डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले उत्तराखंड के गांवों से हो रहे पलायन ने खेती.किसानी को गहरे तक प्रभावित किया है। अविभाजित उत्तर प्रदेश में यहां आठ लाख हेक्टेयर में खेती होती थी, जबकि 2.66 लाख हेक्टेयर जमीन बंजर थी। राज्य गठन के बाद अब खेती का रकबा घटकर सात लाख हेक्टेयर पर आ गया है, जबकि बंजर भूमि का क्षेत्रफल बढ़कर 3.66 लाख हेक्टेयर हो गया है। सगंध खेती की मुहिम अब राज्य के 109 एरोमा क्लस्टरों तक पहुंच चुकी है। यही नहीं मौजूदा सरकार ने भी राज्य की विषम परिस्थितियों और लोगों खेती.किसानी से जोडऩे के साथ ही किसानों की आय दोगुना करने के लिहाज से सगंध खेती को बढ़ावा देने की ठानी है। इसके लिए प्रयास शुरू कर दिए गए हैं।
कैमोमाइल उत्तरी और दक्षिणी गोलार्ध में हर जगह पाया जा सकता है। यह केवल उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में नहीं बढ़ता है। यूरोप में फूल उत्तरी स्कैंडिनेवियाई देशों और भूमध्यसागरीय दोनों में अच्छी तरह से जड़ लेता है। रूस में यह न केवल यूरोपीय भाग में बढ़ता है, बल्कि उरल्स में सुदूर पूर्व, अल्ताई, टीएन शान और ट्रांसबाइकलिया में भी विकसित होता है। कैमोमाइल अन्य सभी औषधीय पौधों से सबसे आम औषधीय कच्चा माल है। दुनिया के 26 देशों मेंए यह औद्योगिक रूप से खेती की जाती है। कैमोमाइल फार्मेसी के सबसे प्रसिद्ध विश्व निर्माता ब्राजील, अर्जेंटीना, मिस्र, जर्मनी, हंगरी, बुल्गारिया और चेक गणराज्य हैं कैमोमाइल या फार्मेसी एक छड़ी के साथ एक वार्षिक जड़ी बूटी का पौधा है थोड़ा शाखित जड़ है। डंठल पतली, खोखली, घुमावदार होती है, जो स्थितियों के आधार पर 15 से 60 सेमी तक हो सकती है। पत्तियों को संकीर्ण रैखिक खंडों में विभाजित किया जाता है।
शंकुधारी टोकरियों में इन्फ्लेरेसीस एकत्र किए जाते हैं, जो तनों के शीर्ष पर रखे जाते हैं। सीमांत फूल छोटे, कई, सफेद, ईख होते हैं, वे सफेद व्हिस्क के साथ टोकरी को फ्रेम करते हैं। भीतरी फूल पीले, ट्यूबलर होते हैं। कैमोमाइल फार्मेसी की विशेषता एक शंक्वाकार, अत्यधिक उत्तल, खोखले रिसेप्टेक है, जिसके अनुसार फूल अन्य प्रजातियों से अलग है। कैमोमाइल एक फोटोफिलस पौधा है। सुबह जल्दी, इसकी पंखुड़ियों को आम तौर पर झुका दिया जाता है, धीरे.धीरे दोपहर तक बढ़ रहा है और क्षैतिज स्थिति ले रहा है। शाम में पंखुड़ियों को फिर से स्टेम के खिलाफ दबाया जाता है। कैमोमाइल में कई उपयोगी प्रकार के एसिड होते हैं कैपीलेटिक, एस्कॉर्बिक, निकोटिनिक, सैलिसिलिक, एंटीमिस, लिनोलिक, स्टीयरिक, पामिटिक, आइसोवालेरियन और अन्य। इसमें फ्लेवोनॉइड्स, कड़वाहट, शर्करा, प्रोटीन पदार्थ, बलगम, गोंद, कैरोटीन, विटामिन सी, आवश्यक तेल, ग्लाइकोसाइड शामिल हैं। एपिन को विशेष रूप से मूल्यवान माना जाता है।
एक प्रकार का ग्लाइकोसाइड जो चिकनी मांसपेशियों को आराम देता है और इसमें एक एंटीस्पास्मोडिक, कोलेरेटिक प्रभाव होता है। जैविक रूप से सक्रिय पदार्थ चमाज़ुलेन, जो आवश्यक तेलों का हिस्सा है, को भी मूल्यवान माना जाता है। अपवाद के बिना, जड़ी बूटी के सभी घटक महत्वपूर्ण हैं, यह उनका संयोजन और मात्रा है जिसका उपचार पर प्रभाव पड़ता है।
