डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
बागेश्वर जिला मुख्यालय से महज 23 किलोमीटर दूर बसे चौनी गांव में आज खामोशी इतनी गहरी है कि अपने कदमों की आवाज भी अजनबी लगती है। कभी खुशहाल बाखली थी। सुबह-शाम चूल्हों से धुआं उठता था। बच्चों की हंसी गूंजती थी। खेतों में हल चलाए जाते थे। आज यह गांव पूरी तरह वीरान है। उत्तराखंड राज्य स्थापना के 25वें साल में यहां रहने वाला अंतिम परिवार भी दरवाजे पर ताला लगाकर चला गया है।चमड़थल ग्राम पंचायत का यह गांव कभी 25 परिवारों से आबाद हुआ करता था। वर्ष 2015 तक यह संख्या 15 पर आ गई। वर्ष 2025 में गांव की आखिरी रहवासी महिला भी मजबूरी में गांव छोड़ गई।बागेश्वर जिले का चौनी गांव, जो कभी 25 परिवारों की हंसी-खुशी से गूंजता था, अब पूरी तरह वीरान हो चुका है. वर्ष 2025 में यहां के अंतिम रहवासी परिवार ने भी मजबूरी में गांव छोड़ दिया, जिसके बाद यह पूरा गांव जनशून्य हो गया. जिला मुख्यालय से मात्र 23 किलोमीटर दूर बसे इस गांव में आज सन्नाटा इतना गहरा है कि अपने कदमों की आवाज भी अजनबी सी लगती है. कभी बाखली में उठता चूल्हों का धुआं, बच्चों की खिलखिलाहट और खेतों में गूंजती हल की आवाजें अब केवल याद बनकर रह गई हैं.चमड़थल ग्राम पंचायत का यह गांव साल 2015 तक 15 परिवारों के सहारे टिका हुआ था, लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क और रोजगार जैसी मूलभूत सुविधाएं न मिलने के कारण लोग एक-एक कर पलायन करते गए. अंततः 2025 में आखिरी रहवासी महिला भी गांव छोड़ने को मजबूर हो गई. न्यूज एजेंसी की टीम ने जब गांव का जायजा लिया, तो आंगन में उगी झाड़ियां और बंद पड़े घर बताते हैं कि कैसे पलायन ने इस गांव को धीरे-धीरे निगल लिया. करीब 550 नाली उपजाऊ भूमि आज भी किसी के लौटने और हल चलाने का इंतजार कर रही है, लेकिन खेत सुनसान पड़े हैं. पुराने नक्काशीदार मकान हों या नए लिंटर वाले घर सभी पर ताले लटके हैं. कुछ घर खंडहर बन चुके हैं, तो बाकी खंडहर होने की कगार पर गांव के वरिष्ठ नागरिक और सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य कहते हैं कि सुविधाओं के अभाव के लिए गांव से लेकर प्रदेश और देश की सभी सरकारें जिम्मेदार हैं. “मैं इसी गांव में रहते हुए क्षेत्र का पहला स्नातक बना था, लेकिन सुविधाओं के अभाव में मुझे भी गांव छोड़ना पड़ा. संघर्ष आज भी जारी है,” वे बताते हैं. इसी तरह गणेश चंद्र कहते हैं कि वर्षों तक गांव में सुविधाएं न मिलने के कारण लोग दिल्ली, लखनऊ और अन्य शहरों में बसते चले गए. “हमारा परिवार पिछले साल तक गांव में था, लेकिन अब हमने भी सड़क के नजदीक नया मकान बना लिया है.” ग्रामीण का कहना है कि अगर सरकार रोजगारपरक योजनाएं, कीवी, माल्टा, अदरक, हल्दी की खेती या मत्स्य पालन जैसी गतिविधियों को बढ़ावा देती, तो हालात बदल सकते थे. बागेश्वर के सीडीओ का कहना है कि राज्य सरकार पलायन रोकथाम योजनाओं पर काम कर रही है और कुछ गांवों में रिवर्स पलायन भी देखने को मिला है. “चौनी गांव के खाली होने के कारणों की जांच के लिए अधिकारियों की बैठक बुलाई जाएगी और गांव को फिर से बसाने का प्रयास किया जाएगा,” वे आश्वस्त करते हैं. चौनी गांव भले ही इंसानी जिंदगी से खाली हो चुका हो, लेकिन ग्रामीणों की मान्यता है कि यहां आज भी देवता बसते हैं. हर साल गर्मियों में पलायन कर चुके परिवार पूजा-अर्चना के लिए अपने पैतृक घरों में लौटते हैं. आठ-दस दिनों के लिए गांव में फिर चहल-पहल लौट आती है. झाड़ियां काटी जाती हैं, रास्ते साफ होते हैं और पुराने चूल्हों में फिर धुआं उठता है. लेकिन पूजा के बाद गांव फिर उसी