डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
मुजफ्फरनगर गोलीकांड के 26 साल बाद भी उत्तराखंड के लोगों को न्याय नहीं मिल पाया है। दो अक्टूबर, 1994 का दिन इतिहास के पन्नों में काला अध्याय बनकर तो दर्ज हो गया, मगर इसका शिकार बने आंदोलनकारियों को न्याय आज तक नसीब नहीं हो पाया है। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान 1994 में हुआ मुजफ्फरनगर गोलीकांड कभी नहीं भुलाया जा सकता। पुलिस दमन का ये ऐसा विभत्स रूप था, जिसे पूरे राष्ट्र ने धिक्कारा। निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोलियां बरसाई गई, बर्बरतापूर्ण लाठीचार्ज हुआ और महिलाओं से दुराचार किया गया इसे याद कर उस लम्हे के गवाह रहे लोग आज भी गुस्से से भर उठते हैं। उनकी जुबानी कहें तो 1994 में एक और दो अक्टूबर की रात पुलिस संरक्षण में जुल्म और अत्याचार का जो सुनियोजित तांडव मचाया गया, उससे सैकड़ों निहत्थे आंदोलनकारी लहूलुहान हो गए। अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी की जयंती के दिन रामपुर तिराहा हिंसा के कारण रक्तरंजित हो गया।
व्यथित आंदोलनकारी उस दिन का इंतजार कर रहे हैं, जब जुल्म के गुनहगार सलाखों के पीछे होंगे। कमजोर पैरवी व प्रदेश सरकार की उदासीनता के कारण यह इंतजार बढ़ता ही जा रहा है। आंदोलनकारियों की शहादत पर उत्तराखंड राज्य बना और तब से अब तक कई मुख्यमंत्री हमें मिल चुके हैं। फिर भी बड़े अफसोस की बात है कि चुनाव के समय आंदोलनकारियों को न्याय दिलाने का दंभ भरने वाले हमारे नेता खोखले वादों से आगे नहीं बढ़ पाते। वरिष्ठ राज्य आंदोलनकारी के मुताबिक, वर्ष 1994 में आंदोलन अपने चरम पर था। खटीमा और मसूरी गोलीकांड में हुई शहादत ने पूरे प्रदेश को गुस्से से भर दिया था। इस बीच संयुक्त संघर्ष समिति ने दिल्ली में बड़ी रैली करने का फैसला किया।
गढ़वाल से सैकड़ों बसें दिल्ली के लिए रवाना हुई। चमोली, पौड़ी, टिहरी से हजारों की संख्या में लोग जिनमें ज्यादातर महिलाएं थी, मुजफ्फरनगर तक पहुंचे। पर हमारे वहां पहुंचने से पहले ही यह खबर आग की तरह फैल गई कि आंदोलनकारियों पर लाठीचार्ज हुआ है। वहां पहुंचने पर जो खबर मिली उसने सबको हिलाकर रख दिया। खाली खड़ी बसों के शीशे टूटे हुए थे और बदहवास लोग इधर.उधर भटक रहे थे। दूसरी ओर बैरिकेडिंग के पास तत्कालीन डीआइजी बुआ सिंह और अन्य पुलिस अधिकारी आंदोलनकारियों को आगाह कर रहे थे। उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन पर्वतीय क्षेत्र की जनता और पहाड़ के प्राकृतिक संसाधनों पर केन्द्रीय सत्ता, व्यवस्था द्वारा किए गये निर्मम शोषण, तिरस्कार, पिछड़ेपन, उपेक्षा का नतीजा था।
उत्तर प्रदेश और देश की सरकारों में काबिज असरदार नेताओं ने उत्तराखण्ड की स्थानीय आत्मनिर्भरता को नष्ट किया, यहां की प्राकृतिक सम्पदा को नीलाम किया। शराब, लकड़ी, लीसा, जड़ी.बूटी और भूमि के माफियाओं को पैदा किया, उन्हें पाला पोसा। पर्वतीय विकास के नाम पर आने वाले बजट का 80 प्रतिशत सरकारी मशीनरी लूटती रही, यह आन्दोलन इसलिए पैदा हुआ। दर्जनों शहादतों, गोली, लाठी, मुकदमे, बलात्कार, जेल आदि से गुजरते हुए पृथक राज्य की लड़ाई परवान चढ़ी। जो मां चार.पांच किलोमीटर दूर से चारा, लकड़ी और पानी लाती थी, जिसके आसपास न स्कूल था, न अस्पताल। सरकार जिसके बच्चों को शिक्षा, चिकित्सा के बजाय शराब दे रही थी। नेतागण जिसके बेटों को लकड़ी, लीसा और शराब के धंधे से जुड़ने का माहौल दे रहे थे। जिसके बेटे नेफा, लद्दाख, श्रीलंका, सियाचिन आदि में मारे जाते हैं, वह मां अपनी दरांती लेकर उत्तराखण्ड आन्दोलन में आयी थी।
