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जो कभी कूड़ा बीनते थे, भीख मांगते थे अब अपने गरीब मां-बाप का आर्थिक सम्बल बन रहे हैं देखें वीडियो

24/11/18 - Updated on 27/11/18
in उत्तराखंड, पौड़ी गढ़वाल
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वंचित बच्चों के जीवन को सवांरती शिक्षिका संगीता फरासी

बैकुंठ चतुर्दशी मेला, श्रीनगर जाने का इरादा है तो वहां वंश, कृष्णा और अंकुल के स्टाल पर जरूर जायें। इनके हुनरमंद हाथ रंगीन कागजों से आपके बच्चों के लिए मनचाहे खिलोने या आपके लिए कोई शोपीस मिनटों में बना देंगे। आपके बच्चे खिलोने से खुश होगें तो ये बच्चे भी उसे बेचकर उनसे ज्यादा खुश होगें। क्योंकि इन बच्चों की खुशी में उनके परिवारों की आर्थिक खुशी भी शामिल है। हां, ये बच्चे नियमित पढ़ते भी हैं और अपने परिवार के लिए मजबूत आर्थिक संबल भी है। शिक्षिका संगीता फरासी इन बच्चों की मार्गदर्शी है। संगीता जी ने ही किसी अन्य के स्टाल के साथ साझा करके इन बच्चों को उद्यमीय शिक्षा की ओर प्रेरित किया है।

अंकुल, उर्वशी, कृष्णा, वंश, काजल, आकाश, निहाल, हीना, मान सिंह, व्रिकांती, वैष्णवी ऐसे ही खूबसूरत नामों वाले और भी कई बच्चे हैं। जिनके नाम तो सुन्दर हैं पर उनकी जीवन की डगर जन्म लेते ही भटकी हुई थी। अभावों के पालने में पलते यह बच्चे संस्कारों की पकड़ से भी छूटते जा रहे थे। कूडा बीनते अपने भविष्य को तलाशना या फिर भीख मांगते हुए लोगों की दुत्कार को सहना ही इनके लिए बचपन के मायने थे। पर अब बहुत-कुछ ऐसा नहीं है। पढ़ने-पढ़ाने की ललक अब इनको ही नहीं इनके अभिभावकों के मन-मस्तिष्क में भी आ गई है। अध्यापिका संगीता फरासी जी के विगत तीन साल के अनवरत प्रयासों और समर्पित भावों से ऐसा संभव हुआ है।

संगीता फरासी श्रीनगर के निकटवर्ती गांव गहड़ के राजकीय प्राथमिक विद्यालय में शिक्षिका हैं। वह यह बखूबी जानती हैं कि बच्चे के लिए शिक्षा जीवन में शुद्ध हवा की तरह जरूरी है। साथ ही पारिवारिक-सामाजिक वातावरण के जागरूक होने पर ही बच्चे को स्कूल की ओर प्रेरित किया जा सकता है। संगीता बताती हैं कि ‘वे जब बच्चों को कूड़ा बीनते और भीख मांगते देखती हैं तो यही प्रश्न मन में आता है कि क्या हम शिक्षकों की जिम्मेदारी मात्र अपने विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों तक ही है। स्कूलों से बाहर रह रहे वंचित समाज के बच्चों के लिए शिक्षक की भूमिका कौन निभायेगा ? तब शिक्षक होने नाते मुझे लगता है कि ऐसे बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए हमें ही आगे आना चाहिए। बस, यही विचार ‘प्रेरणा’ बना और आज मेरी दिनचर्या का अहम हिस्सा बन गया है।

