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कई पौष्टिक तत्वों से भरपूर आलू बुखारा

22/11/19
in हेल्थ
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https://uttarakhandsamachar.com/wp-content/uploads/2025/11/Video-60-sec-UKRajat-jayanti.mp4

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
पहाड़, पानी, वनों का ही हिस्सा समझते हुए व्यवहार किया गया, जबकि हिमालय वेद पुराण के अनुसार तब भी आध्यात्मिक महत्त्व ज्यादा रखता था और आज भी उसी तरह से रखता है। हिमालय को हमेशा एक पूजनीय स्थल समझा गया और यही कारण है कि सभी तरह के देवी.देवताओं का यह वास बना। कोई भी धर्म हो, हिमालय उसका केन्द्र बना पहाड़ी क्षेत्रों देवभूमि उत्तराखंड में पाये जाने वाले पोष्टिक एवं औषधीय गुणों से भरपूर एक फल जिसे उत्तराखंड में अलूचा या आलू बुखारा अंग्रेजी नाम प्लम वानस्पतिक नाम प्रूनस डोमेस्टिका एक पर्णपाती वृक्ष है। इसके फल को भी अलूचा या प्लम कहते हैं। फल, लीची के बराबर या कुछ बड़ा होता है और छिलका नरम तथा साधरणतः गाढ़े बैंगनी रंग का होता है। गूदा पीला और खटमिट्ठे स्वाद का होता है। भारत में इसकी खेती बहुत कम होती है, परंतु अमरीका आदि देशों में यह महत्वपूर्ण फल है।
आलूबुखारा भी एक प्रकार का अलूचा है, जिसकी खेती बहुधा अफगानिस्तान में होती है। अलूचा का उत्पत्तिस्थान दक्षिण.पूर्व यूरोप अथवा पश्चिमी एशिया में काकेशिया तथा कैस्पियन सागरीय प्रांत है। इसकी एक जाति प्रूनस सैल्सिना की उत्पत्ति चीन से हुई है। यह मूलतः यूरोप तथा पश्चिमी एशिया में प्राप्त होता है। भारत में विशेषतः पश्चिमी शीतोष्ण हिमालय के जम्मू एवं कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड तथा दक्षिण भारत में नीलगिरि के पहाड़ी क्षेत्रों में १५००-२१०० मीटर की ऊंचाई पर उत्त्पन्न होता है। इसके फल गोलाकार तथा चमकदार होते हैं। इसके कच्चे फल खट्टे तथा पके फल खट्टे.मीठे होते हैं, फलों के भीतर पीला गूदा तथा एक बड़ा बीज होता है। इसके वृक्ष से एक प्रकार का पीले रंग का गोंद निकलता है, जो बबूल के गोंद के सामान दिखाई देता है। इसके फल में प्रोटीन, कार्बोहायड्रेट, वसा, कैल्शियम, मैग्नीशियम, लौह, पोटैशियम, विटामिन तथा आर्गेनिक अम्ल भी पाया जाता है बीज में तेल, प्रोटीन, कार्बोहायड्रेट, खनिज एवं एमीग्लैडीन पाया जाता है। इसका जैम बनता है।
आलू बुख़ारा एक गुठलीदार फल है। आलू बुख़ारे लालए कालेए पीले और कभी.कभी हरे रंग के होते हैं। आलू बुख़ारों का ज़ायका मीठा या खट्टा होता है और अक्सर इनका पतला छिलका अधिक खट्टा होता है। इनका गूदा रसदार होता है और इन्हें या तो सीधा खाया जा सकता है या इनके मुरब्बे बनाए जा सकते हैं। इनके रस पर खमीर उठने पर आलू बुख़ारे की शराब भी बनाई जाती है। सुखाए गए आलू बुख़ारों को बहुत जगहों पर खाया जाता है और उनमें ऑक्सीकरण रोधी ऐन्टीआक्सडन्ट पदार्थ होते हैं जो कुछ रोगों से शरीर को सुरक्षित रखने में मददगार हो सकते हैं। आलू बुख़ारों की कई क़िस्मों में कब्ज़ का इलाज करने वाले यानि जुलाब के पदार्थ भी होते हैं। यह खटामिट्ठा फल भारत के पहाड़ी प्रदेशों में होता है। अलूचा के सफल उत्पादन के लिए ठंडी जलवायु आवश्यक है। देखा गया है कि उत्तरी भारत की पर्वतीय जलवायु में इसकी उपज अच्छी हो सकती है।
मटियार, दोमट मिट्टी अत्यंत उपयुक्त है, परंतु इस मिट्टी का जलोत्सारण ड्रेनेज उच्च कोटि का होना चाहिए। इसकी सिंचाई आड़ू की भांति करनी चाहिए। अलूचा का वर्गीकरण फल पकने के समयानुसार होता है १ शीघ्र पकनेवाला, जैसे अलूचा लाल, अलूचा पीला, अलूचा काला तथा अलूचा ड्वार्फ २ मध्यम समय में पकनेवाला, जैसे अलूचा लाल बड़ा, अलूचा जर्द तथा आलूबुखारा ३ विलंब से पकनेवाला, जैसे अलूचा ऐल्फा, अलूचा लेट, अलूचा एक्सेल्सियर तथा केल्सीज जापान।
