डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला:
उत्तराखंड के वृक्ष-मानव कहे जाने वाले विश्वेश्वर दत्त सकलानी के हैं। अब वह हमारे बीच नहीं हैं। 98 वर्ष की आयु में टिहरी के अपने पैतृक गांव में उनका निधन हो गया है, लेकिन वृक्ष-मानव के लगाए हुए लाखों वृक्ष इस धरती पर सदैव हरियाली का संदेश देते रहेंगे।पिता के निधन पर भर्रायी-सी आवाज में उनके बेटे संतोष सकलानी कहते हैं कि उन्होंने अपना पूरा जीवन पर्यावरण और देश के लिए न्योछावर कर दिया।
विश्वेश्वर सकलानी का जन्म दो जून 1922 को हुआ था। संतोष बताते हैं कि विश्वेश्वर दत्त जब आठ वर्ष के थे, तभी खेल-खेल में पेड़ लगाया करते थे। यह सीख उन्हें उनके ताऊ जी से मिली थी। पेड़ों का हरा किस्सा शुरू होता है उनके पिता के पड़दादा से जिन्हें दहेज में देवदार के पेड़ मिले थे। इस वाकये को अब दो सौ बरस बीत चुके हैं। वे पेड़ आज भी जीवित हैं।संतोष सकलानी कहते हैं कि इस दुनिया में न वो दुल्हन रही, न दूल्हा रहा लेकिन उन्हें तोहफे में मिले पेड़ आज भी जीवित हैं। पेड़ ही चिरकाल तक प्रत्यक्ष और साक्षात रह सकते हैं।
यही बात उनके पिता के दिल में घर कर गई थी। यहीं से उन्हें पेड़ लगाने की प्रेरणा मिली।फिर क्या था, एक बंजर सी जमीन पर हरियाली की उम्मीद के रूप में धीरे-धीरे हरे पेड़ों की श्रृंखला बनती-बढ़ती चली गई। जिस समय विश्वेश्वर दत्त सकलानी पेड़ उगाने की अपनी धुन में रमे थे, उस समय में पर्यावरण नाम का शब्द हमारे शब्दकोष में नहीं जन्मा था। यह आजादी के समय से पहले की बात है। प्रकृति को आत्मसात करने वाले वयोवृद्ध पर्यावरणविद विश्वेश्वर दत्त सकलानी का अवसान हिमालय की एक परंपरा का जाना है।
उन्हें कई सदर्भों, कई अर्थों, कई सरोकारों के साथ जानने की जरूरत है। पिछले दिनों जब उनकी मृत्यु हुई तो सोशल मीडिया से लेकर मुख्यधारा के समाचार माध्यमों ने उन्हें प्रमुखता के साथ प्रकाशित-प्रसारित किया। इससे पहले शायद ही उनके बारे में इतनी जानकारी लेने की कोशिश किसी ने की हो। सरकार के नुमांइदे भी अपनी तरह से उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुये।
मुख्यमंत्री से लेकर राज्यपाल तक ने उनके निधन पर शोक व्यक्त किया। जैसे भी हो यह एक तरह से वृक्ष मानव की एक परंपरा को जानने का उपक्रम है जिसे कई बार कई कारणों से भुलाया जाता है। 96 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपने गांव सकलाना पट्टी में अंतिम सांस ली। विश्वेश्वर दत्त सकलानी को जानने वाले बताते हैं कि उन्होंने पहला पौधा आठ साल की अवस्था में लगा दिया था।
उनकी पहली पत्नी की मृत्यु 1958 में हो गई थी, उन्होंने उनकी याद का चिरस्थाई रखने के लिये पौधा लगाना ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। इसमें उनकी दूसरी पत्नी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्हें इस काम में परेशानियां भी कम नहीं हुई। शुरुआत में गांव के लोगों को भी लगा कि जिन जगहों पर वे पेड़ लगा रहे हैं, उसे कहीं कब्जा न लें। लेकिन बाद में लोगों की बात समझ में आई।
एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के अलावा सकलानी जी के पास हिमालय के संसाधनों को बचाने की एक समझ थी। उन्होंने अपने गांव में नागेन्द्र सकलानी जी के नाम पर ‘नागेन्द्र वन’ के नाम से एक जंगल खड़ा किया। इस जंगल में उन्होंने जंगलों की परंपरागत समझ और जैव विविधता को बनाये रखते हुये सघन पौधरोपण किया। उनके इस वन में बाज, बुरांस, देवदार, सेमल, भीमल के अलावा चौड़ी पत्ती के पेड़ों की बड़ी संख्या थी। गांधीवादी विचारधारा को आत्मसात करते हुये बिना प्रचार-प्रसार वे अपना काम करते रहे।
