डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
अर्जुन वृक्ष एक औषधीय वृक्ष है। इसे धवल, ककुभ तथा नदीसर्ज भी कहते हैं। कहुआ तथा सादड़ी नाम से बोलचाल की भाषा में प्रख्यात यह वृक्ष एक बड़ा सदाहरित पेड़ है। लगभग 60 से 80 फीट ऊँचा होता है तथा हिमालय की तराई, शुष्क पहाड़ी क्षेत्रों में नालों के किनारे तथा बिहार, मध्य प्रदेश में काफी पाया जाता है अर्जुन का पेड़ एक ऐसा पेड़ है जिसकी छाल को औषधि की तरह प्रयोग किया जाता है। अर्जुन के पेड़ को धवल, ककुभ तथा नदीसर्ज आदि नामों से भी जाना जाता है। इस पेड़ की छाल को धूप में सुखाकर पाउडर बनाया जाता है और उसके बाद इसके पाउडर का प्रयोग कई रोगों के उपचार में करते हैं।
अर्जुन के पेड़ की छाल के कई फायदे हैं। रूद्राक्ष के लिए भले ही मध्य प्रदेश के रीवा में आदर्श जलवायु न हो, लेकिन यहां वन अनुसंधान वृत्त के वनपस्पति वैज्ञानिकों ने एक बार फिर दुर्लभ परीक्षण कर सबको चौंका दिया है। जी हां ज्योतिष शास्त्र व ग्रहों की महादशा के बीच में ख्याति प्राप्त एक मुखी रूद्राक्ष की पैदावार बेहद कम होती है। बता दें कि सार्वधिक रूद्राक्ष के वृक्ष नेपाल में हैं। जहां दो मुखी, तीन मुखी, पंच मुखी, सात मुखी रूद्राक्ष बहुतायत में पाए जाते हैं। वहीं बाजार व स्वर्णकारों की दुकानों में एक मुखी रूद्राक्ष की कीमत 5100 रुपए से लेकर 51000 रुपए तक होती है। विपरीत जलवायु में एक मुखी रूद्राक्ष पैदा करने का दावा चर्चा का विषय बना हुआ है। अनुसंधान वृत्त रीवा में एक अर्जुन नामक वृक्ष के कलम पर रूद्राक्ष के पेड़ों को क्रास किया गया है। जो कि विपरीत जलवायु में भी अपनी समय सीमा में न केवल बढ़ेगी बल्कि फूले और फलेगी भी। वन परिक्षेत्र अधिकारी केएस डाबर ने बताया कि अर्जुन के पेड़ पर रूद्राक्ष का रोपण क्षेत्र में पहली बार इसलिए किया गया है कि जिससे इस रूद्राक्ष के पेड़ पर जलवायु का असर न पड़े।
अब तक यह प्रयोग सफल रहा है। जिससे तकरीबन 500 पौधे तैयार किए जा रहे हैं। कृषि यंत्र, मकान, चाय की पेटी आदि बनाने के काम आता है। यह अच्छे जलावन लकडी तथा चारा के रूप में उपयोग होता है। रेशम के कीट इसमे पलते है। छाल का उपयोग औषधि बनाने में इस्तेमाल होता है। यह सडकों के किनारे छाया या शोभा के लिए लगाया जाता है। ग्रंथों में हृदयरोग की चिकित्सा का विशद् वर्णन किया गया है। इनमें कफज हृदयरोग की चिकित्सा के लिए अर्जुन वृक्ष की छाल का प्रयोग बताया गया है। पित्तज हृदय रोग के लिए वृक्ष की छाल को चूर्ण दूध में उबाल कर पीने की बात कही गई है। बंगसेन के अनुसार अर्जुन छाल के चूर्ण एवं गेहूं का चूर्ण बराबर मात्रा में बकरी के दूध तथा गाय के घी में उबाल कर शहद के साथ लेने से हृदय रोग में लाभ पहुंचता है। अर्जुन एक सदाबहार वृक्ष है, जिसकी ऊंचाई 60-80 फुट तक होती