कविता
बदलों की चादर यों औढ लेते पहाड़,
अपने हसीन अहम् को यों छोड़ देते पहाड़,
मैं बड़ा वो छोटा,या वो बडा मैं छोटा,
सब कुछ छुप जाता, कौन खरा कौन खोटा।
बादलों के बीच जा कर जाना , बादल होना कैसा होता,
जब छाते बादल, तो सिर्फ बादल ही बादल होता,
सड़क ने पेड़,ना नदी ना पहाड़ कहीं भी होता,
छू कर जाना मैंने,बादलों का कोई अस्तित्व ना होता,
अस्तित्व के बगैर भी यह सबकुछ डुबोता और भिगोता,
नेत्रों से विस्मृत कर नदी,पहाड़,पेड़ सड़क सब कुछ छिपाता ।
काश हमने भी बादल छू कर यह जाना होता ,
जिसका खुद का कोई अस्तित्व नहीं होता,
वही दूजे का अस्तित्व क्षण भर में डुबोता।
रचियता;
डा0 चेतना उपाध्याय,
वरिष्ठ व्याख्याता डाइट मसूदा, अजमेर,
निवास 49 गोपाल पथ,कृष्णा विहार,
कुंदन नगर अजमेर , राजस्थान।