श्रीनगर गढ़वाल की तलहटी में कभी अविरल बहने वाली अलकनंदा नदी (आज तथाकथित विकास से उपजा रौखड़) के किनारे झुग्गी-झोपड़ी वाली एक सघन बस्ती है। घरेलू उपयोगों की चीजों (यथा- छाता, गैस, स्टोव, चेन, प्रेशर कुकर आदि) की मरम्मत के हुनरमंद लोग यहां है। कान की सफाई के काम में ये अपने को पैतृक उस्ताद मानते हैं। इसके लिए दूर-दूर तक के गांव-कस्बों में इनकी पहुंच है। परन्तु इस बस्ती के सामाजिक जीवन का स्याह पक्ष यह है कि यहां की अधिकतर महिलायें और बच्चे भीख मांगने की प्रवृत्ति को भी अपना पैतृक व्यवसाय मानते हैं। वे इस काम में इतने निपुण हैं कि प्रतिदिन 200 से 250 रुपये प्रति व्यक्ति भीख उनके लिए औसत आमदानी है। विशेषकर बच्चा उनके लिए आमदानी का सबसे लाभकारी माध्यम है। ऐसे में बच्चे को शिक्षा दिलाने की जरूरत और दायित्व का विचार उनसे कोसों दूर है। मुश्किल यह है कि सामाजिक विसंगतियों के इस कुचक्र को तोड़ना आसान नहीं है। परन्तु शिक्षिका संगीता फरासी की विगत तीन वर्षों की कड़ी मेहनत ने इस बस्ती के सयानों और विशेषकर बच्चों की शिक्षा के प्रति अभिरूचि की वैचारिक अलख तो जगा ही दी है। अब उसे निरंतर एक सही दिशा और गति प्रदान करने की जरूरत है।

संगीता का वंचित बच्चों को शिक्षा से जोड़ने का शुभारंभ तीन वर्ष पूर्व हुआ। संगीता बताती हैं कि ‘पहले तो बस्ती में जाना फिर वहां लोगों से बात करना ही मेरे लिए संकोच और उबाऊ भरा था। बस्ती के लोगों को बच्चों की शिक्षा के महत्त्व को समझाना आसान नहीं था। फिर भी कई प्रयासों एवं प्रोत्साहन के माध्यम से बस्ती के 11 बच्चों को सांयकाल में 5 से 7 बजे तक पढ़ाने के लिए मैंने तैयार किया। बच्चों को पढ़ने की सामाग्री के साथ ही पहनने और साफ-सफाई की व्यवस्था की। इन बच्चों को नगरपालिका, श्रीनगर के प्राथमिक स्कूल में दाखिला भी दिलाया। यद्यपि बच्चों की नियमित उपस्थिति विद्यालय में रह पाना संभव नहीं हो पाया है परन्तु सांयकालीन कक्षाओं में उनकी उपस्थिति उत्साहवर्घक रही है’।

शिक्षिका संगीता जी इस बात को भली-भांति जानती थी कि सांयकालीन कक्षायें चलनी तो शुरू हुई परन्तु बच्चों और उनके अभिभावकों की अभिरूचि को रोज बनाये रखना आसान नहीं है। संयोग से कुछ समय बाद युवा अनिल बड़वाल बतौर क्राफ्ट टीचर उनके साथ इस नेक कार्य में जुड़ गये। पैतृक रूप से तकनीकी कौशल में दक्ष परिवारों से जुड़े इन बच्चों के लिए क्राफ्ट कार्य सीखना कोई मुश्किल नहीं था। बच्चे पढ़ने के साथ-साथ विभिन्न चीजों को बनाने में अभिरूचि लेने लगे। अब राह थोड़ा सरल होने लगी। संगीता जी ने सांयकाल के इस औपचारिक विद्यालय में इन बच्चों के आत्मबल और व्यक्तित्व को निखारने के लिए सांस्कृतिक गतिविधियों की भी शुरूवात कर दी। गायन, नृत्य, भाषण और खेलकूद ने इन बच्चों की बहुआयामी प्रतिभा को सामने लाने का काम किया। संगीता जी ने इस दिशा में उल्लेखनीय प्रयास यह किया कि श्रीनगर में होने वाले सार्वजनिक सांस्कृतिक एवं खेलकूद आयोजन में इन बच्चों की सक्रिय भागेदारी कराई। प्रतिष्ठित ‘मां’ फाउंडेशन के सौजन्य से उन्होने इसी बस्ती में स्वास्थ्य शिविर आयोजित किया। शिक्षा और स्वास्थ्य के ये प्रयास कारगर रहे हैं। इसी का परिणाम है कि वंचित बच्चों के जीवन को संवारने के संगीता फरासी के कार्य को श्रीनगर में एक लोकप्रिय पहचान मिली हैै।

