शंकर सिंह भाटिया
देहरादून। अट्ठारह साल पहले बने जिस राज्य का 85 प्रतिशत हिस्सा दिन प्रतिदिन जर्जर होता जा रहा है। गांव दर गांव खाली हो रहे हैं, जनशून्य हो रहे हैं, उस राज्य के सत्ताधीश बड़ी बेशर्मी से विकास की बुलंदियों तक पहुंचने का दावा कर रहे हैं, इसे सच कैसे माना जा सकता है? विकास का दावा करने वालों के सामने यह प्रश्न करना है कि क्या तीन हजार से अधिक स्कूल कालेजों, बीस आईटीआई, छह नवोदय विद्यालय बंद करना विकास की बुलंदियों को छूना है? क्या सिर्फ हरिद्वार, उधमसिंहनगर, देहरादून और नैनीताल का मैदानी हिस्सा ही उत्तराखंड है? एक विकसित उत्तराखंड और दूसरा जर्जर उत्तराखंड खड़ा करने वालों के सामने तो यह सवाल भी बेमानी है कि उत्तराखंड 18 साल बाद भी वयस्क हुआ है?
18 साल की उम्र में व्यक्ति वयस्क हो जाता है। 18 साल की उम्र पार करते ही हमारे देश में मत देने का अधिकार मिल जाता है। 9 नवंबर 2000 को स्थापित हुए उत्तराखंड राज्य को 9 नवंबर 2018 को 18 साल पूरे हो गए हैं। अर्थात उत्तराखंड अब एक वयस्क राज्य बन गया है, राज्य की सत्ता पर बैठा कोई सत्ताधीश यह नहीं कह सकता है कि उत्तराखंड एक नया-नवेला राज्य है। लेकिन इस राज्य के हालातों को देखकर नहीं लगता कि उत्तराखंड सचमुच में वयस्क हो गया है। राजे-रजवाड़ों के समय भी जब गद्दी पर बैठने वाला उत्तराधिकारी नाबालिग हो तो बालिग होने तक उसे किसी राजभक्त संरक्षक के संरक्षण में राज्य संचालन का मौका दिया जाता था। 18 साल के हो चुके उत्तराखंड में नहीं लगता कि यह राज्य अभी तक दिल्ली के संरक्षण से मुक्त हुआ है या फिर होने वाला है। उसे तो दिल्ली ही नहीं उत्तर प्रदेश के बोझ के नीचे भी दबा कर रखा गया है। उत्तराखंड की सीमा के अंदर उत्तर प्रदेश को कई अधिकार देकर उसका एक और संरक्षक खड़ा कर दिया गया है।
उत्तराखंड किस तरह से दिल्ली के संरक्षण और छत्रछाया में पल रहा है, बड़ा हो रहा है, इसका उदाहरण देखा जा सकता है। 1994 में एक विशाल आंदोलन उत्तराखंड के लिए लड़ा गया था, हालांकि 1952 से पहले से भी उत्तराखंड राज्य की मांग होती रही, लेकिन जब भाजपा ने इस राज्य का गठन किया तो एक क्षेत्र की पहचान जिस नाम से थी, उसे दरकिनार कर अपनी पार्टी का दिया हुआ नाम उत्तरांचल उस पर थोप दिया। तीन राज्यों का गठन एक साथ हुआ था, झारखंड और छत्तीसगढ़ को उनकी स्थायी राजधानी दे दी गई, उत्तराखंड राज्य की राजधानी एक कौने पर हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे देहरादून को अस्थायी तौर पर घोषित किया गया। राज्य की सुविधाओं को दरकिनार कर नेताओं की सुविधाओं का ध्यान रखते हुए अस्थायी राजधानी की घोषण की गई।
अन्य दो राज्यों के गठन के साथ ही भारतीय संविधान के अनुच्छेद तीन के अनुसार उनकी भौगोलिक सीमा के अंदर आने वाली चल-अचल संपत्तियों का नए बने राज्यों को अधिकार दे दिया गया, लेकिन उत्तराखंड की सीमा के अंदर चल-अचल परिसंपित्तयों पर मूल राज्य राज्य उत्तर प्रदेश को बहुत सारे अधिकार सौंप दिए गए, 18 साल बाद भी इस स्थिति में बहुत अधिक फर्क नहीं आया है। अभी भी उत्तराखंड की सीमा के अंतर्गत सिंचाई विभाग, उद्योग विभाग, परिवहन विभाग की जमीनें, कालागढ़ स्थित रामगंगा बैराज, हरिद्वार स्थित भीमगौड़ा बैराज, बनबसा स्थित लोहियाहैड बैराज, बहुत सारी नहरें, सिंचाई विभाग के हजारों रिहाइसी और कार्यालय भवन समेत तमाम परिसंपत्तियां यूपी के कब्जे में हैं। ये कैसा वयस्क राज्य है, जिसे वयस्क होकर भी नाबालिग की तरह संरक्षित किया जा रहा है?
