डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड में इस बार सेब का उत्पादन पिछले सालों की तुलना में 25 फीसद ज्यादा हुआ है। पिछले साल तक जहां राज्य में लगभग साठ हजार मीट्रिक टन सेब हुआ था। वहीं इस बार उत्पादन अस्सी हजार से ज्यादा है। ज्यादा उत्पादन के पीछे दो कारण है। एक सर्दियों में गोल्डन और रेड डिलिसियस प्रजाति को अच्छी बर्फबारी से ज्यादा चिलिंग मिली। वहीं इस बार डिलिसियस समेत स्पर प्रजाति के सेब के पेड़ों को एंटी हेलनेट से ढका गया था। जिससे ओलावृष्टि होने पर भी उत्तराखंड के सेब खराब नहीं हो सके। भारत में तीन राज्यों में सेब का उत्पादन होता है। इसमें कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड है। नॉर्थ ईस्ट के भी कुछ राज्यों में सेब होता है, लेकिन वो बहुत कम है।
कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड में भी सबसे ज्यादा सेब जम्मू कश्मीर में होता है। भारत का कुल 24 लाख टन सेब उत्पादन का साठ फीसद कश्मीर में होता है। उसके बाद हिमाचल का नंबर आता है। जहां हर साल ढाई करोड़ पेटी सेब देश और विदेश की मंडियों में जाता रहा है। उसके बाद उत्तराखंड हैं। जहां मुख्य रूप से चार जिलों देहरादून, उत्तरकाशी, अल्मोड़ा और नैनीताल में सेब के बगीचे हैं। उत्तराखंड में पिछले साल तक 62, 407 मीट्रिक टन सेब उत्पादन हुआ है। लेकिन इस बार ये अस्सी हजार मीट्रिक टन तक चला गया है। राज्य में इस बार टिहरी जिले के प्रतापनगर में भी सेब का अच्छा उत्पादन हुआ है। यहां पर सेब की प्राइमर और रॉयल डिलिसियस प्रजाति होती है। जबकि टिहरी में धनोल्टी से दस किमी चंबा की तरफ काणाताल में भी इस बार सेब की अच्छा पैदावार हुई है। इसी तरह पौड़ी के भरसार में भी सेब पहले के मृुकाबले ज्यादा और मीठा हुआ है। देहरादून और उत्तरकाशी के सेबों को मंडी तक पहंुचाने की व्यवस्था है। जबकि टिहरी, अल्मोड़ा, पौड़ी और पिथौरागढ़ में सेब को काश्तकार सीधे बेच रहे हैं। यहां सेब साठ रुपये किलो से सत्तर रुपये किलो तक बेचे जा रहे हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था में गहरी मंदी के बीच दुनियाभर के देशों में राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन को खोलने का दबाव बढ़ रहा है। ऐसे में स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि लॉकडाउन की ढील मिलते ही कोरोना प्रसार में नाटकीय रूप से विस्तार हो सकता है।
उधर, रविवार को कुछ देशों में कोरोना के प्रसार में कमी तो कई देशों ने चिंताजनक स्थिति में प्रसार देखा गया है। किसानों को राहत देने के लिए उत्तराखंड में वर्ष 2012 में अपणु बाजार की शुरुआत की गई थी। देहरादून, पौड़ी, चमोली व नैनीताल जिलों में नौ स्थानों पर अपणु बाजार तैयार किए गए। इनमें भी मंडियों की तरह स्टाल बनाकर किसानों को उपलब्ध कराए गए गए। इस पहल के मिले.जुले परिणाम सामने आए। हालांकि इन चार जिलों के बाद मुहिम आगे नहीं बढ़ पाई। अब जबकि किसानों से मंडियों में लिए जाने वाले मंडी शुल्क को खत्म कर दिया गया है तो किसान कहीं भी अपने उत्पादों को बेच सकता है। ऐसे में उसे गांव के नजदीक ही बाजार उपलब्ध हो जाए तो उसे फल.सब्जी जैसे उत्पादों की बिक्री को इधर.उधर जाने के झंझट से निजात मिलेगी। यानी मंडी अथवा बाजारों तक उत्पाद ले जाने के लिए परिवहन में आने वाला खर्च भी बचेगा। इसे देखते हुए सरकार ने अब अपणु बाजार को किसान बाजार के रूप में तब्दील करने का निश्चय किया है।
