डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
पिछले कुछ समय से हमारी दुनिया बहुत तेजी से बदली है. इस बदलाव में एक पीढ़ी जहाँ बहुत पीछे रह गई तो वहीं दूसरी पीढ़ी बहुत आगे निकल गई है. इस बदलाव में जिसने अहम भूमिका निभाई वह मोबाइल की स्क्रीन और एक क्लिक पर सबकुछ खोज लेना का भरोसा देने वाला इंटरनेट है. आज बाल पत्रिकाओं के मुकाबले बच्चे मोबाइल की स्क्रीन पर यूट्यूब के जरिए कहानियाँ देख रहे हैं. उनका पूरा बौद्धिक स्पेस मोबाइल और इंटरनेट तक सिमट गया है.हिंदी साहित्य के केंद्र में बाल साहित्य कभी नहीं रहा . हमेशा से बाल साहित्य को अगंभीर साहित्यिक कर्म के रूप में देखा गया . आज भी बाल साहित्य के अस्तित्व पर अलग से कम ही बात होती है. इसलिए कभी बचकाना साहित्य कह कर तो कभी साहित्यिक गंभीरता (जो कम ही दिखती है) के नाम पर बाल साहित्य को केंद्र से बाहर ही रखा गया. इसके बावजूद हिंदी में बाल साहित्य लेखन आरंभ से होता रहा . अगर बाल साहित्य पर एक नज़र दौड़ाएँ तो बाल साहित्य के रूप में हमारे यहाँ नीति-कथाओं से लेकर लोककथाओं तक का एक लंबा इतिहास रहा है जो एक ‘सीख’ के साथ-साथ बच्चों का मनोरंजन भी करता आया है.इन कथाओं में ‘पंचतंत्र’ एक ऐसी पुस्तक रही है जिसका संबंध हर बचपन से जुड़ा रहा. इसके आतरिक्त मौखिक रूप से परियों की कहानियों से लेकर नानी और दादी की ‘होममेड’ किस्सों के कल्पना लोक में हर बाल मन विचरण करता आया है . ये किस्से और कहानियाँ बचपन को एक मानसिक संस्कार देती थी, जिसमें मनोरंजन के साथ-साथ एक सीख, एक उपदेश अंतर्निहित होता था. समय के अनुसार इसमें भी परिवर्तन हुआ आज बच्चे कल्पना में नहीं बल्कि यथार्थ में विचरण करना चाहते हैं . बच्चे किसी भी बात को सहज स्वीकार नहीं करते हैं.इस बदलाव में समय, परिस्थितियों के साथ परिवार के वातावरण की अहम भूमिका रही है. कहानी आरंभ से ही बाल साहित्य की प्रमुख विधा रही है पर आज उपन्यास से लेकर कविता, नाटक, व्यंग्य आदि विधाओं में भी बाल साहित्य रचा जा रहा है . बाल साहित्य का प्रभाव आज बच्चों पर कितना पड़ रहा है? सूचना और विज्ञान के इस युग में बाल साहित्य की सार्थकता क्या है? कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनके बारे में गंभीरता से विचार करने की जरूरत है बाल साहित्य यानी बच्चों के लिए लिखा गया साहित्य. साहित्य के माध्यम से बच्चों में ‘खास तरह’ का संस्कार पैदा करना बाल साहित्य का ध्येय होता है. खास तरह से आशय यहाँ बच्चों को अपनी परंपरा, संस्कृति और महानता से परिचय कराना होता है. दिविक रमेश एक आलेख में बाल साहित्य का आशय स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि- “बालसाहित्य का मूल आशय बालक के लिए सृजनात्मक साहित्य से है” लेकिन बालसाहित्य के संदर्भ में हरिकृष्ण देवसरे का मत थोड़ा अलग है, वे लिखते हैं कि- “ किसी भी बालक का मानसिक और चारित्रिक विकास को जो तत्व प्रभावित करते हैं उनमें बच्चों का अपना सामाजिक और पारिवारिक परिवेश, माता-पिता की विचारधारा और स्कूल के वातावरण की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. किंतु इन सबसे अधिक पैना और गहरा प्रभाव वह साहित्य छोड़ता है जिसे वे अपना समझ कर पढ़ते हैं, जो उनकी रुचि के अनुकूल होता है, जिससे वे तादात्म्य स्थापित करते हैं और जिसमें