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जलवायु परिवर्तन में प्रकृति पर्व बसंत पंचमी

03/02/25
in उत्तराखंड, देहरादून, संस्कृति
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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड के एकमात्र पहाड़ी बैंड पांडवाज ने भू कानून पर गीत गाकर वाहवाही लूट ली. इतने बड़े मंच पर जहां प्रदेश के मुख्यमंत्री और देश के प्रधानमंत्री के साथ 25 हजार दर्शक थे वहां भू कानून को लेकर गाना गाकर पांडवाज ने उत्तराखंड के लोगों की सशक्त भू कानून की मांग को देश भर में पहुंचा दिया.
देशभर में माता सरस्वती की पूजा की जाती है। माना जाता है कि इस दिन मां सरस्वती का जन्म हुआ
था।बसंत पंचमी से बसंत ऋतु का आगमन होता है। इस दौरान फसलें लहलहाने लगती हैं और बगीचों में
बहार आ जाती देश के अलग-अलग राज्यों में इस त्योहार को कैसे मनाया जाता है।कालिदास के मेघदूत में
वर्णित अलकापुरी हो या “अभिज्ञान शाकुंतलम” में मालनी नदी के तट पर बसा कण्वाश्रम, दोनों ही काव्यों
में प्रकृति का जो अद्भुत वर्णन पढ़ने को मिलता है वह कल्पनातीत है। गंगाओं की लघु वाहिकाओं में जो
अमृत जल निकला वह मानव कल्याण के लिए सुरसरि के माध्यम से लोककल्याण के लिए प्रवाहित होता
रहा है। यह परंपरा युगों से चली आ रही हैं। पूरा हिमालय देवभूमि है। यूं तो सदैव ही यहां देवता सूक्ष्म
भाव में निवास करते हैं, लेकिन उत्तराखंड में बसंत ऋतु में देवता, आम की बौर में, जौ और सरसों की
लहलहाती फसलों में, फ्यूंली के फूलों में, लकदक बुरांस के फूलों में, ग्वीराल की महक में, कोयल की मधुर
आवाज में, “काफल पाको मीन नी चाख्यो” पक्षियों के कलरव में, गाँव की चौपाल में थड़िया और चौंफला
गीतों में, चैत की चैत्वाली में सुनने और देखने को धरती पर उतर आए हों। उस आनंद की अनुभूति
अनिर्वचनीय है। पहाड़ों के ऊंचे शिखरों और गहरी घाटियों में बसे छोटे-छोटे गांवों में रात को उठने वाली
स्वर लहरियों से उपजी कर्णप्रिय मिठास, गीतों में व्यक्त दु:खदर्द भी और उल्लास भी, जो रूपक प्रस्तुत
करता है उसे सुनकर लगता है जैसे स्वर्ग लोक की अछेरी (अप्सराएं) धरती पर आकर प्रकृति की आराधना
कर रही हों।माघ माह में बसंत पंचमी का दिन उत्तराखंड में पर्व और त्यौहार, दोनों रूपों में मनाया जाता
है। पर्व के रूप में लोग विभिन्न पवित्र नदियों में स्नान कर पुण्य अर्जन करते हैं, जबकि त्यौहार के रूप में इस
दिन गांव के कलावंत लोग जौ के खेतों से जौ की हरियाली लेकर आते हैं और अपने-अपने गैखों (यजमानो)
के घरों पर शुभकामनाएं देकर आते हैं, जिन्हें गाय के गोबर के साथ घर के प्रवेश द्वारों के ऊपरी दोनों छोरों
पर लगाया जाता है। यह दिन सरस्वती पूजन और विद्यारम्भ का भी होता है। लोग घरों में विशेष पकवान
बनाते हैं, आदान-प्रदान भी करते हैं, जिन घरों में वर्षभर का शोक हो उन घरों में त्यौहार न होने के कारण
पकवान वहां पहुंचाए जाते हैं। वे लोग जो कलावंत हैं या कामगार हैं उन्हें भी पकवान दिए जाते हैं। इस