उत्तराखंड में परंपरागत खेती को छोड़कर कैमोमिल फूल की खेती अपनाने वाले किसान इन दिनों चांदी काट रहे हैं। लाभकारी मूल्य मिलने से यह फूल किसानों के चेहरों को खिला रहा है। पछवादून में आजकल कैमोमिल फूल की तुड़ाई चल रही है। कैमोमिल की खेती परंपरागत खेती से आसान और अधिक लाभकारी होने के चलते किसान आकर्षित हो रहे हैं। कैमोमिल की फसल तीन माह की होती है। इसके तेल का उपयोग महंगे इत्र व औषधियों के निर्माण में किया जाता है। जिस भूमि में लंबे समय से धान की खेती की जा रही हो, उसमें कैमोमिल के फूल की अच्छी पैदावार होती है। छह से नौ पीएच की मिट्टी में कैमोमिल की फसल को सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। कम ठंडे क्षेत्रों में इसकी खेती की जा सकती है। बीज द्वारा सीधे बुआई करने पर 200 से 250 ग्राम प्रति बीघा और नर्सरी द्वारा उगाने पर 100 ग्राम प्रति बीघा बीज की आवश्यकता होती हैए जिससे 60 से 70 किग्रा तक सूखे फूल तैयार हो जाते है। फसल बोने के दो माह बाद पौधों पर फूल आने लगते हैं। फूल पूर्ण रूप से विकसित होने पर आठ से 10 दिन के अंतराल में चार से पांच बार तोड़कर हल्की धूप या छायादार स्थान पर सुखाया जाता है।
पछवादून क्षेत्र में तीन दर्जन से अधिक काश्तकार कैमोमिल की खेती कर रहे हैं। कुछ किसान इसे इंटरक्राप के रूप में अपना रहे हैं। कैमोमिल के तेल की कीमत 25 हजार रुपये प्रति किलो है। इसका सूखा फूल बाजार में पांच सौ रुपये प्रति किलो तक बिक रहा है। इसके फूल को चाय में मिलाकर भी प्रयोग किया जाता है। इससे बनने वाली दवा मांसपेशियों के दर्द और पीठ दर्द में प्रयुक्त होती हैं। कैमोमिल की खेती कर रहे कल्याणपुर निवासी रवींद्र कुमार, बाबूगढ़ निवासी डॉ. रमेश काशव, अंबाड़ी निवासी धन सिंह का कहना है कि कैमोमिल की खेती परंपरागत खेती से काफी लाभकारी है। उनका कहना है कि कैमोमिल की खेती से साढ़े दस हजार रुपये प्रति बीघा आय अर्जित की जा सकती है। उधर सगंध पौधा केंद्र सेलाकुई का कहना है कि कैमोमिल की खेती की ओर लोग आकर्षित हो रहे हैं और सगंध पौधा केंद्र की ओर से कैमोमिल की खेती करने पर किसानों को एक हजार रुपये प्रति बीघा अनुदान दिया जाता है।
जम्मू कश्मीर के सहायक फूल अधिकारी अर्जुन सिंह परिहार ने बताया कि भारत में लैवेंडर और कैमोमाइल फूलों की खेती हिमालय के ऊंचे इलाकों जैसे जम्मू कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखंड में की जाती है। उन्होंने बताया कि कैमोमाइल के फूलों के तेल से मानसिक रोगों का उपचार, ब्लड प्रेशर, नींद न आना जैसी कई बीमारियों का उपचार किया जाता है। साथ ही अरोमा थेरेपी, स्किन केयर कॉस्मेटिक, सॉफ्ट ड्रिंक्स और बेकरी प्रोडक्ट में इसका उपयोग किया जाता है। उन्होंने कहा कि मसूरी और धनोल्टी के आसपास के क्षेत्र कैमोमाइल की खेती करने