
गोपेश्वर से महिपाल गुसाईं।
तो क्या परंपरागत पहाड़ी गाय यहां के निवासियों की आर्थिकीय विकास की चाबी बन कर उभरेगी। यह एक बड़ा प्रश्न बन कर उभरने लगा हैं। जिस तरह से इस परंपरागत पाहाडी गाय से बिलोना विधि से तैयार चमोली जिले में बद्री गाय घी पूरे देश में मात्र 3-4 दिनों में एक लाख रुपए से अधिक का बिक चुका हैं और तेजी के साथ इसकी मांग बढ़ रही हैं, तो इसे देख तो यही कहा जा सकता हैं कि आर्थिकी विकास की एक महत्वपूर्ण चाबी पहाड़ी गाय भी बन सकती हैं।
दरअसल सदियों से उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में शुद्ध पहाड़ी नस्ल की गाय पालने की परंपरा चली आ रही हैं। बीते दसकों तक इन क्षेत्रों जिले के पहाड़ी गांव में सायद ही वह घर होता होगा, जहां पर पहाडी गाय ना पाली जाती हैं। किंतु बदलते दौर में बनी किसी खर्च एवं काफी कम परिश्रम के ही आसानी के साथ पाली जा सकने वाली गायों की संख्या में तेजी के साथ कमी होने को मिली है। अब गांव में बहुत कम ही किसान इन गायों का पालन कर रहे हैं। शुद्ध एवं पारंपरिक गाय इस राज्य में लुप्त सी होने लगी हैं। राज्य के गांवों में तेजी के साथ बड़ा पलायन इन गायों से अधिक लाभ नही मिलने के कारण किसानों ने इन्हे पालना छोड़ दिया। इन गायों की संख्या में कमी आने का एक बड़ा कारण कारण सरकारी नीति भी बन कर उभरी हैं। पिछले करीब चार दशकों से सरकार जरसी, संधी सहित तमाम अन्य बहारी नस्ल की कथित रूप से अधिक दूध देने वाली गायों को अपने घरों की सोभा बढ़ाने के लिए यहां के किसानों को प्रेरित करने के साथ ही इनकी खरीद से लेकर पालने तक के लिए आर्थिक सहयोग से लेकर अन्त तरह के सहयोग देने लगी। जिससे यहां के बहुतायत किसानों ने पहाड़ी गाय का पालन करना छोड बहारी महंगी एवं पालन पोषण में अधिक मेहनती गायों को पालना शुरू कर दिया है। एक तरह से बाहरी नस्ल की गायें स्टेटस सिंबल सी बन गई हैं। अधिक कीमत एवं लालन.पालन में अधिक श्रम के बावजूद किसानों को वह लाभ इन गायों से नहीं मिल पा रहा है, जितना कि शुद्ध पहाड़ी गायों से मिल सकता है। पशुपालन के जानकारों का कहना है कि पहाड़ी नस्ल की गायें एक तो 24 घंटे में कम से कम 6 से 8 घंटों तक खुली रहना पसंद करती हैं। इस पर वह अपना चारा भी खुद ही चुगना पसंद करती हैं। खूंटे पर तो वह चारा चुगना बिल्कुल भी पसंद नहीं करती हैं। पारंपरिक रूप से पहले यहां के ग्रामीण अपने पालतू गाय, बैल एवं अन्य मवेशियों को खोल कर जंगलों में हांक देते थे। अब भी यह परम्परा तो जीवित है, किन्तु उस स्तर पर नहीं जो बीते 3-4 दशक पूर्व तक देखने को मिलती थी। पहाड़ी गायों की अपेक्षा आयातित बहारी नस्ल की गाय हो सकता हैं, अधिक दूध तो देती होगी किन्तु उसके चारे से लेकर लालन.पालन में लगने वाले श्रम को जोड़ा जाए तो उत्पादन पहाड़ी गाय की अपेक्षा काफी कम है।
बाहरी नस्ल की गाय जो कि अब उत्पादन जितना भी देती हो लेकिन स्टेटस सिंबल बन चुकी गाय के पालन पोषण के बीच एक बार फिर से सरकारों को शुद्ध पहाड़ी गायों की याद आने लगी हैं।ये याद वास्तव में यूं ही नही आ रही हैं। इसके पीछे इस गाय के तमाम गुण, इससे मिलने वाला गोबर से लेकर गौ मूत्र, दूध, दही, मक्खन एवं घी है। जोकि पूरी तरह से औषधीय गुणों से परिपूर्ण हैं। और आज के वैज्ञानिकों ने यह साबित भी कर दिया हैं कि शुद्ध पहाड़ी गाय आम लोगों के लिए कितनी अधिक लाभकारी है। ऐसे ही दौर में चमोली जिला प्रशासन ने एक बेहतरीन पहल की है पहले तो पहाड़ी गाय को बद्री गाय का नाम दिया और अब इस गाय के दूध से तैयार बिलाना पद्वती अर्थात् पारंपरिक मथनी से मक्खन को मथ कर उसे कड़ाई में उबाल कर तैयार घी को राज्य के बड़े शहरों के साथ ही देश के अन्य राज्यों तक इस घी को पहुंचाने की पहल की हैं। जिससे लगने लगा है कि लगभग हासिये पर पहुंच चुकी पहाड़ी गाय का पुनः विकास होगा और यही गायें यहां के लोगों की आर्थिकी की चाबी भी बनेगी।
इस संबंध में चमोली के मुख्य विकास अधिकारी हंसा दत्त पांडे ने बताया कि पिछले 3-4 दिनों में चमोली के ग्रामीणों के द्वारा बिलोना परंपरा के तहत बनाया गया घी पूरे देश के तमाम बड़े शहरों में करीब लाखां रूपये का बिक चुका। और तेजी से इस की डिमांड बढ़ रही है। जिसे देखते हुए स्थानीय निवासियों को इस घी को तैयार करने के लिए प्रशासन एवं पशुपालन विभाग के द्वारा प्रोत्साहित किया जा रहा है। बताया कि पहाड़ी गाय का घी 12 से 15 सौ रूपए प्रति किलो से अधिक की दर पर बिक रहा है। इन गायों के पालन.पोषण एवं विकास के लिए प्रशासनिक स्तर पर लगाता प्रयास किए जा रहे हैं।