सरकारें दावा करती हैं कि उत्तराखंड देश के छह सबसे अधिक प्रगति करने वाले राज्यों में शुमार है। प्रति व्यक्ति आय से लेकर प्रगति के मामले में उत्तराखंड उत्तरोत्तर आगे बढ़ रहा है। आंकड़े जरूर इसकी गवाही देते हैं, लेकिन सरकारों का यह दावा अर्द्धसत्य है। दरअसल सिर्फ दो जिले हरिद्वार, उधमसिंह नगर पूर्ण रूप से तथा देहरादून और नैनीताल के मैदानी हिस्से ही प्रगति की छलांग लगा रहे हैं। विकास के सारे आंकड़े इन्हीं जिलों का प्रतिनिधित्व करते हैं। पहाड़ उजड़ रहा है। पलायन से खाली हो रहा है। तीन हजार से अधिक स्कूल-कालेज, बीस आईटीआई, छह नवोदय विद्यालय बंद करने के हाल में जो निर्णय सरकार ने लिये हैं, वे इन्हीं पर्वतीय क्षेत्र के हैं। इस हालत में कोई यदि बेशुमार प्रगति का दावा करता हो वह झूठ के अलावा और कुछ नहीं बोल रहा है। उत्तराखंड दो हिस्सों में बट गया है, एक विकसित उत्तराखंड दूसरा जर्जर उत्तराखंड। पर्वतीय क्षेत्र जो लगातार जर्जर होता जा रहा है, उसी के विकास के लिए उत्तराखंड राज्य की मांग उठी थी। राज्य बनने के बाद उसी को दरबदर किया जा रहा है, उसके बाद भी विकास के दावे करना बेशर्मी की हद नहीं है?
उत्तराखंड ने इन 18 सालों में आठ मुख्यमंत्री देख लिए हैं, जिसमें से सिर्फ एक ने ही कार्यकाल पूर्ण किया है। सिर्फ मुख्यमंत्री पैदा करने वाले इस राज्य में मुख्यमंत्री दिल्ली की कठपुतली रहे हैं। हिमालयी राज्यों की एक बहुत बड़ी समस्या है भूमि प्रबंधन। जम्मू कश्मीर में भारतीय संविधान के धारा 370 के अंतर्गत भूमि के क्रय विक्रय पर कड़ा प्रतिबंध है। हिमाचल प्रदेश ने धारा 371 के के तहत अपने लिए ऐसे ही प्रावधान कर लिए हैं। उत्तराखंड में जब भूमि प्रबंधन के ऐसे ही कानून बनाने की आवश्यकता महसूस हो रही है, कोर्ट तक इस बारे में सवाल पूछ रहा है कि राज्य ने इस मामले में क्या किया है? विनिवेश बढ़ाने के नाम पर पहाड़ों की भूमि लुटाने का प्रबंध किया जा रहा है। यह निर्णय न तो किसी वयस्क राज्य के शासकों ने राज्य हित में लिया है, न ही इन 18 सालों के हालात देखकर इन्हें उचित कहा जा सकता है, बल्कि यह अभी भी किसी के इशारे पर हो रहा है। उत्तराखंड के शासकों की हिम्मत नहीं है कि राज्य के खिलाफ किसी इस तरह के निर्णय का वह विरोध कर सकें। इन हालात में उत्तराखंड वयस्क कहां हुआ है?