के लिए काफी उपयोगी हैं। अगर यहां के किसान इसकी खेती करते हैं तो उन्हें अच्छा खास फायदा मिलेगा। जिससे उनकी आर्थिक स्थिति भी मजबूत होगी। अर्जुन सिंह ने कहा कि कैमोमाइन की खेती के लिए हल्की सूखी चूनायुक्त और उर्वर जमीन जिस में हवा आसानी से आ सके अच्छी मानी जाती हैण् कैमोमाइन का पौधा ठंडी जलवायु में उगाता है। सर्दी के मौसम में अधिक ठंड और गर्मी के मौसम में कम गर्मी वाले इलाके में यह अच्छा फलता.फूलता है। इसकी जड़ें जमीन में काफी गहराई तक जाती हैं। जिससे यह पहाड़ी ढलान वाली जमीन पर अच्छी तरीके से उगता है।
अरोमा थेरेपी के डॉ. ज्योति मारवा ने बताया कि भारत में खुशबूदार औषधीय पौधों की खेती लगातार बढ़ती जा रही है। जिसकी वजह से उसकी मांग काफी बढ़ गई है। जिससे लोगों को अच्छा मुनाफा हो रहा है। यही कारण है कि वे उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में लैवेंडर और कैमोमाइन कि खेती को बढ़ावा देने के साथ.साथ वह मसूरी व आसपास के क्षेत्र के ग्रामीणों और युवाओं को लैवेंडर की उपज और फायदों के बारे में जानकारी दे रहें हैं। जिससे लोगों को फायदा हो सके, राजाजी टाइगर रिजर्व आरटीआर से सटे इन ब्लॉकों में किसानों ने वन्यजीवों से पार पाने को फसल पैटर्न बदला और गन्ना, धान व गेहूं को छोड़ सगंध खेती शुरू की। इससे आर्थिकी संवरी तो वन्यजीवों के भय से मुक्ति मिल गई। वर्तमान में इन ब्लॉकों के 167 किसान सगंध खेती से जुड़े हैं। प्रति किसान सालाना करीब छह लाख की आय है। हरिद्वार के भगवानपुर और बहादराबाद ब्लाकों के किसानों ने किया प्रयोग, राजाजी टाइगर रिजर्व से सटे इन ब्लॉकों के गांवों में खेती चौपट कर रहे थे वन्यजीव, अगले साल तक 400 और किसानों को सगंध खेती से जोड़ने का है। यही नहीं, मनरेगा में भी सगंध फसलों को बढ़ावा दिया जा रहा है। सगंध खेती के तहत उत्तराखंड में उत्पादित कैमोमाइल के फूल यूरोप तक जा रहे हैं। इसके फूलों को चाय बनाने में इस्तेमाल किया जाता है। अगले पांच वर्षों में राज्य में 50 हजार लोगों को सगंध खेती से जोड़ा जाएगा। इसके लिए राष्ट्रीय कृषि विकास योजनाए मनरेगाए हॉर्टिकल्चर मिशन के साथ ही राज्य सरकार की विभिन्न योजनाओं के तहत सगंध खेती को बढ़ावा दिया जाएगा। इसके अलावा एरोमा पार्क भी विभिन्न स्थानों पर तैयार होंगे, जहां किसान संगध खेती से मिलने वाले सगंध तेल समेत उत्पादों की बिक्री कर सकेंगे। यही नहीं, एरोमा पार्क में स्थानीय लोगों के लिए रोजगार के दरवाजे भी खुलेंगे। बल्कि हर्बल टी यानी चाय भी प्रदेश विज्ञान एवं पर्यावरण परिषद को भी पेटेंट करवाया की जरूरत है। उत्तराखंड की संस्कृति एवं परंपराओं ही नहीं, यहां के खान.पान में भी विविधता का समावेश है। अपनी खास आबो हवा और भौगोलिक परिस्थितियों के चलते उत्तराखंड फूलों की खेती के लिए मुफीद जगह है। राज्य सरकार की कोशिशों से ये फूलों की खेती से अब राज्य के कई हिस्से गुलजार होने लगे हैं, जिससे किसानों को सीधे तौर पर रोजगार का एक नया विकल्प भी मिला है।