यह महत्त्वपूर्ण है कि वर्तमान में संगीता फरासी की चिल्ड्रन एकेड़मी के बरामदे में सांयकालीन कक्षा के 15 बच्चों में से 3 विद्यार्थी यथा- अंकुल, कृष्णा और वैष्णवी नगर के विभिन्न वि़द्यालयों में नियमित शिक्षा ले रहे हैं। इन बच्चों के पठन-पाठन का संपूर्ण उत्तरदायित्व संगीता जी निभा रही हैं। वंचित बच्चों को शिक्षा की मूल धारा से जोड़ने के कार्य का बीड़ा संगीता जी अकेले ही उठाये हुए हैं। परन्तु समय-समय पर इस नेक प्रयास में मित्र शांति कठैत, उपासना भट्ट, अनिल बड़वाल, डाॅ. कविता भट्ट, इंजीनियर सत्यजीत खंडूरी का साथ उनके हौंसले और हिम्मत को ताजगी प्रदान करता है।

संगीता जी के लिए उत्साहजनक बात यह है कि अंकुल जो शिशु मंदिर का 5वीं का छात्र है ने पढ़ाई से इतर खेलकूद में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। इस वर्ष की शिशु मंदिर विद्यालयों की राज्य स्तरीय खेलकूद प्रतियोगिता में अंकुल ने दौड़ में तृतीय स्थान प्राप्त किया है।

यह सुखद आश्चर्य ही है कि अंकुल जो पिछले साल तक दिनभर भीख मांगने में संकोच नहीं करता था आज पढ़ाई, गायन और खेलकूद में अपनी सफलता से गौरवान्वित है। इसी आत्म गौरव से अभीभूत होकर अंकुल पूरे आत्मविश्वास से कहता है कि वह अपनी बिरादरी के अन्य बच्चों को भी भीख मांगने के गलत काम से हटा कर पढ़ने की ओर प्रेरित करेगा। अंकुर का आत्मविश्वास न टूटे अब यह दायित्व उसके शिक्षकों का है।

हम अपने समाज में वंचित बच्चों को देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। भीख मांगते बच्चे को डांटकर उसे उपदेश सुनाते हैं। उसके मां-बाप को बातों से लानत भेजते हैं। और आखिरकार समाज और सरकार को कोसते हुए अपने कर्तव्य की इतिश्री मानकर आगे बड़ जाते हैं। लेकिन आपको नहीं लगता कि उस समय हम कदमों से जरूर आगे बड़े हों परन्तु वास्तव में अपनी सामाजिक दायित्वशीलता से पीछा छुड़ाने के लिए अपने अंदर ही कहीं दुबक गए हों। परन्तु हमारे बीच में संगीता फरासी जी जैसे व्यक्तित्व भी हैं। जो जिम्मेदार नागरिक और शिक्षक होने धर्म को पूरी निष्ठा और कर्तव्यपरायणता से निभा रही हैं। आप भी तो अपने गांव-नगर और कार्यक्षेत्र के आस-पास संगीता फरासी जी की तरह वंचित बच्चों के लिए यह सार्थक पहल कर सकते हो। इजाजत आपको केवल अपने आप से ही तो लेनी है, समर्थवान तो आप हैं ही।

डॉ. अरुण कुकसाल

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