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नहीं पढ़ीं बेटियां तभी तो नहीं लड़ पा रहीं चुनाव

24/11/25
in उत्तराखंड, देहरादून
Reading Time: 1min read
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https://uttarakhandsamachar.com/wp-content/uploads/2025/11/Video-60-sec-UKRajat-jayanti.mp4

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड में पांच जनजातियां मूल रूप से निवास करती हैं जिनमें थारू, बोक्सा, भोटिया, जौनसारी और वनराजी हैं. अन्य सभी को छोड़कर सिर्फ वनराजी जनजाति ही ऐसी है, जो अभी तक सबसे पिछड़ी और सबसे कम जनसंख्या वाली है. यह जनजाति उत्तराखंड के अंतरराष्ट्रीय सीमा पर स्थित पिथौरागढ़ और चम्पावत जिले के दूरस्थ जंगलों के बीच बसे गांवों में रहती है. इसके अतिरिक्त नेपाल के पश्चिम अंचल में भी इनके कुछ छोटे गांव बसे हैं,हालांकि इनकी सर्वाधिक आबादी पिथौरागढ़ जिले में ही है. जहां पर डीडीहाट, धारचूला और कनालीछीना विकासखंडों में इनके करीब 8-10 गांव हैं.वनराजी जनजाति जंगलों में रहने वाली जनजाति है, जिन्होंने अपना जीवन गुफाओं में बिताया है. अब धीरे-धीरे इनका रहन सहन तो अन्य लोगों जैसा होने लगा है लेकिन अभी भी यह जनजाति विकास की मुख्यधारा से कोसों दूर है. पांच जनजातियों में से सबसे कम जनसंख्या वाली इस जनजाति के संरक्षण के लिए तमाम संगठन प्रयास कर रहे हैं. इन पर हुए शोध के अनुसार इस जनजाति के लोगों की औसत आयु 50 से 55 साल है.प्रदेश भले ही अपना रजत जयंती वर्ष मना रहा है, लेकिन आज भी वनराजी समुदाय के लोग मुख्यधारा में नहीं आ पाए हैं. खेतार कन्याल गांव में केवल एक महिला का आठवीं पास होना, इनकी शिक्षा का प्रत्यक्ष प्रमाण है. पुरुष भी गिने चुने ही शिक्षित हैं. खेतार कन्याल ग्राम पंचायत में कुल 1095 मतदाता हैं. इनमें 60 महिलाएं और 53 पुरुष समेत कुल 113 वनराजी मतदाता हैं. प्रदेश में करीब 300 वनराजी परिवार रहते हैं. पिथौरागढ़ के अलावा चंपावत और ऊधम सिंह नगर में भी कुछ वनराजी परिवार निवासरत हैं. उत्तराखंड के सीमांत जिले पिथौरागढ़ में वनराजी (वनरावत) धीरे धीरे कम होते जा रहे हैं. वनराजि जनजाति सरकारी नियमों के कारण दुविधा में फंसी है. कुनबा बढ़ाएं तो भी मुश्किल और पंचायत चुनाव लड़ना चाहें तो भी मुश्किल. दो बच्चों और आठवीं पास होने की अनिवार्यता ने इस बेहद कम संख्या वाली जनजाति को लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रतिनिधित्व से लगभग बाहर कर दिया है. अनुसूचित जनजाति के गांव में वनराजी परिवार रहते हैं, इसलिए उन्हीं के बीच से ग्राम प्रधान बनना था. लेकिन चुनाव लड़ने की पात्रता पूरी न कर पाने से एक भी नामांकन नहीं हो पाया. 20 नवंबर को दोबारा उपचुनाव हुए, तो फिर सीट खाली रह गई. पहले तो गांव में आठवीं पास वनराजी महिला नहीं मिली. लंबी जद्दोजहद के बाद पुष्पा नाम की एक महिला आठवीं पास मिली. लेकिन उनके पांच बच्चे हैं.  पंचायत चुनाव लड़ने के लिए प्रत्याशी के वर्ष 2019 के बाद दो से अधिक बच्चे नहीं होने चाहिए. वनराजी समुदाय के लोग बेहद शर्मीले स्वभाव के होते हैं. वर्ष 2005 से पहले तक ये लोग आबादी से दूर रहना पसंद करते थे. तब जंगलों में उढ्यार (गुफाएं) ही इनका रहने का ठिकाना हुआ करती थीं. धीरे-धीरे ये लोग आम लोगों से घुलने-मिलने लगे हैं. वर्तमान में पिथौरागढ़ जिले के जौलजीबी और इसके आसपस के गांवों में यह लोग मजदूरी, खेतों में काम, पशुपालन करने लगे हैं. वनराजी न सिर्फ प्रदेश में बल्कि देश में भी सबसे कम जनसंख्या वाली जनजाति है.  