थराली से हरेंद्र बिष्ट।
तो क्या बीती सदी की तरह ही उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में एक बार फिर से झोड़े, चांचरी, चौफूला, मांगल गीतों की धूम वापस लौटने को तैयार है। जिस तरह से अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर देवाल ब्लाक मुख्यालय में महिलाओं के दलों ने एक से बढ़कर पौराणिक लोक संस्कृति पर आधारित कार्यक्रम प्रस्तुत किए उससे तों कुछ इसी तरह के संदेश मिल रहे हैं।
दरअसल राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में सदियों से शादी.विवाह सहित अन्य मांगलिक कार्यों में झोड़ा, चांचरी, चौफूला एवं मांगल गीतों की सुरीली धुन एवं नृत्य ग्रामीण क्षेत्रों से कुछ विकसित इलाकों में लगभग पूरी तरह से लुप्त होने के कगार पर पहुंच चुके हैं। आलम यह बन गया हैं कि शहरी क्षेत्रों की तरह ही यहां पर भी शादी.बारात, नामकरण सहित अन्य शुभ कार्यों के दौरान महिलाओं के द्वारा सामूहिक रूप से गाये जाने वाले मांगल गीत लगभग नदारद हो गए हैं। इन मांगलिक कार्यों के दौरान डेक, डीजे, माईक आदि इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के माध्यम से मांगलिक गीत गाए जाने लगे हैं। अगर कहा जाए कि शहरी क्षेत्रों की तरह पाश्चात्य संसाधनों ने राज्य की कन्द्राओं में बसे गांवों को भी अपनी जकड़ में लिया हैं, तो गलत ना होगा। हालांकि संतोष करने वाली बात है कि आज भी कथित तौर पर अपने को विकसित मानने वाले क्षेत्र से दूर गांवों में अब भी प्राचीन लोक संस्कृति कुछ हद् तक जिंदा हैं। मांगलिक कार्यों के दौरान इन क्षेत्रों में पौराणिक लोक संस्कृति की गूज आज भी जरूर सुनाई देती हैं।
गत मंगलवार को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर देवाल के युवा ब्लाक प्रमुख डॉ दर्शन दानू के प्रयासों से आयोजित महिला के कार्यक्रम में जिस उत्साह से महिलाओं ने झोड़े, चाचरी, चौफूला एवं मांगलिक गीत प्रस्तुत किए उससे माना जा रहा है कि एक बार पुनः पहाड़ की पौराणिक लोक संस्कृति अपने पुराने स्वरूप को लौटाने के लिए अंगड़ाई लेने लगी हैं।
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राज्य की प्रसिद्ध जागर गायिका पद्मश्री बसंती बिष्ट का मानना है कि पौराणिक लोक संस्कृति को जीवित रखने के लिए महिलाओं को आगे आना होगा। उनका मानना है कि अब धीरे.धीरे इस प्रदेश के लोग एक बार फिर से अपनी पौराणिक लोक संस्कृति झोड़ा, चाचरी, चौफूला, मांगल गीतों की ओर लौटने लगे हैं और सरकारों को चाहिए कि वे भी पौराणिक लोक संस्कृति के प्रति विशेष ध्यान दें।
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मैती आंदोलन के जनक पद्मश्री कल्याण सिंह रावत मैती का कहना हैं कि उत्तराखंड में लगाएं जाने वाले झोड़ा, चाचरी, चौफूला जहां एक ओर सामाजिक समरसता का जीता जागता उदाहरण हैं, वही मांगलिक कार्यों के दौरान गाएं जाने वाले मांगल गीत मांगलिक कार्य के उत्साह को काफी बढ़ देते हैं। उनका कहना है कि कुछ समय के लिए यहां के लोग अल्प समय के लिए पाश्चात्य संस्कृति के चकाचौंध में खो गये थे, किन्तु इसमें आत्मसंतुष्टि नहीं मिलने के बाद एक बार पुनः लोग अपनी लोक संस्कृति की ओर लौटने लगें है। उनका भी मानना हैं कि पौराणिक लोक संस्कृति को विकसित करने एवं इसके प्रचार.प्रसार के लिए सरकार को पहल करनी ही होगी।