डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
पाणी राखो आंदोलन के प्रणेता और जाने माने पर्यावरणविद् सच्चिदानंद भारती का कहना है कि हिमालय को बचाने के लिए सबसे पहले हिमालय के गांवों को बचाना होगा। हिमालय को सहेजने के लिए उत्तराखंड ही नहीं समूचे देश के लोगों को आगे आने की जरूरत है। खाली होते हिमालय के गांवों में लोगों को बुनियादी सुविधाएं मुहैैैया करवाकर ही हिमालय को बचाया जा सकता है। उन्होंने हिमालयी राज्यों के लिए केंद्र में पृथक मंत्रालय बनने की बात कही। भारती का कहना है कि हिमालय की संवेदनशीलता को समझे बिना हिमालय को सहेजने की कल्पना नहीं की जा सकती है।
एक ओर हिमालय के गांव खाली हो रहे हैं, वहीं ऑलवेदर समेत सड़कों का जाल बिछ रहा है। यह सिलसिला नहीं थमा तो पहाड़ की बाकी नदियां भी सूख जाएंगी या फिर बरसाती नदियों में तब्दील हो जाएंगी। ऐसे हालात में न गंगा बचेगी न गोमुख बचेगा। उनका कहना कि सरकारें हिमालयवासियों के प्रकृति के साथ जीने के सदियों से चले आ रहे विज्ञान को समझें और उनके अनुरूप नीतियां बनाएं। हमें सड़कों के निर्माण से लेकर पर्यटन आदि सभी विकास योजनाओं में समझनी होगी। समय का तकाजा है कि अब संपूर्ण हिमालयी राज्यों के लिए केंद्र में पृथक मंत्रालय बनना चाहिए। विश्वविद्यालयों और सार्वजनिक उपक्रमों की मदद से अनुसंधान एवं विकास की परियोजनाएं चलनी चाहिए। जिससे गांव कस्बे के कालेज भी अनुसंधान और विकास के काम में युवाओं को जोड़ सकें। हिमालयवासी भी पारिस्थितिकी तंत्र का महत्वपूर्ण हिस्सा है कि हिमालयवासियों और राज्य में काम करने वाली सरकारी और गैरसरकारी एजेंसियों को पर्यावरण संरक्षण के लिए अधिक संवेदनशील होकर धरातल पर काम करना होगा।
सबसे पहले राज्य और केंद्र सरकार को हिमालयवासियों को भी पारिस्थितिकी तंत्र का महत्वपूर्ण हिस्सा मानना चाहिए। जिसमें केंद्र और राज्य की विभिन्न योजनाओं के तहत रोपित पौधों की दस फीसदी संख्या भी जीवित नहीं है। इसका बड़ा कारण यह है कि हम पौधारोपण के बाद उनके संरक्षण पर ध्यान नहीं देते। उनके संरक्षण के लिए भी हमारे पास कोई योजना नहीं है। रोपित पौधे आग लगनेए सूखा पड़ने, पशु चरान, चुगान, सड़क निर्माण के चलते नष्ट हो रहे हैं। हिमालय के संसाधनों में स्थानीय लोगों को रोजगार देने की पर्याप्त क्षमता है, किंतु संसाधनों का सुनियोजित प्रबंधन नहीं हो पा रहा है। उन्होंने पशुपालन, जड़ी.बूटी उत्पादन और बागवानी को वैज्ञानिक एवं तकनीकी रूप से विकसित करने पर जोर दिया। 136 गांवों में फैला हुआ है। देवभूमि उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल और चमौली जिले के इन गांवों में हमने करीब 50 लाख पौधे रोपे। अब ये पहाड़ों पर आसमान चूमते हरे.भरे दरख्तों की शक्ल में सामने हैं, जिन्हें देखने देश.दुनिया के हजारों लोग आते हैं। मशहूर चिपको आंदोलन की प्रेरणा से उपजा यह एक ऐसा फल है, जिसे धरती ने अपनी सेवा के बदले प्रसादस्वरूप हम गांव वालाें को लौटाया। पानी के सैंकड़ों कुदरती स्रोत होने के बाद देवभूमि में लोग पानी की दिक्कत आ रही है। कुदरती स्रोतों को एक बार फिर से जगाने का काम किया है पहाड़ की नदियां ही गंगा की मां हैं।
आजादी से उत्तराखंड की 360 छोटी नदी, सरिताएं, देशभर में 12 लाख ताल समाप्त हो गए हैं। 2050 तक देश और विश्व में गंभीर जल संकट पैदा हो सकता है। पहाड़ में चाल.खाल जल संरक्षण का पारंपरिक विकल्प है। राज्य के आम निवासियों का इस प्राकृतिक विरासत को बचाए रखने में बहुत बड़ा योगदान है। मिट्टी और पानी को परदेस जाने से रोकने के लिए। कुछ सदियों का काम हैं। पहाड़ का पानी और जवानी बन कर ना रहे हकीकत मे इसमे अब अमल है।