बताते हैं कि उन्होंने इस क्षेत्र में 50 लाख से अधिक पेड़ लगाये। उनके इस काम को देखते हुये उन्हें ‘वृक्ष मानव’ की उपाधि दी गई। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें ‘इंदिरा प्रियदर्शिनी वृक्ष सम्मान’ दिया। भारत के प्रधानमंत्री द्वारा सम्मानित किये जाने के बावजूद वन विभाग ने उन पर वन क्षेत्र में पेड़ लगाने को अतिक्रमण माना और उन पर मुकदमा चलाया। उस समय में जाने-माने कम्युनिस्ट नेता विद्यासागर नौटियाल ने टिहरी अदालत में उनकी पैरवी की। उन्होंने कोर्ट में यह साबित किया कि ‘पेड़ काटना जुर्म है, पेड़ लगाना नहीं।’
संभवतः 1990 में उन्हें वन विभाग के मुकदमे से मुक्ति मिली। उनका काम इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि उन्होंने एक ऐसे क्षेत्र में हरित भूमि बनाने में योदान किया जहां की जमीन बहुत पथरीली थी।विश्वेश्वर दत्त सकलानी जैसे लोगों ने इसी चेतना के साथ अपनी आंखें खोली। उनके सामने समाज को देखने का नजरिया विकसित हो रहा था। उन्होंने भी आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया। टिहरी रियासत के खिलाफ भी लगातार आंदालन तेज हो रहा था।
उस समय टिहरी में श्रीदेव सुमन के नेतृत्व में बड़ा आंदोलन चल रहा था। टिहरी रियासत की जेल में श्रीदेव सुमन की शहादत हुई। इसके खिलाफ कामरेड नागेन्द्र सकलानी ने बड़ा आंदोलन खड़ा किया। 11 जनवरी, 1948 को कीर्तिनगर में मोलू भरदारी के साथ उनकी शहादत हुई। नागेन्द्र सकलानी उनके बड़े भाई थे। आजादी के दौर और आजादी के बाद प्राकृतिक संसाधनों को बचाने की जो भी मुहिम चली उसमें सकलानी जी की महत्वपूर्ण भूमिका रही। सत्तर के दशक में उत्तराखंउ में वनों को बचाने को लेकर श्ुारू हुये ‘चिपको आंदोलन’ में सुन्दरलाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट के साथ उनकी बराबर भागीदारी रही।
उन्होंने आठ साल की छोटी सी उम्र से पेड़ लगाने शुरू कर दिए। बांज, बुरांश, सेमल, देवदार का घना जंगल तैयार कर सकलाना क्षेत्र के बंजर इलाके की तस्वीर बदल दी।इसी का नतीजा है कि आज भी क्षेत्र में प्राकृतिक जल धाराएं ग्रामीणों की प्यास बुझा रही हैं।उन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई में भी बढ़-चढ़कर योगदान दिया।देश की आजादी की खातिर उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। पुजार गांव में बांज, बुरांश का मिश्रित सघन खड़ा जंगल आज भी उनके परिश्रम की कहानी को बयां कर रहा है।
विशेश्वर दत्त सकलानी को 19 नवंबर 1986 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इंदिरा प्रियदर्शनी वृक्ष मित्र पुरस्कार से भी सम्मानित किया था।वृक्षमानव सकलानी का सपना था कि प्रत्येक आदमी पेड़ों को अपने जीवन के तुल्य माने और उनकी रक्षा करे। उनका संदेश था कि जीवन के तीन महत्वपूर्ण मौकों जन्म, विवाह और मृत्यु पर एक पेड़ जरूर लगाएं। 18 जनवरी को निधन हो गया था।अगर आप जमीन को पेड़ों से नहीं ढँकेंगे,’ उन्होंने चेतावनी दी कि, ‘मिट्टी धुल जाएगी और फिर आपके लिए या किसी के लिए और कोई जमीन नहीं बचेगी।”
आज वृक्ष मित्र अपने बनाये जंग में समा गये और आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित कर गये।एक तरफ लगातार सड़कों के चौड़ीकरण के नाम पर समूचे देश से करोड़ों पेड़ों को समूल काट दिया गया, दूसरी ओर तमाम अत्याधुनिक जीवन उपकरणों, यातायात कारों आदि के जरिए शहर के शहर गैस चैंबर में तब्दील कर दिए जा जा रहे हैं। एक ऐसे समय में वृक्षमानव विश्वेश्वर सकलानी का जाना समाज और पर्यावरण के लिए बहुत बड़ी क्षति है। दिन-ब-दिन उजड़ती जाती धरा और पूरी धरती को सड़क और शॉपिंग काम्पलेक्स में तब्दील करने पर आमादा इस दुनिया से विदा हो गए वृक्षमानव को मानवता और धरती का कोटि कोटि नमन।