अलूचा का प्रसारण आँख बाँधकर बडिंग द्वारा किया जाता है। आड़ू या अलूचा के मूल वृंत पर आंख बांधी जाती है। दिसंबर या जनवरी में १५.१५ फुट की दूरी पर इसके पौधे लगाए जाते हैं। आरंभ के कुछ वर्षों तक इसकी काट.छांट विशेष सावधानी से करनी पड़ती है। फरवरी के आरंभ में फूल लगते हैं। शीघ्र पकनेवाली किस्मों के फल मई में मिलने लगते हैं। अधिकांश फल जून.जुलाई में मिलते हैं। लगभग एक मन फल प्रति वृक्ष पैदा होता है। स्वाद में खट्टा.मीठा आलूबुखारा गर्मियों में आने वाला मौसमी फल है। इसमें बॉडी के लिए जरूरी पोषक तत्व जैसे मिनरल्स और विटामिन भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं। आलूबुखारा डायट्री फाइबर से भरपूर होता है, जिसमें सार्बिटॉल और आईसेटिन प्रमुख हैं। खासतौर पर यह फाइबर्स, शरीर के अंगों के सुचारू बनाते हैं और पाचन क्रिया को भी दुरूस्त करते हैं। इसके साथ ही यह सौंदर्य बढ़ाने के भी काम आता है। इसका इस्तेमाल तरह.तरह के लजीज पकवान बनाने में भी किया जाता है। आलू बुख़ारे पीले रंग के मिराबॅल आलू बुख़ारे अलूचा या आलू बुखारा अंग्रेजी नाम प्लम वानस्पतिक नाम प्रूनस डोमेस्टिका एक पर्णपाती वृक्ष है। इसके फल को भी अलूचा या प्लम कहते हैं। फल, लीची के बराबर या कुछ बड़ा होता है और छिलका नरम तथा साधरणतः गाढ़े बैंगनी रंग का होता है। गूदा पीला और खटमिट्ठे स्वाद का होता है। भारत में इसकी खेती बहुत कम होती है। परंतु अमरीका आदि देशों में यह महत्वपूर्ण फल है। आलूबुखारा प्रूनस बुखारेंसिस भी एक प्रकार का अलूचा है, जिसकी खेती बहुधा अफगानिस्तान में होती है। अलूचा का उत्पत्तिस्थान दक्षिण.पूर्व यूरोप अथवा पश्चिमी एशिया में काकेशिया तथा कैस्पियन सागरीय प्रांत है। इसकी एक जाति प्रूनस सैल्सिना की उत्पत्ति चीन से हुई है। इसका जैम बनता है। आलू बुख़ारा एक गुठलीदार फल है। आलू बुख़ारे लालए कालेए पीले और कभी.कभी हरे रंग के होते हैं। आलू बुख़ारों का ज़ायका मीठा या खट्टा होता है और अक्सर इनका पतला छिलका अधिक खट्टा होता है। इनका गूदा रसदार होता है और इन्हें या तो सीधा खाया जा सकता है या इनके मुरब्बे बनाए जा सकते हैं। इनके रस पर खमीर उठने पर आलू बुख़ारे की शराब भी बनाई जाती है। सुखाए गए आलू बुख़ारों को बहुत जगहों पर खाया जाता है और उनमें ऑक्सीकरण रोधी ;ऐन्टीआक्सडन्टद्ध पदार्थ होते हैं जो कुछ रोगों से शरीर को सुरक्षित रखने में मददगार हो सकते हैं। आलू बुख़ारों की कई क़िस्मों में कब्ज़ का इलाज करने वाले ;यानि जुलाब केद्ध पदार्थ भी होते हैं। यह खटमिट्ठा फल भारत के पहाड़ी प्रदेशों में होता है। अलूचा के सफल उत्पादन के लिए ठंडी जलवायु आवश्यक है। देखा गया है कि उत्तरी भारत की पर्वतीय जलवायु में इसकी उपज अच्छी हो सकती है आलूबुखारा एक स्वास्थवर्धक रसदार फल हैद्य इसमें मुख्य लवणए विटामिनए प्रोटीनए कार्वोहाडट्रेट आदि प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैद्य आलूबुखारा फल ताजे खाये जाते है और विभिन्न प्रकार के उत्पाद जैसे जैमए जैलीए चटनी एवं अच्छी गुणवत्ता वाली बरांडी बनायी जाती हैद्य बीज में पाये जाने वाले 40 से 50 प्रतिशत तेल का उपयोग सौन्दर्य प्रसाधनों में दवा के रूप में प्रयुक्त होता है भारत में इसकी खेती बहुत कम होती है परंतु अमरीका आदि देशों में यह महत्वपूर्ण फल है।
उत्तराखंड में इसकी खेती भी की जाती है। फल खाने से शरीर की कई सारी बीमारियों के निवारण होता है और शरीर में आवश्यक पोषकतत्व की भी पूर्ति होती है। ऐसी वनस्पतियों को यदि रोजगार से जोड़े तो शायद इसमें मेहनत भी कम हो सकती है क्योंकि यह स्वतः ही पैदा हो जाने वाली जंगली वनस्पति है। वही लोगों तथा सरकार द्वारा इनके आर्थिक महत्व पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है। यदि इन वहुउद्ेशीय पादपों के आर्थिक महत्व पर गहनता से कार्य किया जाता है तो पहाड़ो से पलायन जैसी समस्या से काफी हद तक निजात पाया जा सकता है।

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