है। इसका तना मोटा एवं शाखाएं तने के चारों ओर फैली रहती हैं। इसके पत्ते 10-15 सेण्मीण् लम्बे, 47 सेण्मीण् चौड़े तथा विपरीत क्रम में लगे होते हैं। फूल सफेद तथा फल, 1.2 इंच लम्बे होते हैं। फलों में पंख के आकार के पांच उभार होते हैं। इसकी छाल बाहर से चमकीली सफेद व अन्दर से गहरे गुलाबी रंग की होती है। अर्जुन वृक्ष सामान्यतः उत्तर प्रदेश के तराई के भागों व बिहार के दक्षिण में छोटा नागपुर, दक्कन के पठारी भाग, बर्मा तथा श्रीलंका में काफी संख्या में पाए जाते हैं। इसकी लगभग 15 किस्में पाई जाती हैं। शक्ति प्रदायक के रूप में प्रतिष्ठित होने के कारण संस्कृत में इसका नाम अर्जुन रखा गया। तना सफेद होने के कारण इसे धवला भी कहा गया है। इसे वीरवृक्ष के नाम से भी पुकारा जाता है। इसका वानस्पतिक नाम टरमिनालिया अर्जुना है। रासायनिक विश्लेषण द्वारा वृक्ष के विभिन्न भागों के संगठन का पता लगाया गया है।
इसकी छाल में टैनिन 20.24 प्रतिशत तक पाया गया है। इसके अतिरिक्त छाल में से बीटा.सिटोस्टीरॉल, इलेजिक एसिड तथा एक ट्राईहाड्राक्सी.ट्राइटरपीन मोनो कार्बोक्सिलिक एसिड, अर्जुनिक एसिड विलगित किया गया है। इसके फलों में भी 7.20 प्रतिशत तक टैनिन पाया गया है। इसके पेट्रोलियम ईथर निष्कर्ष में कार्बनिक लवण तथा बीटा सिटोस्टीराल पाए गए हैं। जल में अघुलनशील भाग से अर्जुनिक अम्ल तथा घुलनशील भाग में मैनिटॉल, टैनिन तथा पर्याप्त मात्रा में पोटेशियम लवण प्राप्त किए गए हैं। पत्तियों में प्रोटीन 10 प्रतिशत, रेशे 7.8 प्रतिशत, अपचायी शर्करा 4.3 प्रतिशत, कुल शर्करा 5.75 प्रतिशत, स्टार्च 11 प्रतिशत तथा खनिज लवण 7 प्रतिशत पाए गए हैं। अर्जुन वृक्ष की छाल तीक्ष्ण होती है तथा इसमें ज्वरनाशक, पेचिश निवारक, स्तम्भक, मूत्रल आदि औषधीय गुण पाए जाते हैं।
अत्यधिक चोट जनित विभंजन तथा नील युक्त चोट की हालत में इसका दूध के साथ सेवन लाभदायक होता है। मानसिक तनाव में इसके चूर्ण का सेवन राहत देता है। लिवर सिरोसिस में यह स्वास्थ्य वर्द्धक टॉनिक के रूप में प्रयुक्त होता है। इसका क्वाथ छालों, व्रण, अल्सर आदि को धोने के काम आता है। वृक्ष के फल विष अवरोधक एवं टॉनिक होते हैं। ताजी पत्तियों का स्वरस कान दर्द में प्रयोग किया जाता है। वृक्ष की मुलायम टहनियां कुछ आदिवासियों द्वारा मुंह के अल्सर तथा उदावर्त के इलाज में प्रयोग की जाती है। अर्जुन वृक्ष की छाल हृदय की संकुचन शक्ति को बढ़ाती है। इसमें विद्यमान कैल्शियम लवण हृदय के अन्दर उपस्थित कैल्शियम चैनल को अवरुद्ध कर हृदय की धड़कन को सामान्य बनाता है तथा हृदय को शक्ति प्रदान करता है। कुत्तों पर किए गए परीक्षणों से पता चलता है कि अर्जुन के छाल से उपचारित करने पर हृदयघात से उत्पन्न घाव जल्द ठीक हो जाता है। इसके द्वारा रक्त कोलेस्ट्रॉल के स्तर में कमी दर्ज की गई है। अर्जुन छाल का सेवन करने वालों में कोलेस्ट्रॉल के अतिरिक्त रक्त शर्कराए कैटाकोलामिन के बढ़े हुए स्तर में उल्लेखनीय कमी पाई गई। एंजाइना के दर्द से प्रभावित रोगियों के दर्द में धीरे.धीरे कमी तथा इसकी आवृति में भी कमी दर्ज की गई।