वनराजी या वनरावत जनजाति जंगलों में रहने वाली जनजाति है. इन्होंने अपनी कई पीढ़ियां गुफाओं में रहकर बिताई हैं. हालांकि अब ये अन्य लोगों जैसा रहन सहन अपनाने लगे हैं, लेकिन उसकी रफ्तार बहुत धीमी है. इस कारण ये जनजाति विकास की मुख्यधारा से अभी भी कोसों दूर है. पिथौरागढ़ जिले के डीडीहाट, धारचूला और कनालीछीना ब्लॉकों में इनके करीब 8 से 10 गांव हैं. इनमें से ज्यादातर के पास सरकारी योजनाओं का लाभ लेने के लिए कोई सरकारी कागज भी नहीं है. इनकी साक्षरता दर काफी कम है, इस कारण सरकार द्वारा नौकरी में दिए गए आरक्षण का लाभ ये नहीं ले पाते हैं. प्रदेश में वन रावत व वन राजी जनजाति का अस्तित्व खतरे में है,और इस जनजाति की जनसंख्या लगातार घटती जा रही है. जिसकी वर्तमान जनसंख्या सिमट कर अब लगभग 900 रह गयी है. इस जनजाति के लोगों के पास बुनियादी सुविधायें तक अब नहीं रही हैं. इनके स्वास्थ्य, शिक्षा और रहने खाने के लिये कोई उचित प्रबंध नहीं हैं. इनकी शिक्षा के लिये कोई प्रबंध नहीं है.यह जनजाति विलुप्ति के कगार पर पहुंच गयी है. सरकार इस जनजाति के वजूद को बनाये रखने के लिये कोई ठोस योजना नहीं बना रही है. जनहित याचिका में कोर्ट से प्रार्थना की गई कि सरकार उनके अस्तित्व को बचाये रखने के लिए मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराएं. सुनवाई पर सरकार की ओर से कहा गया बुनियादी सुविधायें मुहैया करा रही है. वनराजी समुदाय की बोली और भाषा उत्तराखंड में बोले जाने वाली मुख्य भाषा से काफी अलग है. बावजूद इसके इस समुदाय के बच्चे मुख्यधारा में शामिल होने के लिए न सिर्फ 5-6 किलोमीटर पहाड़ से उतरकर सड़क पर आते हैं. बल्कि सड़क मार्ग से कई किलोमीटर चलकर पढ़ाई करने जाते हैं. इसके अलावा वनराजी जनजाति को शिक्षा दिए जाने के लिए दो जगहों पर आवासीय विद्यालय भी बनाया गया है. जहां बच्चे रहकर पढ़ाई करते हैं. बबीता ने बताया कि उन्हें और उनके परिजनों को वहां रहने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. क्योंकि, उनके परिजनों को राशन लेने के लिए काफी दूर जाना पड़ता है. इसके बाद सड़क से करीब 6 किलोमीटर ऊपर पहाड़ी पर राशन ले जाना पड़ता है. समाज सेविका रेनू ठाकुर ने बताया कि मेरा उद्देश्य इस निर्बोध, निरीह और विलुप्त होती जनजाति को जानकारी देकर सक्षम बनाना था। लड़ाई इस समाज के अधिकारों की थी। इसकी अगुवाई भी समाज के ही लोग करें इसका प्रयास था जो सफल रहा। सभी परिवारों को भूमि और उनके अधिकार दिला कर ही चैन मिलेगा।पिथौरागढ़ जिले में करीब 1500 लोग ही इस जनजाति में हैं. साक्षरता दर भी इस जनजाति के लोगों में काफी कम है, जिस वजह से सरकार ने इन्हें सरकारी नौकरी में विशेष आरक्षण तो दे रखा है लेकिन उसका फायदा भी इन्हें नहीं मिल पाता है. जंगलों के बीच गांव बनाकर रहने वाले यह लोग स्वास्थ्य, सड़क, शिक्षा, रोजगार जैसी मूलभूत सुविधाओं से कोसों दूर हैं और सरकार की तमाम जनकल्याणकारी योजनाएं भी यहां धरातल पर कम ही दिखाई देती हैं. वनराजी जनजाति के संरक्षण को आगे आई जौहार सांस्कृतिक समिति डीडीहाट के सचिव ने जानकारी देते हुए बताया कि वनराजी जनजाति के तमाम परिवारों को अभी तक आरक्षित जनजाति का सर्टिफिकेट भी नहीं मिल पाया है. सरकार की जितनी भी योजनाएं इस जनजाति के लोगों के लिए चली हुई हैं, उनका लाभ इन्हें नहीं मिल पाया है. वहीं लगातार घट रही इनकी जनसंख्या के कारण बताते हुए उन्होंने वनराजी जनजाति को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने की मांग की है. अगले पंचायत चुनाव तक संभव था कि इस गांव की भी कुछ युवतियां आठवीं – दसवीं पास हो जाती और इस बार पंचायत चुनाव में जनजाति की महिला सीट आरक्षित होकर महिलाओं के लिए 8वीं पास उम्मीदवार न मिलने की परेशानी न होती लेकिन स्कूल मर्ज होने से बेटियों के शिक्षा का सफर आसान नहीं लगता है. पहले यहां वनराजी आवासीय विद्यालय संचालित किया जाता था जिसमें लगभग 65 बच्चे अध्ययनरत थे लेकिन साल 2010 में उसके बंद होते ही 65 बच्चों के सामने स्कूली शिक्षा को पूरा करने का संकट आया और ज्यादातर स्टूडेंट्स को घर ही बैठना पड़ा. इस तरह सरकारी सिस्टम के सामने सवाल खड़ा होता है कि अगर इस तरह ही स्कूल बंद होते रहे तो कैसे अपनी क़ई पीढ़ियों को गुफाओं में बिताने वाली वनराजी जनजाति की आने वाली भावी पीढ़ी और जनजाति के बच्चों को मुख्यधारा से जोड़ा जा सकेगा? *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं*

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