डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड का प्राचीन हस्तशिल्प कालीन उद्योग तकनीकी युग में धीरे.धीरे सिमट रहा है। जबकि किसी जमाने में पिथौरागढ़, बागेश्वर, चमोली जैसे दूरदराज के पर्वतीय जिले कभी इसी उद्योग से फल फूल रहे थे। लेकिन अब युवा पीढ़ी की इस पारंपरिक हस्तशिल्प से दूरी बना कर पलायन मजबूरी बन गई है। आजीविका के तौर पर युवा पीढ़ी इस पुस्तैनी कारोबार को अपनाना नहीं चाहती है। रोजगार के अन्य विकल्प तलाशने के लिए पलायन कर रहे हैं। पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार भी पिथौरागढ़ से युवाओं ने रोजगार के लिए पलायन किया है। यदि सरकार इस परंपरागत उद्योग को आधुनिक स्वरूप दे तो युवाओं के लिए रोजगार का बड़ा साधन बन सकता है। कभी पूरे देश में अलग पहचान रखने वाले धारचूला.मुनस्यारी के दन कालीन का कारोबार अब सिमटने लगा है। चीन और कोरिया सहित मशीनों में निर्मित आकर्षक डिजाइन के कपड़ों के बाजार में आने से परंपरागत हस्तशिल्प को नुकसान उठाना पड़ा है। बाजार में मांग घटने से युवा पीढ़ी हस्तशिल्प से किनारा करने लगी है।
धारचूला और मुनस्यारी में कभी पांच हजार से अधिक परिवार ऊनी हस्तशिल्प पर निर्भर थे। तिब्बत से ऊन आयात करने के साथ ही स्थानीय स्तर पर भी भेड़ों से ऊन निकाला जाता था। यहां के ऊन से निर्मित दन, कालीन, स्वेटर, मफलर, मोजे, दस्ताने, पंखी, चुटका और थुलमा की बाजार में बड़ी मांग थी। हस्तशिल्प पुश्तैनी व्यवसाय था। शादी विवाह में दन, कालीन को गिफ्ट करने का रिवाज था। दन बनाने से फुरसत नहीं मिलती थी। सोफा सेट में बिछाने के लिए भी ऊन के दनों की अब डिमांड नहीं आती है। ऊनी हस्तशिल्प की आज भी अलग पहचान है। मशीनों में निर्मित विदेशी सस्ते सामान के बाजार में आने से हस्तशिल्प को भारी नुकसान पहुंचा है। मांग नहीं होने से हजारों परिवारों ने दूसरा व्यवसाय शुरू कर दिया है।
हस्तशिल्पियों को दन, कालीन और बाजार की मांग के अनुरूप सामान तैयार करने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। इन परंपरागत उद्योगों को भी मार्डन कर नया स्वरूप देने की जरूरत है। इसमें उत्पाद की डिजाइन व तकनीकी पर ध्यान देना होगा। हस्तशिल्पी क्या उत्पाद बना रहे हैं और बाजार की डिमांड क्या है। इस गेप को दूर करने के लिए सरकार को प्रयास करना चाहिए।प्राचीन समय से ही कालीन उद्योग स्वरोजगार का साधन था, लेकिन अब इनका प्रचलन कम हो गया है। बागेश्वर के कई लोग कालीन, मोजे, टोपी, स्वेटर, दन, मफलर, थुलमा, कोट, जैकेट हथकरघा से बनाते थे। हस्तशिल्पियों को एक कालीन तैयार करने में महीना भी लग जाता है। जिससे कालीन की कीमत भी ज्यादा होती है। लेकिन अब हस्तशिल्पी महंगी कालीन खरीदने से बच रहे हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह भी है कि बाजार में तीन, चार सौ रुपये तक की प्लास्टिक की दरियां, चटाई मिल रही है। इसकी वजह से कालीन व्यवसाय सिमटा रहा है।
हस्तशिल्पी इस पुस्तैनी कारोबार को छोड़ कर दूसरा व्यवसाय अपनाने के लिए पलायन करने को मजबूर हैं। उत्तराखंड का प्राचीन हस्तशिल्प कालीन उद्योग तकनीकी युग में धीरे.धीरे सिमट रहा है। जबकि किसी जमाने में पिथौरागढ़, बागेश्वर, चमोली जैसे दूरदराज के पर्वतीय जिले कभी इसी उद्योग से फल फूल रहे थे। लेकिन अब युवा पीढ़ी की इस पारंपरिक हस्तशिल्प से दूरी बना कर पलायन मजबूर बन गई है। आजीविका के तौर पर युवा पीढ़ी इस पुस्तैनी कारोबार को अपनाना नहीं चाहती है। रोजगार के अन्य विकल्प तलाशने के लिए पलायन कर रहे हैं।
पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार भी पिथौरागढ़ से युवाओं ने रोजगार के लिए पलायन किया है। यदि सरकार इस परंपरागत उद्योग को आधुनिक स्वरूप दे तो युवाओं के लिए रोजगार का बड़ा साधन बन सकता है। यह वस्तुएं सीमांत इलाकों के कुछेक गांवों तक सिमट गई हैं। भले ही पुरानी वस्तुएं अपनी अलग छाप छोड़ने के साथ ही असुविधा के दौर में मानव जीवन के लिए खासे मददगार रहे होंए किंतु आधुनिकता इन पर भारी पड़ी। जिस कारण यह विलुप्ति की ओर बढ़ती जा रही हैं। हस्तशिल्प पुश्तैनी व्यवसाय था हस्तशिल्प पुश्तैनी व्यवसाय था हस्तशिल्प पुश्तैनी व्यवसाय था तकनीकी युग में मशीनों ने हस्तशिल्प कारीगरों के हाथों से तैयार उत्पादों की मांग कम कर दी है। अब अधिकतर परिवारों ने परंपरागत कारोबार को छोड़कर नौकरी या अन्य व्यवसाय शुरू कर दिया है। दशकों पहले तक ऊन से बने कालीन व कपड़ों की अच्छी मांग थी। लेकिन अब बाजार में हाथ से बुने इन उत्पादों की मांग कम हो गई है। नई पीढ़ी इस कारोबार में नहीं आना चाहती है। सरकार को परंपरागत हस्तशिल्प को बचाने के लिये ठोस प्रयास करने चाहिये। इस प्राचीन व्यवसाय को बढ़ावा मिलने से दूरदराज गांव से पलायन रूक सकता है। कोरोना के कारण इसके प्रदेश में इसको लेकर न होने के कारण इसका दीदार नहीं हो पा रहा हैण् सरकारीव स्थानीय सहयोग की बड़ी आवश्यकता है, तो निश्चित तौर पर पहाड़ की पुरानी हस्तशिल्प रौनक वापस लौट सकती है।