खामोशी में डूब जाता है, जहां बंद घरों के ताले बारिश और धूप में धीरे-धीरे जंग खाते रहते हैं. चौनी आज सिर्फ एक गांव नहीं यह एक चेतावनी है कि अगर पहाड़ों में बुनियादी सुविधाएं और रोजगार नहीं पहुंचे, तो ऐसे वीरान होते गांवों की संख्या बढ़ती जाएगी. सरकार कितने ही पलायन आयोग बना ले। लेकिन मूलभूत समस्याओं व बुनियादी जरूरतों से जूझते गांव लगातार खाली होते जा रहे है। कभी अपने साथ आस-पास के गांवों को आबाद करने वाला गांव अब वीरान हो गया है। यहां अब दूर-दूर तक गांव में सन्नाटा पसरा हुआ है। गांव के स्कूल में शिक्षक नहीं, अस्पताल में डॉक्टर नहीं, टेलीफोन-मोबाइल में सिग्नल नहीं, नल में पानी नहीं, बिजली सप्लाई अनियमित आदि वजहों से पहाड़ के गांव के लोग कस्बों या देहरादून, हल्द्वानी, टनकपुर-खटीमा में पलायन कर रहे हैं। पलायन स्वभाविक प्रक्रिया है। पलायन के बाद भी उत्तराखंड में अभी करीब एक करोड़ की आबादी है। ग्रामीण आबादी अब पलायन न करे, उसके लिए सरकार को गंभीर प्रयास करने होंगे। गांव में पैथालॉजी, जंगली जानवरों और लैंटाना घास पर नियंत्रण, वन विभाग व कृषि विभाग परस्पर सहयोग करे तो पलायन न केवल थमेगा, बल्कि श्राद्ध, बरसी या लोक देवता को पूजने हर साल गांव आने वाले प्रवासी भी फिर से गांव में बसने की सोच सकते हैं। खेती में तकनीकी का उपयोग, जैविक खेती को प्रोत्साहन, जंगलों पर अधिकार बढ़ाने, ग्रामीण सड़कों पर सार्वजनिक परिवहन से भी पलायन में कमी आएगी। पलायन आयोग की 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, उत्तराखंड में पलायन का प्रभाव गहराई से महसूस किया जा सकता है. रिपोर्ट के अनुसार, 307310 लोग राज्य से पलायन कर चुके हैं, जिनमें से 28531 लोग स्थायी रूप से राज्य छोड़ चुके हैं. इस आंकड़े से स्पष्ट है कि पहाड़ों में आज भी रहने का संकट गहराता जा रहा है.गांवों की रौनक लौटाने के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोजगार के क्षेत्र में सुधार की आवश्यकता है. सरकार का उद्देश्य है कि ग्रामीण क्षेत्रों में आधारभूत ढांचे का विकास कर वहां रहने योग्य वातावरण बनाया जाए. इसके लिए विशेष योजनाएं बनाई गई हैं, जिनमें सरकारी नौकरियों के अवसरों को ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुंचाना, पर्यटन के लिए बेहतर सुविधाएं मुहैया कराना, और स्थानीय उत्पादों के विपणन को बढ़ावा देना शामिल है.विशेषज्ञों का मानना है कि यदि राज्य सरकार गांवों में रोजगार के अवसर बढ़ाए और शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृढ़ करे, तो पलायन को रोका जा सकता है. इसके अलावा, स्थानीय स्तर पर सामुदायिक विकास कार्यक्रमों के माध्यम से युवाओं को स्वरोजगार के अवसर प्रदान करना भी एक कारगर उपाय साबित हो सकता है.पलायन की चुनौती उत्तराखंड के विकास में एक बड़ी बाधा बनी हुई है. राज्य स्थापना के 25 वर्षों बाद भी पलायन का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है. शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी मूलभूत जरूरतों की कमी से लोग अपने गांवों को छोड़ रहे हैं. हालांकि, सरकार इस मुद्दे को लेकर गंभीर है और कई योजनाओं पर काम कर रही है. यदि इन योजनाओं का सही तरीके से कार्यान्वयन किया जाए और ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार तथा आधारभूत ढांचे का विकास किया जाए, तो उत्तराखंड के गांवों की रौनक लौट सकती है और पहाड़ों में बसावट को फिर से बढ़ावा मिल सकता है.लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। *लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*