इसके सेवन से वजन में कमी तथा रक्तचाप पर नियंत्रण पाया गया। वृक्ष की छाल में उपस्थित वसा, अम्ल, प्रोस्टोग्लैडिन के निर्माण में सहायक होती है। अतः इसके सेवन से रक्त में प्रोस्टोग्लैडिन ई.2 की मात्रा बढ़ जाती है। यह शरीर की रक्त वाहिनियों को फैला देता है, जिससे हृदय में आक्सीजन युक्त रक्त का संचार बढ़ जाता है। इससे एंजाइना के दर्द में लाभ होता है। खनिज लवणों की उपस्थिति रक्तावरोध दूर करने में सहायक होती है। इसका सेवन करने से एलण्डीण्एलण् कोलेस्ट्रॉल का स्तर कम तथा एचण्डीण्एलण् कोलेस्ट्रॉल का स्तर बढ़ा हुआ पाया गया है। अर्जुन का सेवन लिपिड चयापचय को ठीक कर हृदय रोग दूर करने में सहायक होता है। हृदयाघात से बचाव या हृदय रोग से मुक्ति के लिए इसकी छाल का प्रतिदिन सेवन लाभप्रद है। अर्जुन एक ही कुल के महत्वपूर्ण औषधीय वनस्पतियां हैं जो विभिन्न प्रकार के व्याधियों के उपचार में कारगर होती हैं। हर्रा एवं बहेड़ा के औषधीय गुण फलों में पाये जाते हैं जबकि इसके विपरीत अर्जुन के औषधीय गुण तने के छाल में पाये जाते हैं। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में इन वृक्षों की प्रजातियों के प्रचार एवं प्रसार की आवश्यकता है जिससे इनके वृहद पैमाने पर रोपण को बढ़ावा मिल सके। इन वनस्पतियों की कठोर प्रवृत्ति के कारण इन्हें बंजर भूमि पर भी उगाया जा सकता है।
इनके वृहद रोपण से न सिर्फ आर्थिक लाभ कमाया जा सकता है अपितु पर्यावरण को भी संरक्षण प्रदान किया जा सकता है। योगी अरविन्दए जो कि कुंजापुरीए नरेंद्रनगरए टिहरी में रहते हैंए विगत सात वर्षों से पौधे लगाने का अभियान चला रहे हैं। वृक्षों के प्रति प्यार से शुरू हुआ उनका अभियान पहले कुछ साल तक निजी कर्मयोग तक सीमित रहा जो अब एक करोड़ वृक्ष लगाने के संकल्प में परिवर्तित हुआ हैं। इस उद्देश्य से उन्होंने कोटिवृक्ष फ़ाउंडेशन नाम की संस्था की स्थापना की हैं। 2012 में प्रारम्भ अपनी अध्यात्म यात्रा के दरम्यान दक्षिण से उत्तर भारत तक, कन्यकुमारी से कश्मीर तक यात्रा में योगीजी को इस बात का अहसास हुआ की भारत में वृक्ष लगाने के बारे में बहुत उदासीनता हैं। आम जन में किसानों में ग्रामीणों में पौधे सहज लगाने का जो सिलसिला था वो कई क्षेत्रों में थम सा गया हैं। कुछ साधुओं के आश्रमों के सिवा और कुछ आयुर्वेदिय महाविद्यालयों और कुछ जिलों के किसानों के सिवा आयुर्वेदिक वनस्पति के पौधे तो कोई लगाता भी नहीं। उन्होंने अपनी यात्रा के दौरान आश्रमों, मंदिरों में पौधें लगाना प्रारम्भ किया। योगी जी द्वारा कश्मीर में श्रीनगर, कर्नाटक, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तराखंड में पौधे लगाए गए। किसानों को प्रशिक्षित कर उन्हें पौधे लगाने के लिए प्रेरित किया। पौधा उपलब्ध करवाना, गड्ढे बनाना, जल आपूर्ति के लिए सहयोग करना इत्यादि माध्यम से अबतक योगी अरविन्द ने 21,000 से अधिक पौधे लगाए हैं।