डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
आजादी के सात दशक बीतने के बाद भी इस एक मात्र राज्य में पहाड़
के 12 हजार से अधिक गांव में अभी तक अंग्रेजों के जमाने का कानून
चल रहा है जिसे अब खत्म किय
उत्तराखंड में अब धीरे-धीरे पटवारी व्यवस्था को खत्म किया जा रहा है.
जिसके तहत तमाम राजस्व क्षेत्र को रेगुलर पुलिस के हवाले किया जा
रहा है ताकि, गांवों में भी कानून व्यवस्था मजबूत हो सके. साल 2023
में 1500 से ज्यादा गांवों को राजस्व पुलिस से हटाकर रेगुलर पुलिस
को दिए जाने का फैसला लिया गया था, लेकिन मामला कोर्ट पहुंच
गया.हालांकि, इससे पहले राज्य सरकार ने इस फैसले पर कैबिनेट में
मुहर लगा दी थी, लेकिन कुछ कानूनी पहलू के चलते इसे लागू करना
संभव नहीं हो पा रहा था. अब करीब 2 हजार गांवों को राजस्व पुलिस
से हटाकर रेगुलर पुलिस के हवाले करने के फैसले पर सरकार ने मुहर
लगा दी है. जिसके बाद इससे क्या फायदा और क्या नुकसान होगा?
इसकी चर्चाएं हो रही हैं. सरकार ने उत्तराखंड के 1,983 राजस्व गांवों
को नियमित पुलिस क्षेत्राधिकार में शामिल करने का बड़ा निर्णय लिया
है. सरकार की तरफ से जारी बयान में कहा गया है कि यह ऐतिहासिक
निर्णय है. इससे जनता का पुलिस पर भरोसा बढ़ेगा.इसके अलावा
सरकार का कहना है कि इससे ग्रामीण और सीमांत इलाकों में एक
सुरक्षित सामाजिक वातावरण बनेगा. साथ ही राज्य में पुलिस व्यवस्था
ज्यादा जवाबदेह और प्रभावी होगी. जिससे अपराधियों में डर और
जनता में विश्वास दोनों बढ़ेंगे. दरअसल, यह फैसला और काम इतना
आसान नहीं था. साल 2018 में नैनीताल हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को
आदेश दिया था कि प्रदेश से राजस्व पुलिस प्रणाली समाप्त कर रेगुलर
पुलिस को जिम्मेदारी सौंपी जाए. कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि
अपराध नियंत्रण और न्याय की दृष्टि से राजस्व पुलिस व्यवस्था
अप्रभावी साबित हो रही है. हालांकि, उस समय सरकार ने संसाधनों
और ढांचे की कमी का हवाला देते हुए इस पर तत्काल अमल नहीं किया
था, लेकिन अंकिता भंडारी हत्याकांड (सितंबर 2022) जैसे मामलों के
बाद राजस्व पुलिस व्यवस्था पर लगातार सवाल उठने लगे. जनता और
विपक्ष के बढ़ते दबाव के बाद अब जाकर सरकार ने इसे लागू करने का
मन बनाया है. राजस्व पुलिस प्रणाली की जड़ें ब्रिटिश शासन से जुड़ी
हुई हैं. अंग्रेजों ने पहाड़ी इलाकों में सीमित संसाधनों के चलते राजस्व
कर्मचारियों (पटवारी) को ही पुलिस की जिम्मेदारी सौंप दी थी. यह
व्यवस्था बाद में उत्तराखंड बनने के बाद भी कई इलाकों में जारी रही.
