डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
अलसी या तीसी समशीतोष्ण प्रदेशों का पौधा है। रेशेदार फसलों में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। इसके रेशे से मोटे कपड़े, डोरी, रस्सी और टाट बनाए जाते हैं। इसके बीज से तेल निकाला जाता है और तेल का प्रयोग वार्निश, रंग, साबुन, रोगन, पेन्ट तैयार करने में किया जाता है। चीन सन का सबसे बड़ा उत्पादक देश है। रेशे के लिए सन को उपजाने वाले देशों में रूस, पोलैण्ड, नीदरलैण्ड, फ्रांस, चीन तथा बेल्जियम प्रमुख हैं और बीज निकालने वाले देशों में भारत, संयुक्त राज्य अमरीका तथा अर्जेण्टाइना के नाम उल्लेखनीय हैं। सन के प्रमुख निर्यातक रूस, बेल्जियम तथा अर्जेण्टाइना हैं। तीसी भारतवर्ष में भी पैदा होती है।
लाल, श्वेत तथा धूसर रंग के भेद से इसकी तीन उपजातियाँ हैं। इसके पौधे दो या ढाई फुट ऊँचे, डालियां बंधती हैं, जिनमें बीज रहता है। इन बीजों से तेल निकलता है, जिसमें यह गुण होता है कि वायु के संपर्क में रहने के कुछ समय में यह ठोस अवस्था में परिवर्तित हो जाता है। विशेषकर जब इसे विशेष रासायनिक पदार्थो के साथ उबला दिया जाता है। तब यह क्रिया बहुत शीघ्र पूरी होती है। इसी कारण अलसी का तेल रंगए वारनिश और छापने की स्याही बनाने के काम आता है। इस पौधे के एँठलों से एक प्रकार का रेशा प्राप्त होता है जिसको निरंगकर लिनेन एक प्रकार का कपड़ा बनाया जाता है। तेल निकालने के बाद बची हुई सीठी को खली कहते हैं, जो गाय तथा भैंस को बड़ी प्रिय होती है। इससे बहुधा पुल्टिस बनाई जाती है। आयुर्वेद में अलसी को मंदगंधयुक्त, मधुर, बलकारक, किंचित कफवात.कारक, पित्तनाशक, स्निग्ध, पचने में भारी, गरम, पौष्टिक, कामोद्दीपक, पीठ के दर्द ओर सूजन को मिटानेवाली कहा गया है।
गरम पानी में डालकर केवल बीजों का या इसके साथ एक तिहाई भाग मुलेठी का चूर्ण मिलाकर, क्वाथ काढ़ा बनाया जाता है, जो रक्तातिसार और मूत्र संबंधी रोगों में उपयोगी कहा गया है। युनानी में वैद्य अंतर्गत जखमो पर बीजों का सेवन करने के लिए कहा जाता है। तो इन बीजों का गजकर्णादी उपयोग त्वचारोगो पर बाह्योपचार से करते हैं। चूना में मिलाकर तेल लगाने से त्वचा जली तो यह फायदेमंद उपाय है। अलसी में ओमेगा.३ इस मेदाम्ल का अनुपात लगभग ५८ प्रतिशत है। इस कारण हृदय को रक्त पहुंचाने वाली वाहिन्या अकु़चित होती नहीं अलसी यह रक्त के कॉलेस्टेरॉल का प्रमाण ९ से १८ प्रतिशत कम करती है। औषधि के तौर पर प्रयोग में आने वाले अलसी के तेल का अब सेवन भी किया जा सकता है। चमत्कारी गुणों से भरपूर यह तेल हृदय और मस्तिष्क से जुड़े रोगों के लिए अमृत जैसा काम करता है। कई वर्षों के जटिल शोध के बाद देश के प्रतिष्ठित भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों ने अलसी के तेल को खाने लायक बनाया है। कृषि और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारतीय वैज्ञानिकों की इस खोज को एक बड़ी उपलब्धि माना जा रहा है। सेहतमंद रहने और याद्दाश्त बढ़ाने के लिए अलसी के बीज का सेवन करने की सलाह डॉक्टर भी देते हैं। मगर अलसी का तेल खाने के तमाम तेलों से कहीं ज्यादा गुणकारी है।
