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सख्त भू-कानून की मांग को लेकर उत्तराखंड में घमासान!

01/10/24
in उत्तराखंड, देहरादून
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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला। अपनी संस्कृति, विरासत, जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए उत्तराखंड में एक बार फिर से आंदोलन की सुगबुगाहट होनी शुरू हो गई है. एक तरफ जहां उत्तराखंड में सख्त भू-कानून की मांग की जा रही है तो वहीं इस राज्य को संविधान में निहित 5वीं अनुसूची में शामिल करने का मुद्दा भी उठने लगा है. आखिर क्या है

भारत के संविधान में निहित 5वीं अनुसूची और उत्तराखंड के इससे कैसे लाभ मिलेगा? ब्रिटिश सरकार ने भी

1931 पहाड़ को ये स्टेट्स दिया था, लेकिन यूपी ने छीन लिया था ब्रिटिश सरकार ने भी दिया पहाड़ी इलाकों

को दिया था विशेष दर्जा: बता दें कि यूपी के पहाड़ी जिलों को ब्रिटिश काल से ही ट्राइब स्टेट्स मिला हुआ था,

लेकिन आजादी के बाद यूपी सरकार ने पहाड़ी जिलों से ट्राइब स्टेट्स छीन लिया था, जो उत्तराखंड को अलग

राज्य बनने के बाद भी नहीं मिला है. साल 1931 में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने भी तब के यूपी के पहाड़ी

जिलों (आज के उत्तराखंड) में अनुसूचित जिला अधिनियम 1874 यानी ट्राइब स्टेट्स लागू किया था. कुल

मिलाकर कहा जाए तो उत्तराखंड को ब्रिटिश सरकार में वहीं अधिकार मिले थे, जो आज के संविधान की 5वीं

और 6वीं अनुसूची में है. ब्रिटिश काल में पहाड़ में दो जिले थे, एक अल्मोड़ा और दूसरा ब्रिटिश गढ़वाल. वहीं

टिहरी अलग से रियासत थी. संविधान की 5वीं और 6वीं अनुसूची में राज्यवासियों को जल, जंगल और जमीन

के लिए कुछ अतिरिक्त अधिकार मिले है, लेकिन भारत के आजाद होने के बाद साल 1971 में तत्कालीन यूपी

सरकार ने अपने पहाड़ी जिलों यानी आज के उत्तराखंड का वो स्टेट्स खत्म कर दिया था. यानी उत्तराखंड को

संविधान की 5वीं अनुसूची से बाहर कर दिया गया था, जो अधिकारी कभी अंग्रेजी हुकुमत ने भी पहाड़ के

लोगों को दिए थे. हालांकि उत्तराखंड के हिमाचल से लगे जौनसार बाबर क्षेत्र में आज भी इस तरह के कुछ

कानून लागू है, जिस कारण बाहरी लोगों को वहां जमीन खरीदना मुश्किल है. वहीं नौकरी में भी उन्हें चार

प्रतिशत का आरक्षण मिलता है. बता दें कि जौनसार बाबर ट्राइब क्षेत्र है.  इतना ही नहीं तत्कालीन यूपी

सरकार ने 1995 में पहाड़ी जिले (गढ़वाल और कुमाऊं) के लोगों को नौकरी में मिलने वाले 6 प्रतिशत आरक्षण

को भी खत्म कर दिया था. तभी से पहाड़ में यूपी से अलग उत्तराखंड राज्य की मांग उठने लगी थी. धीरे-धीरे

प्रथक राज्य की मांग को लेकर आंदोलन तेज होने लगा था. आखिर में सरकार को जनता के सामने झुकना पड़ा

और साल 2000 में यूपी के अलग होकर उत्तराखंड गठन का नाम (उत्तरांचल) का जन्म हुआ, लेकिन अभीतक

भी उत्तराखंड को संविधान की 5वीं अनुसूची में शामिल करने की मांग पूरी नहीं हुई. मोटे तौर कहे तो

उत्तराखंड के छोड़कर संविधान की 5वीं और 6वीं अनुसूची सभी पहाड़ी राज्यों में लागू है. धारा 370 की वजह

से जम्मू-कश्मीर संविधान की 5वीं और 6वीं सूची से बाहर था.  उत्तराखंड के 5वीं अनुसूची में शामिल होने से

न सिर्फ यहां जल, जगल और जमीन बचेगी, बल्कि यहां के युवाओं को केंद्रीय शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में

7.5 प्रतिशत की आरक्षण का लाभ भी मिलेगा.वहीं, जानकारों की माने तो यदि उत्तराखंड को भारत के

संविधान में निहित 5वीं अनुसूची में शामिल किया जाता तो यह पहाड़ के लिए एक सुरक्षा कवच का काम

करेगा. आज जिस तरह के उत्तराखंड के संसाधनों का दोहन हो रहा है, उस पर लगाम लग सकेगी. इस बारे में