वे अपने मन की अनुभूतियों की अभिव्यक्ति पाते हैं. वस्तुत: यही साहित्य ‘बालसाहित्य’ कहलाता है. पुराने जमाने में यह बालसाहित्य अलिखित या मौखिक रूप में था”. मूलत: बाल साहित्य वह साहित्य है जो मनोरंजन के साथ-साथ बच्चों में पठन–पाठन का संस्कार विकसित करता है. बालसाहित्य की आरंभिक धारा को बाल कविता के जरिए ही अपेक्षित विस्तार मिला जिसकी स्पष्ट झलक उन्नीसवीं शताब्दी के उतरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध काल से ही देखने को मिल जाती है. भारतेन्दु युग में हिंदी की प्रथम बाल पत्रिका ‘बाल दर्पण’ (1882) निकलती है, इसके साथ ही बाल साहित्य लेखन का आविर्भाव हिंदी में होता है. हिंदी कविता में श्रीधर पाठक से बाल कविता लेखन की शुरुआत होती है . इस दौर में श्रीधर पाठक (बाल भूगोल, भारत गीत) के अतिरिक्त बाल मुकुन्द गुप्त (खिलौना) महावीर प्रसाद द्विवेदी (बालविनोद), अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ (बाल-विभव, चंद्र खिलौना) आदि ने भी बाल कविताएं लिखीं. इस युग में विद्याभूषण विभु जैसे कवि भी थे जिन्होंने ने प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य लिखा इनकी कविता ‘घूम हाथी झूम हाथी’ बड़ी चर्चित रही है. इसके अलावा महादेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, रामधारी सिंह दिनकर आदि कवियों ने भी ‘शिशु’, ‘बालसखा’ जैसी बाल पत्रिकाओं के माध्यम से बाल साहित्य को समृद्ध किया और उसके विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई . इस पूरे कालखंड की बाल कविताओं में ‘नीतिपरक’ संदर्भ अधिक देखने को मिलते हैं लेकिन समय, काल और परिस्थितियों के अनुसार बाल साहित्य के विषय और कलेवर में परिवर्तन आया. आजादी के बाद बाल साहित्य की भाषा तुतलाने की बजाय सीधे-सीधे तौर पर संवाद करने लगी और ‘नीति’ की जगह उसमें अब बच्चों की रुचि और एक नए समाज की कल्पना का समावेश दिखाई देने लगा . आजादी के बाद की बाल कविता को एक दिशा देने तथा व्यापक पहचान दिलाने का काम कवि शेरजंग गर्ग ने किया. बदलती मनोवृति के अनुरूप कविता की भाषा और शिल्प में परिवर्तन बालकवि शेरजंग गर्ग की कविताओं में देखा जा सकता है. लेकिन इस पूरे परिवर्तन को अखिलेश श्रीवास्तव परिस्थितिजन्य मानते हैं और इन परिस्थितियों का बाल मन व बाल कविता से रिश्ते को कुछ ऐसे व्याख्यायित करते हैं “स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश में आए व्यापक सामाजिक परिवर्तन के साथ ही बच्चों के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में भी भारी बदलाव आया. अभी तक परिवार तथा समाज में बच्चों की रुचियों तथा आवश्यकताओं को गंभीरता से नहीं लिया जाता था. लेकिन स्वतंत्रता के बाद बच्चों के अस्तित्व को मान्यता मिली, परिवार, समाज में उनको महत्व मिलने लगा उनमें शिक्षा के प्रचार- प्रसार पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा”. इस परिवर्तन का प्रभाव बाल कविता पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है.. अब तक बाल कविता बाल साहित्य की एक सशक्त विधा बन चुकी थी. बच्चे आरंभ में लोरियों और शिशुगीतों के माध्यम से कविताएं सीखते हैं. किन्तु हिंदी में अधिकांशत: जो कविताएं लिखी गई वे छोटे बच्चों को ध्यान में रख कर लिखी गई . बड़े बच्चों के लिए