डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला :
साल 1919 में 14 अगस्त के दिन पिथौरागढ़ जिले के दूरस्थ गांव देवराड़ी में रहने वाले वैद्य अम्बादत्त पन्त को पुत्र हुआ. वैद्यजी ने बेटे को नाम दिया देवी दत्त. देवी दत्त की शुरूआती शिक्षा गांव में ही हुई. पिता ने बेटे को कांडा के जूनियर हाईस्कूल और बाद में इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई के लिए अल्मोड़ा भेजा.इधर इंटर की परीक्षा के परिणाम का इंतजार था उधर नेपाल के बैतड़ी गाँव में रहने वाले पिता के दोस्त ने अपनी बेटी का विवाह देवी से करने का प्रस्ताव रखा. परिवार सम्पन्न था पिता और पुत्र दोनों को लगा विवाह करने से आगे की पढ़ाई की समस्या भी हल हो सकती है. इंटर का परिणाम आने से पहले ही देवी दत्त का विवाह हो गया.
आणविक भौतिकी को पंत किरण से जगमगाने वाले उत्तराखंड के महान वैज्ञानिक प्रो. डीडी पंत की मेधा को सम्मान देने वाली पूरी दुनिया के इतर भारत ने उन्हें भुला दिया है। नोबल पुरस्कार से सम्मानित महान वैज्ञानिक सीवी रमन के प्रिय शिष्य रहे पंत का यह जन्म शताब्दी वर्ष है, जिसकी खबर उत्तराखंड सरकार ने ली न केंद्र सरकार ने।विज्ञान के आविष्कारों के अलावा पंत के योगदान शिक्षा के उन्नयन में भी कम नहीं हैं। 1973 में स्थापित कुमाऊं विश्वविद्यालय को इसके पहले कुलपति के रूप में अपनी विस्तृत दृष्टि से उन्होंने जिस प्रकार देश-दुनिया में विख्यात किया, अब तक की राज्य सरकारें उसी का संज्ञान ले लेतीं तो वैज्ञानिक, ब्यूरोक्रेट, शिक्षाविद, ईमानदार नागरिकों की भावी खेप निरंतर प्राप्त होती रहती।
दुनिया के पठित समाज में जहां कहीं भी चर्चा होगी, स्वाभाविक रूप से द्वितीय विश्वयुद्ध के कबाड़ से नैनीताल स्थित डीएसबी महाविद्यालय में 1952 में तैयार की गई उनकी फोटो फिजिक्स लैब अवश्य इसके केंद्र में रहेगी। देश की चुनिंदा पीकोसेकेंड लेजर सुविधा से संपन्न इस प्रयोगशाला में आणविक संसार में सेकेंड के एक खरबवें हिस्से में होने वाली भौतिक व रासायनिक घटनाओं को रिकार्ड करने की सुविधाएं मौजूद हैं। इस प्रयोगशाला में ही पहली बार तैयार टाइम डोमेन स्पेक्ट्रोमीटर की मदद से पंत और उनके सहयोगी डीपी खंडेलवाल की जोड़ी ने अपने जीवन के महत्वपूर्ण शोध किए थे।
यूरेनियम के लवणों की स्पेक्ट्रोस्कोपी पर हुए इस शोध पर अब तक लिखी गई सबसे चर्चित पुस्तक फोटोकेमिस्ट्री ऑफ यूरेनाइल कंपाउंड, ले. राबिनोविच एवं बैडफोर्ड में दर्जनों बार पंत के काम का वर्णन पंत की महानता को ही दर्शाता है। यह वही पुस्तक है, जिसे भौतिकी का बाइबिल भी कहा जाता है। समय के सूक्ष्मतम हिस्सों के पारखी इस विज्ञानी ने उत्तराखंड के अच्छे समय के लिए अपना जीवन तभी से खपाना शुरू कर दिया, जब सीवी रमन के भारतीय मौसम विज्ञान विभाग में वैज्ञानिक बनने के प्रस्ताव को ठुकराया। उत्तराखंड के आम आदमी के विकास के लिए चिंतित इस विज्ञानी को अनेक सम्मान मिले।