उत्तराखंड हाईकोर्ट के सीनियर ने एडवोकेट बताया. भारत के संविधान का अनुच्छेद 244 देश के राष्ट्रपति को

शक्ति देता है कि वे भौगोलिक या फिर अन्य परिस्थितियों में किसी भी राज्य को ट्राइबल (जनजातिय) स्टेट

घोषित कर सकते है. इसका मुख्य फायदा उस राज्य के लोगों को ही होता है, ताकि वहां से लोग अपनी संस्कृति

और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा कर सके. बाहरी लोग उस राज्य में जमीन नहीं खरीद सकते है. नियमों के

तहत ही कोई बाहरी व्यक्ति प्रदेश में जमीन खरीद सकता है. क्या ट्राइबल स्टेट बनने से राज्य को कोई नुकसान

भी हो सकता है, इस सवाल पर सीनियर एडवोकेट का कहना है कि उत्तराखंड के 5वीं अनुसूची में शामिल होने

से प्रदेश को नुकसान नहीं, बल्कि फायदा होगा. क्योंकि यहां पहाड़ के लोगों के अधिकार सुरक्षित होगे.

उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार के अनुसार उत्तराखंड में भू कानून और राज्य को 5वीं अनुसूची में शामिल कराने की

मांग लंबे समय से चलती आ रही है. इसकी शुरुआत नारायण तिवारी सरकार में ही हो गई थी. तब लोगों को

यह लगा था कि उत्तराखंड को एक अलग राज्य का दर्जा मिलने के साथ ही 5वीं अनुसूची में भी शामिल किया

जाएगा. 2003 में तिवारी सरकार ने यूपी जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम 1950 की धारा

154 में संशोधन किया. संशोधित कानून के अनुसार बाहरी व्यक्ति को आवासीय उपयोग के लिए उत्तराखंड में

500 वर्ग मीटर से ज्यादा जमीन नहीं ले सकता था. इसके साथ ही अगर कोई बाहरी व्यक्ति कृषि भूमि खरीदता

है तो उसमें भी कई तरह के प्रावधान रखे गए थे. वहीं कमर्शियल यूज के नाम पर लैंड लेने वाले व्यक्ति को दो

साल के अंदर अपना काम शुरू करना होगा. यदि लैंड दो सालों तक खाली पड़ी रही थी तो उसे सरकार को

जवाब देने होगा. उत्तराखंड में लंबे समय से हिमाचल की तर्ज पर सख्त भू कानून लागू किए जाने की मांग चली

आ रही है. जिसको देखते हुए मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने हाल ही में एक बड़ा निर्णय लिया है. जिसके तहत

नियमों को ताक पर रखकर बाहरी लोगों की ओर से प्रदेश में खरीदी गई जमीनों की एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार

की जाएगी. ऐसे में प्रावधानों के विपरीत जो जमीन पाई जाएगी, उन जमीनों को राज्य सरकार में निहित

किया जाएगा. भले ही राज्य सरकार ने एक बड़ा निर्णय लिया हो, लेकिन प्रदेश की विषम भौगोलिक

परिस्थितियां और डाटाबेस बड़ी चुनौती बन सकती है? जमीनों का विवरण तैयार करना या फिर जांच करना

राज्य सरकार के लिए आसान नहीं होगा. हालांकि, भू कानून लागू होने के बाद से ही तमाम जमीनों के विवरण

ऑनलाइन किए जा चुके हैं, लेकिन समस्या एक बड़ी यही है कि किस व्यक्ति ने अपने परिवार के नाम से कितनी

जमीन खरीदी है? इसका पता लगाना काफी मुश्किल काम है.ऐसा भी हो सकता है कि किसी व्यक्ति ने

जमीन खरीदी हो और फिर उसकी पत्नी ने भी जमीन खरीदी, लेकिन उसके केयर ऑफ में उसके पिता का

नाम हो. ऐसे में उसका पता लगाना काफी मुश्किल हो सकता है. ये भी हो सकता है कि किसी ने जमीन

परिवार के नाम से खरीदी हो, लेकिन वो जमीन किसी और को बेच दी गई हो. उत्तराखंड में बाहरी

लोगों को लेकर विधानसभा चुनावों से पहले भी भू-कानून की मांग अपने चरम पर थी. सरकार द्वारा

अब इस नई पहल से कहीं ना कहीं उस मुद्दे पर भी लोगों को राहत देने की कोशिश इस अध्यादेश के

जरिये की जा रही है. इन नए नियमों के चलते अपराधी प्रवत्ति के लोगों को उत्तराखंड में जमीन

खरीदना निश्चित तौर पर मुश्किल होगा. ऐसे में अब देखना होगा कि आखिरकार कब तक राजस्व

विभाग इस अध्यादेश का ड्राफ्ट तैयार करता है और कब तक सरकार इसे लागू करती है. और क्या

वाकई में इस कानून के बाद उत्तराखंड से भू-माफिया दूर रह पाएंगे ये देखने वाली बात होगी..(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।)

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