरफ्यूमरी, फूड, ऑयल तथा कॉस्मेटिक आदि उद्योगों में काफी डिमाण्ड है। दालचीनी की छाल तथा पत्तियों के अलावा इसके इसेंसियल ऑयल की पूरे विश्व में अच्छी मांग है, जो कि लगभग 120 से 150 टन प्रति वर्ष है, जिसकी पूर्ति श्रीलंका द्वारा सबसे अधिक की जाती है। श्रीलंका द्वारा 120 टन प्रति वर्ष दालचीनी के ऑयल का निर्यात किया जाता है। इसकी अच्छी खासी कीमत भी प्राप्त होती है। आयुर्वेद औषधि बाजार में इससे निर्मित विभिन्न उत्पाद उपलब्ध हैं, जैस चन्द्रप्रभा वटी, दसमूलारिस्ट, कच्नार गुगुल, योगराज गुगुल आदि। विश्व के यूरोपियन देशो में इसके ऑयल की मांग काफी अधिक है। मुख्य रूप में फ्रांस में, जबकि वर्तमान में यू0एस0ए0 सबसे ज्यादा आयात करने वाला देश है।
उत्तराखण्ड क्यों लगायें तेजपात
तेजपात की पत्तियों का उपयोग सामान्यतः मसाले के रूप में किया जाता है। तेजपात की ही दूसरी प्रजाति जो की दक्षिण भारत में पायी जाती है की छाल जिसको दालचीनी के नाम से जाना जाता है। इसका मसाले के रूप में उपयोग किया जाता है। तेजपात की छाल एवं पत्तियों का प्रयोग आयुर्वेदिक दवाईयों जैसे सुदर्शनचूर्ण, चन्द्रप्रभाबटी, च्वनप्राश तथा विभिन्न प्रकार के अस्व तथा आरिस्थ बनाने में किया जाता है। इन उत्पादों का उपयोग पेट सम्बंधी बीमारियों, हैजा, पीलिया तथा बलबर्धक के रूप में किया जाता है। आजकल इसकी पत्तियों का प्रयोग मधुमेह की बीमारी में भी किया जा रहा है। इसकी पत्तियों तथा छाल से आसवन बिधि से प्राप्त सुगन्धित तेल का प्रयोग साबुन, फ़ूड तथा सौन्दर्य प्रसाधन के सामान बनाने वाली कम्पनियों द्वारा किया जाता है। इसकी पत्तियों में मुख्य रासायनिक सक्रीय तत्व पाइनिक, कैफीन माइरिसीन, लिमोनिन, युजिनोल पाया जाता है, जिसका उपयोग दन्त चिकत्सा में किया जाता है। छाल में पाए जाने वाले सक्रिय तत्व सिनामाल्डीहाइड पीले रंग का उपयोग खाद्य सामग्रियों के लंबे समय तक संग्रहण में किया जाता है। इसकी पत्तियों से हरे रंग की डाई भी बनती है।
तेजपात सदाबहार मध्यम ऊँचाई वाला बृक्ष हैए इसका रोपण घर के आँगन या आस पास साज सज्जा तथा छाया के लिये भी किया जा सकता है। तेजपात, रोजमेरी, तुलसी, लेमनग्रास, नींबू इत्यादी को एक साथ मिलाकर हर्बल टी के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता हैए जो की शरीर की रोग प्रतिरोधक छमता को बढ़ावा देता है। तेजपात के धार्मिक महत्व भी है, शास्त्रों में तेज का मतलब ताकत दिया गया है, इसलिए इसके रोपण तथा इस्तेमाल से शारीरिक एवं आर्थिक दोनों प्रारूपों में लाभ मिलता है। तेजपात के पौधे का रोपण एक बड़े मिट्टी के गमले में करके घर के आँगन में रखा जा सकता है तथा समय समय पर आवश्यकतानुसार उपयोग किया जा सकता है। साथ साथ इसके संरक्षण से पर्यावण को सभी विशेषताओं के साथ.साथ तेज पत्ता का GI होने के कारण प्रदेश के लिये एक अच्छा व्यवसायिक विकल्प है। GI होने से पहले तेज पत्ते की कीमत लगभग 60.65 रूपये प्रति किलोग्राम थी जो इसके बाद लगभग 150 से 200 रूपये प्रति किलो तक होने की संभावना है। फिलहाल प्रदेश में 10,000 कास्तकार तेज पत्ते के उत्पादन से जुड़े है जो लगभग 1,000 मीट्रिक टन का प्रतिवर्ष उत्पादन करने हैं। विश्व में तेज पत्ते की अधिक मांग को देखते हुये प्रदेश में उच्च गुणवत्तायुक्त तेज पत्ते का उत्पादन कर देश.दुनिया में स्थान बनाने के साथ राज्य की आर्थिकी तथा पहाड़ी क्षेत्रों में पलायान को रोकने का अच्छा विकल्प बनाया जा सकता है।
उत्तराखंड राज्य का नैनीताल नामक जगह तेजपात उत्पादन के मामले में मुख्य उत्पादक क्षेत्र बन रहा है। दरअसल उत्तराखंड के सात विकासखंडों में 3759 कृषक 250 हेक्टेयर क्षेत्रफल में तेजपात की खेती करने का कार्य कर रहे है। तेजपात उत्पादन में किसानों की रूचि को देखते हुए अब यहां के भीमताल और ओखलकांडा क्षेत्र में एरोमा कलस्टर को विकसित करने का कार्य किया जाएगा। जिसमें 786 कृषकों की 183 हेक्टेयर क्षेत्रफल भूमि को तेजपात की खेती से आच्छदित करने का पूरी तरह से प्रावधान किया गया है। इसके साथ ही इस क्षेत्र में तेजपात उत्पादन का एक बाजार भी आसानी से तैयार होगा। इससे रोजगार के अवसर अच्छी तरह से विकसित होंगे। तेजपात की पत्ती और छाल दोनों का उपयोग किया जाता है। पत्तियों की सबसे अधिक खपत मसाला उद्योग में होती है। पत्तियों को सीधे मसाले के रूप में प्रयोग होता है और पत्तियों से मिलने वाले सुगंधित तेल का भी सौंदर्य प्रसाधान में उपयोग होता है। साथ ही बाजार में इसकी काफी ज्यादा मांग होती है। यह एक ऐसा सदाबहार वृक्ष है जो कि मृदारक्षण और रोकने व पर्यावरण संरक्षण में सहायक होता है। प्रतिवर्ष 30 क्विंटल उत्पादन पौध रोपण करने के पांच साल बाद से तेजपात की फसल मिलना शुरू हो जाती है। यहां एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में ही प्रतिवर्ष तकरीबन 30 क्विटंल पत्तियों का उत्पादन होता है। इससे किसानों को प्रति हेक्टेयर 1.50 लाख तक की आय प्राप्त हो जाती है। यहां पर 900 टन पत्तियों का उत्पादन प्रतिवर्ष हो रहा है। इस प्रकार तेजपात एक बहुपयोगी एवं आर्थिक रूप से समृद्धि देने वाला बृक्ष है जोकि उत्तराखण्ड में पारम्परिक एवं अन्य फसलों के साथ सुगमता से लगाया जा सकता है। जिससे एक रोजगार परक जरिया बनने के साथ साथ इसके संरक्षण से पर्यावण को भी सुरक्षित रखा जा सकता है।
लेखक का वैज्ञानिक शोंध पत्र वर्ष ,2012 में जर्नल ऑफ़ एशियाई उष्णकटिबंध विज्ञान पत्रिका में प्रकशित हुआ है।,