जो कविताएं लिखी गई हैं, वे या तो राष्ट्रीय भावना की कविताएं रही हैं, या उन्हें कुछ सीखाने के उद्देश्य से लिखी गई थीं. बढ़ती उम्र के बच्चों यानी किशोर वय के बच्चों की मानसिकता और उनकी सोच को अभिव्यक्ति देने वाली कविताओं का नितांत अभाव रहा. इस अभाव को काफी हद तक दूर करते हैं. देखा जाए तो आज के बच्चों के पास अनंत जिज्ञासाएँ हैं . वे इतना कुछ जानना चाहते हैं कि सब कुछ बता पाना शायद संभव नहीं. बच्चे वह सब कुछ जानने के लिए उत्सुक रहते हैं जो उनके आस-पास घट रहा होता है. चाहे वह चाँद पर आदमी पहुँचने की घटना हो, बलात्कार की घटना हो, दंगों की घटना या फिर विज्ञापनों के माध्यम से दिखाई जाने वाली सामग्री के बारे में हो. इसलिए आज जरूरी है कि उन्हें बदलते परिवेश के लिए तैयार किया जाए. यह समय चंदा-मामा की कहानियों का नहीं रहा न ही ‘मोगली’ की जंगल गाथा का यह समय ‘टॉम एंड जेरी’ से भी आगे बढ़ चुका है आज का समय ‘हथोड़ी’ और ‘छोटा भीम’ का समय है जिसके पास करामाती शक्तियाँ हैं जो बच्चों की फांतासी को बहुत दूर तक ले जाता है. इसमें भले ही बाजार की अहम भूमिका हो पर बच्चों की बदलती मानसिक संरचना को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है. बाल्यावस्था में जिज्ञासा की प्रवृति तेज होती है। बच्चों को ऐसे समय बाल साहित्य की जरूरत पड़ती है। ऐसा साहित्य जिसमें कहानियां ऐसी हो जो जीवन निर्माण के लिए जरूरी हो। शिक्षाप्रद हों। प्रेरक प्रसंग महापुरुषों की जीवनियों की पुस्तकें वैज्ञानिकों की जीवनियां कविताओं की किताबें आदि बाल साहित्य बच्चों को उपलब्ध कराना चाहिए। घर पर अभिभावक भी किताबें पढ़ें। ताकि बच्चे अनुकरण कर स्वाध्याय करना सीख सकें। बालक को सुसंस्कारित करने हेतु सामाजिक प्राणी बनाने के लिए जितनी भी परम्पराएं नियम और वस्तुओं विकास की कहानी बतानी होती है ये सभी संस्कृति के अंग हैं।बालक हमेशा आनंद के लिए उत्सुक होता है। बालक की रुचियों को पहचान कर उनकी ही भाषा में लिखे गए मनोरंजक साहित्य को बालक अवश्य अपनाते हैं आज बाल साहित्य की बहुत आवश्यकता है। पहले दादा दादी नाना नानी लॉज कथाएं सुनाया करते थे। लोक कथा का उद्भव बाल जीवन से ही आरम्भ हो जाता है। लोककथा का अर्थ है लोगों द्वारा किये गए कार्यों को शब्द साहित्य द्वारा रेखांकित कर कहानी रूप में व्यक्त करना। यह साहित्य बालकों के लिए कल्पनाशील साहित्य है। आज की पत्र पत्रिकाओं में बाल साहित्य बहुत कम प्रकाशित होता है जो चिंताजनक हैं। सबका सार यही है कि बाल साहित्य हमारी अमूल्य निधि हैं और उसे पढ़कर तथा संजोकर ही हमारी आनेवाली पीढ़ी समृद्ध बन सकेगी।. युवा संस्कृतिकर्मी हेम पंत द्वारा उत्तराखंड की स्थानीय भाषाओं गढ़वाली, कुमाउनी, जौनसारी, व रवांल्टी आदि के बालगीतों को संकलित कर तैयार की गई उत्तराखंड की पहली पारम्परिक बालगीतों की पुस्तक घुघूति बासूति को पाठकों ने खूब प्यार दिया है। प्रकाशन के पहले ही वर्ष में इस संग्रह के चार संस्करण आ गए हैं। यहां तक कि प्रदेश के पौड़ी, अल्मोड़ा, उधमसिंह नगर, पिथौरागढ़ व बागेश्वर आदि जिलों के अनेक निजी व सरकारी प्राथमिक विद्यालयों ने इस पुस्तक को अपनी शिक्षणेत्तर गतिविधियों से जोड़ लिया है। इतना ही नहीं नई शिक्षा नीति के तहत तैयार हो रहे पाठ्यक्रम की संदर्भ सामग्री के रूप में भी इस पुस्तक का प्रयोग विभिन्न डाइट द्वारा किया जा रहा है। अनेक विद्यालयों में छोटी कक्षाओं के बच्चों को इस किताब से पढ़ाकर बालगीत सिखाए जा रहे हैं।