1960-61 में फुलब्राइट फैलोशिप, 1969 में अमेरिका की सिग्मा-साई फैलोशिप, इंडियन अकादमी ऑफ बंगलौर की फैलोशिप, सीवी रमन सेंटेनरी सम्मान, पहला आसुंदी सेंटेनरी सम्मान, लेकिन तत्कालीन कुलाधिपति से वैचारिक मतभेद के चलते विवि के कुलपति से इस्तीफा देने के बाद जिस प्रकार जनता आंदोलित हुई और कुलाधिपति को अपना कदम पीछे खींच उन्हें दोबारा यह दायित्व दिया गया, वह सम्मान निश्चितरूप से अप्रतिम कहा जाएगा। प्रो. रमन ने उनकी प्रतिभा को देखते हुए उन्हें भविष्य का वैज्ञानिक घोषित किया था. बाद में अपनी प्रतिभा के कारण ही उन्हें एक फेलोशिप के लिए अमेरिका जाने का अवसर मिला. वहॉ शोध करने के दौरान उन्हें अमेरिका के अनेक उच्च कोटि के संस्थानों ने अपने यहॉ नौकरी करने का अनुरोध किया. पर डॉ. पंत ने अमेरिका में अच्छी सुविधाओं वाली नौकरी करने की बजाय अपने देश और इपनी मातृभूमि उत्तराखण्ड लौटना स्वीकार किया. अपने इसी प्रण के कारण उन्होंने कुमाऊँ विश्वविद्यालय के सहारे यहॉ की उच्च शिक्षा को एक नया आयाम दिया. वे उत्तराखण्ड के आर्थिक व सामाजिक पिछड़ेपन को लेकर चिंतित जरूर थे, डॉ. डीडी. पंत ने दिल्ली के भगीरथ पैलेस से कबाड़ी से खरीदे गये पुराने उपकरणों को किसी तरह सुधार कर प्रयोगशाला में उनसे काम लेना सिखाया था।
उन्हीं उपकरणों के माध्यम से उन्होंने प्रतिदीप्ति पर दुनिया में पहली बार शोध किया जिसमें लगने वाले समय की गणना व परीक्षण करने हमें मद्रास जाना पड़ा। उस कार्य को देखकर वहां के वैज्ञानिक आश्चर्यचकित रह गये। प्रतिदीप्ति किसी पदार्थ का वह गुण है जिसके कारण वह अन्य स्रोतों से निकले विकिरण को अवशोषित कर तत्काल ही उत्सर्जित कर देता है।डॉ. डीडी. पंत के इस शोध से वैज्ञानिक जगत में बड़ी हलचल मची और उसके तीन साल बाद ही तीन वैज्ञानिकों को इस पर नोबल पुरस्कार मिला। ऐसे में यह विचारणीय है कि यदि डॉ. पंत को भारत में ही ऐसी सुविधा मिल जाती या वे स्वयं ही अमेरिका चले जाते तो निश्चित ही उनके गुरु प्रो. सीवी. रमन के बाद यह पुरस्कार हासिल करने वाले डॉ. डीडी. पंत देश के दूसरे वैज्ञानिक होते। 11 जून 2008 को प्रो. पन्त इस दुनिया से विदा हो गए। अंतिम समय तक उनमें जिजीविषा की पहले जैसी ज्वाला धधकती रही।
हमारा समाज उनका ऋणी है। गांधी के रास्ते पर चलने वाले प्रो. पन्त का इकोलॉजी में गहरा विश्वास था। वह अक्सर दोहराते थे कि कुदरत मुफ्त में कुछ नहीं देती और हर सुविधा की कीमत चुकानी पड़ती है। अपने जीवन में उन्हें बहुत कम सुविधाएं इस्तेमाल कीं, लेकिन बदले में उन्होंने उनकी जरूरत से ज्यादा कीमत चुकाई।प्रो. डीडी पंत के विचार ऐसे समय में और प्रासंगिक गये हैं, जब विकास के नाम पर उत्तराखंड में जल, जंगल और जमीनों को अपने हितों के लिये बेहताशा दोहन हो रहा है. लगातार जनता के खिलाफ नीतियां बन रही हैं. सरकारी स्कूल, तकनीकी संस्थान बंद किये जा रहे हैं. बड़े शोध संस्थानों के प्रति बेरुखी से दशकों से बनाये रिसर्च के ढ़ाचे को समाप्त किया जा रहा है. अस्पतालों को पीपी मोड पर दिया जा रहा है. जमीनों के बेचने के कानून पास किये जा रहे हैं. पंचेश्वर जैसे विनाशकारी बांध बनाने की योजना है. ऑल वेदर रोड के नाम पर पहाड़ों को छीला जा रहा है.