स्वास्थ्यवर्धक खाद्य तेल के रूप में जैतून के तेल के गुणों से तुलना करें तो उसमें भी अलसी किसी मायने में कम नहीं हैण् देश के वैज्ञानिकों ने अलसी के तेल के इसी गुण को पहचानकर एक ऐसी प्रजाति विकसित की है, जिसका उपयोग खाने का तेल के रूप में बड़े पैमाने पर किया जा सकता है। अलसी की नई प्रजाति टीएल-99 देश के अग्रणी शोध संस्थान भाभा परमाण अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों ने विकसित की है और इसके गुणों का परीक्षण भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद आईसीएआर के विशेषज्ञों ने किया है। आईसीएआर के कृषि वैज्ञानिक बताते हैं कि अलसी के तेल में लिनोलेनिक एसिड ज्यादा 35 फीसदी से अधिक होने कारण यह खुले में ऑक्सीकृत हो जाता है। जिससे इस तेल को ज्यादा दिनों तक रखना मुश्किल हो जाता है। यही कारण है कि खाने के तेल के रूप इसका ज्यादा इस्तेमाल नहीं हो पाया। अलसी में ओमेगा-3 वसा अम्ल, मैग्नीशियम और विटामिन.बी पाया जाता है, इसीलिए डॉक्टर याददाश्त बढ़ाने के लिए इसका सेवन करने की सलाह देते हैं।
देश में पिछले फसल वर्ष में अलसी का उत्पादन 1.59 लाख टन था, जबकि आगामी रबी सीजन में सरकार ने इसका उत्पादन बढ़ाकर 2.03 लाख टन करने का लक्ष्य रखा है। आने वाले वर्षो में टीएल-99 प्रजाति का उत्पादन शुरू होने के बाद देश में खाने के तेल के तौर पर अलसी के तेल का उपयोग बढ़ेगा तो किसान इसकी खेती में और ज्यादा दिलचस्पी लेंगे, जिससे इसका उत्पादन भी बढ़ेगा। उत्तराखंड सरकार ने भी राज्यभर में लौटे राज्य के मजदूरों को स्वरोजगार उपलब्ध कराने की मुहिम में जुट चुकी है। इसका मकसद उत्तराखंड के उद्यमशील युवाओं और कोरोना की वजह से राज्य में लौटे प्रवासी कामगारों को स्वरोजगार के लिए प्रोत्साहित करना है। पर अभी भी काश्तकारों के मन में डर है कि जब तक हमें बाजार उपलब्ध नहीं होता तब तक हम ये काम शुरू भी कर लें तो कोई लाभ हमें दिखाई नहीं देता।
देश.दुनिया में आज बहुउपयोगी तिलहन पर पूरा जोर है। यही कारण भी है कि दुनिया में बहुउपयोगी तिलहन सेक्टर एक बड़े उद्योग के रूप में उभरा है। इस लिहाज से देखें तो उत्तराखंड में अलसी खेती की अपार संभावनाएं हैं साथ ही बच्चों से पर्यावरण संरक्षण में सक्रिय भागीदारी का आह्वान किया जाएगा। उत्तराखण्ड में ही सौ से भी अधिक ऐसी इकाइयाँ हैं, जो आयुर्वेदिक दवाइयाँ औषधीय पौधों से ही तैयार करती हैं। प्रोत्साहित के प्रयास से किसानों, उत्पादकों और व्यापारियों निर्यातकों को बेहतरीन अवसर मुहिम में जुट चुकी है पारंपरिक खेती की बजाय बहुउपयोगी तिलहन पौधों की खेती करने में कम खर्च में अधिक आमदनी तो होती है। देसी घी, कच्ची मूंगफली, सूरजमुखी, सरसों के तेल, राजमा और समुद्री मछली में ओमेगा-3 काफी मात्रा में होता है। नदियों में प्रदूषण बढ़ने के कारण स्थानीय मछलियों में अब उतना ओमेगा-3 नहीं रहा लेकिन समुद्री मछलियों में अब भी ओमेगा-3 की मात्रा ज्यादा होती है। अगर सब ठीक.ठाक रहा तो इस योजना के तहत उत्तराखंड को देश में बहुउपयोगी तिलहन राज्य की पहचान मिलने की प्रबल संभावना है।