कृषि एवं उद्यान मंत्री सुबोध उनियाल के अनुसार पहले से तैयार अपणु बाजारों को किसान बाजार के तौर पर विकसित कर वहां किसानों को भंडारण समेत अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएंगी। किसान बाजार में किसानों को क्या.क्या सुविधाएं दी जा सकती हैंए इस संबंध में प्रस्ताव तैयार करने के निर्देश अधिकारियों को दिए गए हैं। लिए उप्र में किसान बाजारों में उपलब्ध कराई गई सुविधाओं का अध्ययन करने को भी कहा गया है। लॉकडाउन खुलने के बाद इस दिशा में कदम बढ़ाए जाएंगे। दून की बात करें तो यहां अभी तीन बाजारों के लिए जगह निश्चित हुई है। सात और अपने बाजार अभी यहां खोले जाने बाकी हैं। कृषि उत्पादन मंडी परिषद की है। परिषद के सचिव के अनुसार अभी तक बाजार की व्यवस्था न होने के चलते किसानों को उनके उत्पादों का उचित मूल्य नहीं मिल पा रहा था उसके पास इनकी मार्केटिंग के लिए भी कोई जगह नहीं थी, लिहाजा उसके उत्पाद औने.पौने में निकल रहे थे।
अपने बाजारों के बन जाने से उसके पास अपने उत्पादों को सही ग्राहक तक पहुंचाने के लिए एक स्थान होगा। यह बाजार किसानों को आगे बढ़ाने में मददगार साबित होंगे। इसके साथ ही ग्राहकों को भी एक छत के नीचे कई उत्पाद हासिल हो सकेंगे।। इस बीच हैरानी की बात तो ये भी है कि आधुनिकता की इस दौड़ में हम लगातार इन उत्पाद अनमोल संपदाओं को भूलते जा रहे हैं। ढांचागत अवस्थापना के साथ बेरोजगारी उन्मूलन की नीति बनती है तो यह पलायन रोकने में कारगर होगी। कुल मिलकर पर्वतीय राज्य की जिस अवधारणा के साथ उत्तराखण्ड राज्य की लड़ाई लड़ी गयी थी वह धरातल से कोसों दूर ही है। पलायन ने हिमालयी राज्य की अवधारणा को ध्वस्त कर दिया है। 20 साल पहले राज्य बना लेकिन परंपरागत पर्वतीय जनजीवन की खुशहाली के लिए कुछ भी ठोस दिशा नीति तय नहीं की गई। चूंकि उत्तराखंड उत्तर प्रदेश के पर्वतीय हिस्सों को अलग करके एक पर्वतीय राज्य बनाया गया लेकिन व्यावहारिक तौर पर पर्वतीय प्रदेश की जीवन पद्धति के हिसाब से विकास का आधारभूत ढांचा बनाने के बारे में सिर्फ जुबानी जमा खर्च होता रहा। असल में अतीत से ही इस संवेदनशील पर्वतीय अंचल की समस्याएं बाकी उत्तर प्रदेश से एकदम जुदा थीं। लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि राज्य बनने के बाद यहां बदला कुछ भी ज्यादा नहीं। देहरादून में राजधानी उत्तर प्रदेश की राजधानी के एक्सटेंशन कांउटर की तरह काम कर रही है। निर्वाचन आयोग विधानसभा क्षेत्रों की परीसीमन प्रक्रिया को आबादी के घनत्व के हिसाब से ही पूरा करेगा तो पर्वतीय हिस्सों पर्वतीय की विधानसभा क्षेत्रों में लोकतंत्र का बुनियादी ढांचा सबसे गम्भीर समस्या है।