राजस्व पुलिस प्रणाली की जड़ें ब्रिटिश शासन से जुड़ी हुई हैं. अंग्रेजों ने
पहाड़ी इलाकों में सीमित संसाधनों के चलते राजस्व कर्मचारियों
(पटवारी) को ही पुलिस की जिम्मेदारी सौंप दी थी. यह व्यवस्था बाद
में उत्तराखंड बनने के बाद भी कई इलाकों में जारी रही. राजस्व पुलिस
के अधिकार क्षेत्र वाले गांवों में पटवारी ही जांच अधिकारी, रिपोर्ट
लेखक और अभियोजन की प्रारंभिक कड़ी होता था, लेकिन न तो उसके
पास पर्याप्त प्रशिक्षण था, न पुलिसिंग के लिए संसाधन. इसका नतीजा
ये हुआ कि समय के साथ जब अपराधों की प्रकृति बदली तो यह
व्यवस्था पिछड़ी और बेहद लचीली होती चली गई. वहीं, उत्तराखंड के
जानकार भी इस फैसले को राज्य हित में बता रहे हैं. उनका कहना है
कि 'राजस्व पुलिस के पास न फॉरेंसिक सहायता होती थी, न वायरलैस
सिस्टम, न ही आधुनिक जांच तकनीक. ऐसे में किसी केस की विवेचना
लंबी खिंच जाती थी और अपराधी को सबूत मिटाने का समय मिल
जाता था. ऐसे में यह काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था.' इसमें कोई
दो राय नहीं है कि राजस्व पुलिस की सीमाओं के कारण अपराधियों को
अक्सर जांच से बच निकलने का मौका मिल जाता था. राजस्व पुलिस
सिर्फ छोटे मामलों में प्राथमिकी दर्ज कर सकती थी. जबकि, संगीन
मामलों हत्या, बलात्कार, डकैती की जांच आदि रेगुलर पुलिस को
सौंपनी पड़ती थी. इस प्रक्रिया में कई बार महत्वपूर्ण सबूत या गवाह
प्रभावित हो जाते थे. जिससे केस कमजोर हो जाता था. इसके अलावा
राजस्व पुलिस के पास सीमित स्टाफ वेतन और कोई तकनीक या
कानूनी प्रशिक्षण नहीं होता था. कई बार पटवारी के पास एक साथ
राजस्व और पुलिस दोनों जिम्मेदारियां होती थी. जिससे न तो कानून
व्यवस्था मजबूत हो पाती थी, न ही प्रशासनिक काम. इस प्रक्रिया में
कई बार महत्वपूर्ण सबूत या गवाह प्रभावित हो जाते थे. जिससे केस
कमजोर हो जाता था. इसके अलावा राजस्व पुलिस के पास सीमित
स्टाफ वेतन और कोई तकनीक या कानूनी प्रशिक्षण नहीं होता था. कई
बार पटवारी के पास एक साथ राजस्व और पुलिस दोनों जिम्मेदारियां
होती थी. जिससे न तो कानून व्यवस्था मजबूत हो पाती थी, न ही
प्रशासनिक काम. उत्तराखंड पुलिसिंग मॉडल पूरे देश के लिए उदाहरण
बन सकता है. राजस्व पुलिस व्यवस्था की समाप्ति सिर्फ प्रशासनिक
सुधार नहीं, बल्कि सुरक्षा और न्याय व्यवस्था में शानदार परिवर्तन
लाएगा.फिलहाल, यह निर्णय प्रदेश की विकसित होती सामाजिक
संरचना और बढ़ते अपराध के स्वरूप को देखते हुए लिया गया है. अब
देखना यह होगा कि राज्य सरकार इस सुधार को जमीन पर किस गति
से उतार पाती है, लेकिन जानकार इसे सरकार का सही कदम मान रहे हैं
ग्रामीण इलाकों में लोग उम्मीद कर रहे हैं कि अब पुलिसिंग तेज और
निष्पक्ष होगी, लेकिन सवाल ये भी है कि क्या सरकार इन नए इलाकों
में थानों की संख्या, कर्मचारियों की तैनाती और तकनीकी संसाधनों की
उपलब्धता तत्काल सुनिश्चित कर पाएगी या नहीं? अदालत का दूसरी
बार आदेश आने के बाद तत्काल सम्पूर्ण पटवारी पुलिस व्यवस्था को तत्काल
समाप्त करना संभव नहीं हैं इसलिये सरकार चरणबद्ध तरीके से हस्तांतरण
प्रक्रिया शुरू कर रही है। अब देखना यह है कि राज्य सरकार 1225 पटवारी
सर्किलों के लिये इतने थानों और हजारों पुलिस कर्मियों का इंतजाम कैसे
करती है और कैसे पहाड़ी समाज वर्दीधारी पुलिस कर्मियों को गावों में सहन
करती है। वैसे भी राजस्व का काम ही बहुत कम है। खेती की 70 प्रतिशत से
अधिक जोतें आधा हेक्टेअर से कम हैं इसलिये ऐसी छोटी जोतों से सरकार
को कोई राजस्व लाभ नहीं होता। अगर पुलिसिंग का दायित्व छिन जाता है
तो समझो कि पहाड़ के पटवारी कानूनगो बिना काम के रह जायेंगे। इसके
साथ ही अल्मोड़ा का पटवारी ट्रेनिंग कालेज और राजस्व पुलिस के
आधुनिकीकरण पर लगाई गयी सरकारी रकम भी बेकार चली जायेगी।.
*लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में*
*कार्यरत हैं*