डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
बबूल या कीकर वानस्पतिक नामः आकास्या नीलोतिका, अकैसिया प्रजाति का एक वृक्ष है। यह अफ्रीका महाद्वीप एवं भारतीय उपमहाद्वीप का मूल वृक्ष है।बबुल का पेड़ जिसे स्थानीय भाषा में देशी कीकर कहा जाता है। पुरानी मान्यताओं के अनुसार इस पेड़ में भगवान विष्णु का निवास माना जाता है। प्राचीन समय में इस पेड की पूजा की जाती थी । इस पेड़ को काटना महापाप माना जाता है। जिस जगह यह पेड होता है वह जगह अत्यंत शुभ मानी जाती है। ऐसा माना जाता है कि जिस घर में यह पेड़ पाया जाता है कि वह घर हमेशा धन धान्य से परिपूर्ण रहता है।
यह पेड़ एक मात्र पश्चिमी राजस्थान में पाया जाता है इस पेड़ की गिनती दुर्लभ क्षेणी में होती है। बबूल का गोद औषधीय गुणों से भरपूर होता है तथा अनेक रोगों के उपचार में काम आता है बबूल की हरी पतली टहनियां दातून के काम आती हैं। बबूल का गोद उतम कोटि का होता है जो औषधीय गुणों से भरपूर होता है तथा सेकडो रोगों के उपचार में काम आता है। बबूल की दातुन दांतों को स्वच्छ और स्वस्थ रखती है। बबूल नाम से एक टूथ पेस्ट भी आता है और यह एक पेड़ का नाम भी है जिसे कीकर के नाम से भी जाना जाता है। आपको शायद पता होगा कि बबूल का पेड़ एक औषधि के रूप में काम करता है जो हमारी कई शारीरिक परेशानी व हमें कई बिमारी से बचाता है, जैसे आयरन कि कमी न होने देना, दांतों के लिए लाभदायक, सूजन व दर्द को भी ठीक कर देता है बबूल की लकड़ी का कोयला भी अच्छा होता है।
हमारे यहां दो तरह के बबूल अधिकतर पाए और उगाये जाते हैं। एक देशी बबूल जो देर से होता है और दूसरा मासकीट नामक बबूल। बबूल लगा कर पानी के कटाव को रोका जा सकता है। जब रेगिस्तान अच्छी भूमि की ओर फैलने लगता है, तब बबूल के जगंल लगा कर रेगिस्तान के इस आक्रमण को रोका जा सकता है। हमारे भारत में कई एेसे औषधिय पेड़.पौधें है जिनका प्रयोग औषधिय दवाईयों में किया जाता है। उन्ही में एक है बबूल का पेड़।
बबूल जिसे कीकर के नाम से भी जाना जाता है। यह एक कांटेदार पेड़ है जिसकी पत्ती, टहनी, गोंद और छाल सभी औषधीय रूप में उपयोग किया जाता है। हमारे भारत में दो तरह के बबूल पाए जाते हैं। एक देशी बबूल दूसरा मासकीट बबूल है। बबूल की लकड़ी बहुत मजबूत होती है। सम्पुरण भारत में पाया जाने वाला एक कांटेदार वृक्ष होता है कीकर के पेड़ से हम सभी परिचित है क्योकि आज भी भारत के गाँवो में यह दन्त मंजन का एक बेहतरीन विकल्प है और शहरों में भी इससे मंजन करने वालो की कमी नहीं, जो इसके फायदे जानते है। बबूल कीकर की दो प्रजातीय है एक देसी बबूल और दूसरी मासकित बबूल भारत के रेगिस्तान राजस्थान में यह बहुतायत से पाया जाता है।
भारत सरकार ने रेगिस्तान को बढ़ने से रोकने के लिए राजस्थान में इसके जंगल लगाये थे जो आज भी रेगिस्तान को बढ़ने से रोकते हैं। पर्यावरण को सुधरने में बबूल कीकर का अच्छा सहयोग है। एक कहावत बबूल के बारे में और प्रचलित है कहते हैं कि ष्बबूल.बबूल पैसे वसूलष् अर्थात् खाकर भी और बाह्य उपयोगों से भी यह लाभदायक हैद्य इसकी छाल का काढ़ाए पत्तियों की लुगदीए फली का चूर्णए कोमल हरी शाखाएँ और गोंद सभी का वैज्ञानिक एवं चिकित्सा दृष्टि से महत्व है। रासायनिक संगठन की दृष्टि से फली में 12 से लेकर 20 प्रतिशत टेनिन पाया जाता हैद्य छाल में 7 से 12 प्रतिशत कषाय रस कड़वा प्रधान रसायन होते हैं। सामान्य तौर पर व्यवसायिक दृष्टि से बबूल का गोंद मार्च से मई माह के मध्य इकट्ठा किया जाता है। यह गोंद पानी में घुलनशील होता है। इसमें गेलेक्टो अरेबन होता है। इसे जलाने पर 1.8: राख प्राप्त होती हैद्यबबूल के पत्तो के अलावा इसकी गोंद और छाल भी बहुत फायदेमंद होती है। बबूल कफ और पित्त का नाश करने वाला होता है और इसकी गोंद में भी कैल्शियमए मैग्नीशियम और पोटेशियम के अलावा अरबिक एसिड होता है। बाबुल के पेड़ की छाल और पत्तियों में टैनिन और गैलिक नामक एसिड होता है जिसके कारण इसका स्वाद कड़वा हो जाता है। यह जलन को दूर करने वाला, घाव को भरने वाला और रक्तशोधक होता है बाबुल के पेड़ के विभिन्न भागों का उपयोग डायरिया के लिए भी किया जाता है।