बेलमती चौहान, हंसा धनाई जैसी महिलाओं ने शहादत देकर लड़ने का इतिहास बनाया। पूर्व सैनिक आन्दोलन में रहे। जिन्हें इस व्यवस्था ने पैंशन, रम और तमगे दिये हैं। जिनके बेटों के लिए फौज में भर्ती होने के लिए घूस देने की नौबत आ गयी थी और भर्ती के समय लाठीचार्ज तक झेलना पड़ता था। इस आन्दोलन के केन्द्र में रहे छात्र.युवा, उन्होंने सबको संगठित किया, भाषण दिए, गीत गाये, लाठी-गोली खायी, विधानसभा व संसद में पर्चे फेंके। शिक्षक, कर्मचारी, मजदूर-किसान, दलित, अल्पसंख्यक सभी धीरे-धीरे आन्दोलन से जुड़ते गये। जल, जंगल, जमीन पर जनता के अधिकार का नारा सर्वत्र गूंजने लगा। आन्दोलन व्यापक होने के साथ.साथ जनता का हुजूम तो बड़े पैमाने पर जुड़ा, लेकिन स्पष्ट नेतृत्व और स्पष्ट लक्ष्य उभर कर सामने नहीं आया। इसी का लाभ उठाकर कांग्रेस और भाजपा के नेता आन्दोलन में घुस गये। हालांकि उनकी भूमिका तमाशबीन से ज्यादा नहीं थी, फिर भी वे अधिकांश जनता को भटकाने में कामयाब रहे।
राज्य बनने के बाद सत्ता उन्हीं हाथों में आयी जो अलग पर्वतीय राज्य की मूल अवधारणा के खिलाफ थे। जिनके पास विकास का सही दृष्टिकोण था, वे गैर राजनीतिवाद का शिकार होकर हासिए पर चले गये। गांधी जयंती का दिन था, सो आंदोलनकारी रघुपति राघव राजा राम का जाप करते हुए धरने पर बैठ गए। लेकिन उन्हें पुलिस ने जबरन उठा दिया। कुछ ही देर में पुलिस ने लाठियां भांजनी शुरू कर दी। गोलियों की आवाज से पूरा इलाका दहल उठा। सोचा था राज्य गठन के बाद अपनी सरकार अत्याचारियों को सलाखों के पीछे भेजेगी। पर सीबीआइ कोर्ट में जो मुकदमे चले, वे कमजोर पैरवी की वजह से परवान नहीं चढ़ पाए। 25 साल बीत जाने के बाद भी आज तक मुजफ्फरनगर कांड के दोषियों को सजा नहीं मिल पाई। आंदोलनकारियों को न्याय मिला होता तो दोषी सलाखों के पीछे होते। पर ऐसा हुआ नहीं है। इस विषय में सोचना चाहिए। आंदोलनकारियों के संघर्ष व कुर्बानी की बदौलत हमें उत्तराखंड राज्य मिला। आज राज्य गठन के 20 साल होने जा रहे हैं, लेकिन मुजफ्फरनगर गोलीकांड के दोषियों को सजा नहीं मिल पाई। हमारी स्थिति तीन न तेरह में वाली है। राज्य के आंदोलनकारियों को न तो न्याय मिल रहा है और न ही जिस लक्ष्य को लेकर संघर्ष किया गया था, वह हासिल हो पाया है।
राज्य गठन की मांग इसलिए की गई थी कि पहाड़ का विकास होगा पर पलायन रुकेगा, पर आज स्थिति ये है कि पहाड़ खाली होते जा रहे हैं। यह सुखद संयोग है कि केंद्र, उप्र व उत्तराखंड में भाजपा की ही सरकार है। अब भी अगर दोषियों पर कार्रवाई नहीं हुई तो कब होगी, जिस राज्य व्यवस्था ने न्याय दिलाना था, यह उसकी भूमिका पर भी प्रश्न चिन्ह है। अभी तक की हरेक सरकार ने शहादत व मातृशक्ति की अस्मिता पर राजनीतिक रोटियां सेंकी है। रामपुर तिराहा कांड के दोषियों को सजा होगी और उत्तराखंड आंदोलन के शहीदों को न्याय जरूर मिलेगा। उत्तराखंड की जनता को आश्वासन देते हुए हाल ही में राजनीतिक रोटियां तो ने यह बयान दिया था। लेकिन इस बयान की व्यावहारिकता जाँचने के लिए जब सत्याग्रह ने न्यायालयों में लंबित उत्तराखंड आंदोलन से जुड़े मामलों की पड़ताल की तो यह कड़वी हकीकत सामने आई कि प्रदेश के शहीदों को बीते 26 सालों में न तो कभी न्याय मिला है और न ही अब इसकी कोई उम्मीद ही बची है।
राज्य आन्दोलन के दौरान ही नहीं, राज्य बन जाने के कई साल बाद तक हमारी पीढ़ी के आन्दोलनकारी यह कहते थे कि यदि मुजफ्फरनगर कांड के दोषियों को सजा नहीं हुई तो इस राज्य का बनना बेमानी है। आंदोलनकारियों के संघर्ष व कुर्बानी की बदौलत हमें उत्तराखंड राज्य मिला स्थिति तीन न तेरह में वाली है। हमारे पास न तो सत्ता की पावर है और न ही कुछ और। राज्य के आंदोलनकारियों को न तो न्याय मिल रहा है और न ही जिस लक्ष्य को लेकर संघर्ष किया गया था, वह हासिल हो पाया है।