वृक्षारोपण के पहले कुछ वर्षों में किसानों को पंच पल्लव पौधे लगाने के लिए प्रेरित किया गया। बड़, पीपल, गुल्लर, जामुन, नीम इन पाँच को पंच पल्लव कहा जाता हैं। कुछ क्षेत्रों में इन पंच पल्लव में एक दो प्रजाति अलग मानी जाती हैं जैसे आँवलाए बेलपत्रए शमी या अर्जुन। नदी और तालाबों के किनारे हज़ारों अर्जुन के पेड़ लगाए। पानी की कमी वाले जगह गूलर के पेड़ लगाने से वातावरण में नमी बढ़ने से आसपास के पौधों के जल्द गति विकास का प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत किया।अपनी भारत यात्रा के दरमियान श्री अरविन्द ने अनुभव किया की भारत का वन क्षेत्र बहुत घट चुका हैं और तेज़ी से घट रहा हैं। अमरकण्टक, पंचमढ़ी, पश्चिम घाट, हिमालय और उत्तर पूर्व के राज्यों के जंगल ही घने, बहुप्रजातीय और आयुर्वेदिक प्रजातियों से भरपूर बचे हैं। इनके अलावा अनेक क्षेत्रों में अत्यधिक पेड़ कटाई के वजह से भूमि का स्खलन होना, भूमि रेगिस्तान होना, जलस्तर घटना जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई हैं। हिमालय और शिवलिक क्षेत्र में भी तेज़ी से घने जंगल पतले हों रहे हैं। इन पहाड़ों में फलदार वृक्षों की कमी होनाए पशु को चारा उपलब्ध कराने वाले पेड़ों का कटना इन वजहों से स्थानीय जनजीवन पर विपरीत प्रभाव पड़ा हैं। चीड़ के वृक्षों का अंग्रेज़ों द्वारा बड़े पैमाने पर लगाए जाना अपनी आप में समस्या का रूपधारण कर चुका हैं। चीड़ के पेड भूमि को सुखाते हैंए जलस्तर कम करते हैंए उनकी पत्तियाँ जहाँ गिरती हैं वहाँ कोई जडी.बूटीए घास उगती नहीं और मुख्य बाधा पशुओं के लिए होती हैं जों कई बार इन पत्तों पर फिसलकर खाई में गिरते हैं। चीड़ से तापमान में बढ़ोतरी भी होती हैं।इन परिस्थितियों की पार्श्वभूमि में कोटिवृक्ष फ़ाउंडेशन ने 2018 से फलदार, छायादार, चारा देनेवाले और औषधि वृक्ष लगाने का हिमालय वृक्ष अभियान प्रारम्भ किया हैं। सत्ताईस गाँव चिन्हित कर वहाँ प्रशिक्षण देकर नर्सरी बनाकर, पौधे लगाने की योजना हैं। इन सत्ताईस गावों में अब तक 43 प्रजातियों के 7701 वृक्ष लगाए गए हैं। 4300 विद्यार्थी और ग्रामीणों से प्रत्यक्ष संवाद के माध्यम से पर्यावरण और अध्यात्म का प्रबोधन किया गया हैं। ग्रामीणों को शपथ दिलाई जाती हैं की, वह फलदार, छायादार वृक्ष लगाएँगे। वृक्ष की सुरक्षा बच्चों की सुरक्षा समान करेंगे। वृक्ष लगाकर गाँव को आदर्श ग्राम और स्वयं को आदर्श मानव बनाएँगे।