डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
ऐतिहासिक बौराणी क्षेत्र धार्मिक आस्था, परंपरा और मेले के साथ ही जुए के लिए भी जाना जाता है। वर्ष 2004 तक यहां सार्वजनिक रूप से जुआ भी खेला जाता था जो कौतिक स्थल से कुछ दूर होता था। इसमें कुमाऊं के दूरदराज के इलाकों से लोग आकर भागीदारी करते थे और यह कौतिक खत्म होने के बाद तक चलता था। तब बौराणी तक सड़क भी नहीं पहुंची थी। इसके बावजूद भारी संख्या में लोग रात-रात भर जुटे रहते थे। स्थानीय लोगों की पहल पर वर्ष 2004 के बाद जुआ खेलने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। राम मंदिर क्षेत्र के प्रसिद्ध बौराणी कौतिक में मध्य रात्रि को आस्था की मशाल जली। पांच किमी दूर गोबरगाड़ा से सैकड़ों भक्त 27 फुट लंबी चीड़ के छिलकों से तैयार मशाल कंधों पर लेकर मंदिर पहुंचे। श्रद्धालुओं ने मशाल के साथ जयकारे लगाते हुए मंदिर की परिक्रमा की। ग्रामीणों ने मंदिर की सात बार परिक्रमा के बाद मशाल को परिसर में दबा दिया। इसके बाद सैम देवता की पूजा-अर्चना कर सुख समृद्धि की कामना की गई। बौराणी के सैम मंदिर में कार्तिक पूर्णिमा को चीड़ के छिलकों की मशाल लाने की परंपरा सदियों पुरानी है। लोग इसे सुख, शांति और समृद्धि का प्रतीक मानते हैं। बुधवार रात सैम मंदिर पहुंचे भक्तों ने विधि-विधान से पूजा-अर्चना कर भगवान का आशीर्वाद लिया। इस दौरान 27 फुट लंबी आस्था की मशाल को देखने के लिए हजारों की संख्या में लोग जुटे रहे। देर रात मंदिर परिसर में देव डांगर ने अवतरित होकर लोगों को आशीर्वाद दिया। बौराणी के सैम मंदिर में कार्तिक पूर्णिमा को चीड़ के छिलकों की मशाल लाने की परंपरा सदियों पुरानी है। लोग इसे सुख, शांति और समृद्धि का प्रतीक मानते हैं। बुधवार रात सैम मंदिर पहुंचे भक्तों ने विधि-विधान से पूजा-अर्चना कर भगवान का आशीर्वाद लिया। इस दौरान 27 फुट लंबी आस्था की मशाल को देखने के लिए हजारों की संख्या में लोग जुटे रहे। देर रात मंदिर परिसर में देव डांगर ने अवतरित होकर लोगों को आशीर्वाद दिया। कभी जुए के लिए कुख्यात यह मेला अब संस्कृति और भक्ति का पर्व बन चुका है। वर्ष 2004 में स्थानीय युवाओं और प्रशासन के प्रयासों से जुए की कुप्रथा पर पूरी तरह रोक लगाई गई थी। आज यह मेला लोक विरासत और आस्था का प्रतीक बनकर नई पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ रहा है। देवभूमि उत्तराखंड में सांस्कृतिक धरोहरों की प्रचुरता है। इसी में शामिल है गंगोलीहाट तहसील के चाकबोरा गांव के प्रसिद्ध बौराणी मंदिर में लगने वाला बौराणी मेला। जहां आज भी कार्तिक पूर्णिमा की रात सामूहिक दीप के नाम पर ग्रामीण चीड़ के छिलकों की 30 फिट लंबी मशाल जलाकर सुख और समृद्धि की कामना करते हैं।चार दशक पूर्व तक इस मेले का व्यापारिक पक्ष भी काफी समृद्धशाली था। बरेली, मुरादाबाद, हल्द्वानी, रामनगर से व्यापारी आते थे। इसके अलावा बौराणी क्षेत्र के किसान कृषि यंत्रों, पनचक्की, घराट, सिल-बट्टे, दलनी, रिंगाल से बने टोकरी, डलिया, सूप आदि का व्यापार करते थे। चार दशक पूर्व आने वाले कुछ असामाजिक तत्वों ने यहां पर मेले की रात जुआ खेलने की परंपरा शुरू कर दी। दिवाली के तुरंत बाद पूर्णिमा को लगने वाले मेले की पहचान जुआ मेले के रू प में हो गई और मेले की सांस्कृतिक पहचान कम होने लगी। इस मेले के मूल स्वरूप को वापस लाने के लिए 12 साल पूर्व स्थानीय युवाओं ने प्रशासन के मदद से एक प्रयास किया। वर्ष 2005 के बाद बौराणी मेला अपने मूल स्वरूप में लौट चुका है। *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं*