देश-विदेश में बसे उत्तराखंड के युवाओं ने इस पुस्तक को खूब समर्थन दिया है। निजी सहयोग से प्रदेश के पिथौरागढ़, बागेश्वर, चंपावत, ऊधम सिंह नगर आदि जिलों में यह पुस्तक सरकारी विद्यालयों के बच्चो को भी वितरित की गई है।यहां तक कि प्रदेश के मुख्यमंत्री अपने अधिकारिक फेसबुक पेज पर घुघूति बासुति बालगीत पुस्तिका की सराहना करते हुए टिप्पणी लिख चुके हैं। एक निजी विद्यालय के बालगीत गाते बच्चों का बीडियो शेयर करते हुए मुख्यमंत्री ने लिखा है कि घुघूति बासुति उत्तराखंड के परम्परागत बालगीतों का संकलन कई स्कूलों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बनकर बच्चों को अपनी बोली भाषा संस्कृति से जोड़ने में सहायक साबित हो रहा है। प्रदेश की संस्कृति के संबर्द्धन के दृष्टिगत नई पीढ़ी को अपनी स्थानीय बोली से अवगत कराने का यह प्रयास अंत्यंत सराहनीय है। सितम्बर को मुख्यमंत्री द्वारा शेयर की गई धुघूति बासुति पुस्तक से जुड़ी पोस्ट को हजारों लोगों ने देखा है।पूरे प्रदेश से बालगीतों का संकलन करने वाले युवा संस्कृतिकर्मी हेम पंत ने बताया कि इस पुस्तक के प्रति शिक्षकों व विद्यार्थियों के साथ आम पाठकों का जबरदस्त रुझान रहा है। इस पुस्तक की सफलता ने आगे और बालगीतों के संकलन की प्रेरणा मिली है।पुस्तक के प्रकाशक समय साक्ष्य के प्रवीन कुमार भट्ट ने बताया कि पहले ही साल में किताब का तीसरा संस्करण आ रहा है। इससे यह साबित होता है कि अपनी बोली भाषा और संस्कृति के प्रति उत्तराखंड के लोगों का प्रेम अतुलनीय है। उन्होंने बताया कि इस पुस्तक को अमेरिका, न्यूजीलेंड, आस्ट्रेलिया, सउदी अरब, थाईलैंड, मलेशिया, इंडोनेशिया सहित अनेक देशों के पाठकों द्वारा मंगाया गया।बालसाहित्य के सृजन, सरोकार एवं लेखकीय जिम्मेदारी पर भी रचनाकारों को नए तरीकों से विचार करना होगा। बालसाहित्य पर देश की भावी पीढ़ी का भविष्य अवलम्बित है। बाल साहित्य सृजन जिम्मेदारी भरा कार्य है।सबसे पहली आवश्यकता पठन-पाठन की परंपरा को एक आंदोलन के रूप में पुनर्जिवित करने की है। नई पुस्तकें पढ़ने के लिए बच्चों को प्रेरित व पुरस्कृत किया जाए। वहीं अच्छे लेखकों, इस क्षेत्र में नि:स्वार्थ भाव से कार्य करने वाले व्यक्तियों, संस्थाओं को सम्मानित किया जाए।बालसाहित्य के रूप में संजोए गए शिशु गीत, लोरियों, बालगीत, कविता, कहानियां, नाटक, संस्मरण, यात्रा वृतांत, लोक कथाएं रूपी अमूल्य धरोहर काल कवलित न हो जाए। आने वाली पीढ़ी के हाथों यह संपदा हमें सुरक्षित सौंपनी है? बालप्रहरी एवं बालसाहित्य संस्थान अल्मोड़ा तथा अणुव्रत विव भारती राजसमंद तथा बच्चों का देश पत्रिका बच्चों की लेखन कार्यशालाओं का आयोजन कर जहां बच्चों के लेखन कौशल को बढ़ाने के लिए प्रयास रत हैं, वहीं बच्चों को पठन-पाठन के लिए भी तैयार कर रहे हैं. बालप्रहरी, अभिनव बाल मन, देवपुत्र, आदि पत्रिकाएं बच्चों की लेखन प्रतिभा को प्रोत्साहित करने के लिए बच्चों की रचनाओं को प्राथमिकता से प्रकाशित कर रही हैं. आज बालसाहित्य बहुत लिखा जा रहा है. उसे बच्चों तक पहुंचाना चुनौतीपूर्ण कार्य है. लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।