शंकर सिंह भाटिया
यह उत्तराखंड राज्य ही हो सकता है जहां एक आईपीएस अफसर डीजी लॉ एंड आर्डर रहते हुए 2012 में रिजर्व फारेस्ट के पास कूटरचना एवं फर्जी कागजात बनाकर 1.3 हेक्टेयर जमीन कब्जा लेता है। इस प्रक्रिया में भूमि विक्रेता से लेकर गवाह तक सभी फर्जी होते हैं। यह भूमि खरीद विवाद में आने के बाद भी उसे राज्य का डीजीपी बना दिया जाता है। फिर वह कहां रुकने वाला था, डीजीपी बनने के बाद 2013 में संरक्षित वन क्षेत्र में संरक्षित प्रजाति के 25 हरे पेड़ काटकर वन भूमि कब्जाने की कोशिश करता है। इतना ही नहीं इस अवैध भूमि कब्जाने के प्रयास में रोड़ा बने वन महकमे के अधिकारियों के खिलाफ आपराधिक कुमकदमे दर्ज कर उनका उत्पीड़न शुरू कर देता है। बात यहीं समाप्त नहीं होती, इस प्रकरण की जांच कर रहे पुलिस अधिकारी का भी उत्पीड़न शुरू हो जाता है। जांच के बाद एनजीटी इस पुलिस अफसर पर 4614960 रुपये का जुर्माना भी ठोक देती है। जमीन की रजिस्टरी रद् कर दी जाती है, लेकिन पुलिस के शीर्ष पद पर रहते हुए इतना बड़ा फर्जीबाड़ा करने वाले का बाल बांका भी नहीं होता। अब रिटायरमेंट के सालों बाद उत्तराखंड सरकार वन विभाग की शिकायत पर पूर्व डीजीपी समेत इस षडयंत्र में शामिल आठ लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने की इजाजत देती है, तो यह पूर्व आईपीएस अफसर सरकार के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने की धमकी देने लगता है।
इसे कहते हैं उल्टा चोर कोतवाल को डांटे। अवैध गतिविधियों में संलिप्त एक पूर्व अफसर यदि सरकार को धमकी देने पर उतर आया है तो यह उसका नैतिक बल तो कतई नहीं है। क्योंकि अनैतिक काम करने वालों के पास नैतिक ताकत होती ही कहां है? वह अपने आंकाओं के बल पर यह सब कहने की हिम्मत जुटाता है। उत्तराखंड की सरकारों की कमजोरियों को भलीभांति समझने वाला, कूटरचनाओं में माहिर कोई व्यक्ति ऐसी हिम्मत जुटा सकता है। पूर्व डीजीपी बीएस सिद्धू यही कर रहे हैं।
इतने विवादों में घिरने के बाद भी तत्कालीन विजय बहुगुणा सरकार ने विवादित आईपीएस बीएस सिद्धू को सभी नियमों, विरोधों को ताक पर रखकर डीजीपी क्यों बना दिया? बताया जाता है कि तत्कालीन पंजाब की कांग्रेस सरकार के दबाव में उन्होंने सिद्धू को डीजीपी बनाया था। उसके बाद विजय बहुगुणा ने सिद्धू के जरिये बहुत सारे वैध अवैध कार्य करवाए तो सिद्धू ने भी जमीन कब्जाने से लेकर बहुत सारे अपने फायदे के काम किए। इसलिए सरकार-सिद्धू के बीच हुए इस मूक समझौते में सभी तरह के वैध-अवैध कामों के प्रति आंख मूंद लेने की भी सहमति रही होगी। गिव एंड टेक के इस समझौते प्रक्रिया में फोकस सिर्फ अपने काम निपटाने पर रहा, चाहे वे वैध हो या अवैध हों। उसकी आड़ में कानून व्यवस्था बनाने की जिम्मेदारी लिए पुलिस का सबसे बड़ा जिम्मेदार अफसर इतने बड़े गैरजिम्मेदाराना काम करता रहा।
अब राज्य सरकार ने बीएस सिद्धू के इस प्रमाणित हो चुके अवैध, अनैतिक काम के खिलाफ कार्यवाही शुरू की है तो राज्य सरकार को भाजपा में शामिल हो चुके विजय बहुगुणा से भी सिद्धू पर जानकारी जरूर लेनी चाहिए। आखिर विजय बहुगुणा की ऐसी क्या मजबूरी थी कि डीजीपी बनने से पहले जमीन कब्जाने के इतने बड़े विवादों में आ चुके अफसर के खिलाफ मौजूद प्रमाणों को दरकिनार कर उन्हें ही डीजीपी क्यों बनाया गया? विजय बहुगुणा के बाद मुख्यमंत्री बने हरीश रावत भी उन्हें गले से क्यों लटकाए रहे? पांच साल का कार्यकाल पूरा कर चुकी भाजपा सरकार इस महान आईपीएस के खिलाफ कार्यवाही करने से क्यों कतराती रही? सवाल बहुत सारे हैं, लेकिन इनके जवाब कौन देगा?
अब राज्य सरकार ने राज्य में पुलिस के सर्वोच्च पद पर रहते हुए कानून के खिलाफ काम करने वाले पुलिस के अफसर के खिलाफ कानून सम्मत कार्यवाही करने का निर्णय लिया है। लेकिन क्या सिर्फ यह कदम ऐसे आरोपियों को सजा की चौखट पर खड़ा कर सकेगा, इसकी गारंटी नहीं देता। हमेशा बाहरी दबावों में काम करने वाली उत्तराखंड की सरकारों पर सिद्धू के मामले में कोई दबाव नहीं आएगा, इसकी गारंटी कौन देगा? दबाव बनाकर डीजीपी पद कब्जाने वाले और दबाव बनानकर अपने अवैध कामों पर वैधता का मुलम्मा चढ़ाने में माहिर बीएस सिद्धू सजा से बचने के लिए कोई बड़ा दबाव लेकर नहीं आएगा, इसकी गारंटी नहीं है। यदि सरकार ठान ले कि वह किसी दबाव में काम नहीं करेगी, कानून को अपना काम कर लेने देगी तो गुनाहगार जरूर कानून के सिकंजे में होगा।