दिन पीले चावल और किसी भी तरह का पीले रंग का भोजन करना उत्तम माना जाता है। यह भी कोशिश
रहती है कि बसंत पंचमी के दिन पीले वस्त्र पहने जाय। बसंत पंचमी से हर गांव में खुले आंगन में, चौक में
या गांव से जुड़े किसी बड़े खेत में गांव की नई नवेली बहुएं-बेटियां और यौवन को प्राप्त नव युवतियां रात
का भोजन करने के बाद गांव की चौपाल में इकठ्ठी हो जाती हैं और थड़िया-चौंफला नृत्य गीतों के गायन से
सुरीले स्वरों में पहाड़ों और घाटियों को गुंजायमान कर देती हैं। यह एक परंपरा सी है कि युवतियां एक
गोल घेरा बना लेती हैं एक-दूसरे के कंधों पर या पीठ पर हाथों को फैलाते हुए ये युवतियां पहले स्थान
देवता, ग्राम देवता इत्यादि देवों को समर्पित गीत गाती हैं। उसके बाद बसंत पंचमी से जुड़े गीत गाती हैं जो
समूह स्वरों में गाए जाते हैं। इसके बाद मस्ती भरे थड़िया गीतों का गायन शुरू होता है, जिसमें आधी
युवतियां गीत का एक भाग गाती हैं जबकि आधी युवतियां गीत के दूसरे भाग को।“बसंत पंचमी मौऊ की,
बांटी हरियाली जौ की” यद्यपि बसंत ऋतु लगभग डेढ़ माह बाद आती है, लेकिन प्रकृति जब यौवन की
दहलीज पर कदम रखती है तो यौवन यकायक परिपक्व नही हो जाता। धीरे-धीरे गीतों और नृत्यों की
मादकता भी गुलाचियाँ खाना शुरू करती हैं। जो बहुएं दूर गांव से विवाह होने पर आई है वे अपने इलाके में
प्रचलित गीतों को इस चौपाल में सिखाती हैं। अनुभवी और बूढ़ी महिलाएं पास में बैठी रहती हैं। नर्तकियों
को किसी पुराने गीत में उनकी मदद की जरूरत होने पर वे बूढ़ी महिलाओं की मदद लेती हैं। अक्सर गांव में
किसी न किसी घर से थड़िया गीत गाने वाली महिलाओं के लिए गुड़ या अन्य कोई पकवान भी आता रहता
है। थड़िया गीतों में लयकारी जोरदार होती है। गोल दायरे में पद संचलन गीत की गति के अनुसार होता है।
सामन्यत: दो कदम आगे और एक कदम पीछे की गति रहती आई। बासंती गीतों के इस आयोजन में गाये
जाने वाले इन गीतों का अगला चरण “चौंफला” होता है। चौंफला गीत लगभग गुजरात के डांडिया जैसे ही
होता है। चौंफला गीत में डांडिया की जगह ताली का उपयोग किया जाता है। इस प्रकार के गीतों में लय
तेज होती है। गीत का विषय महिलाओं का दुख दर्द या हास परिहास कुछ भी हो सकता है। मध्य रात्रि से
पहले ये गायिकाएं मस्तीभरे गीतों को पूराकर अपने अपने घर लौट आती हैं। यह क्रम रोज चलता रहता है।
चैत्र माह की सूर्य संकान्ति पूरे उत्तराखंड में “फूलदेई” त्यौहार के नाम से मनाया जाता है। इस दिन गांव
गांव में अक्सर 10-12 साल तक की बच्चियां सुबह जल्दी उठकर अपनी टोकरियों या कंडियों को लेकर खेतों
या जंगलों में जाकर ताजे फूलों को तोड़कर लाती हैं। कई बार लड़के भी उनके साथ इस काम मे शामिल
होते हैं। किंवदंतियां हैं कि पार्वतीजी ने शिव जी को पति रूप में पाने के लिए 12 बसंतों तक फूल चढ़ाकर
शिवजी की पूजा की थी इसलिए प्रतीकात्मक रूप से “फूल देई” नाम से यह त्यौहार प्रचलन में आया। एक
अन्य जनश्रुति के अनुसार रति ने कामदेव को पाने के लिए रैमासी के फूल चढ़ाकर कामदेव को प्रसन्न किया
था। वजह जो भी हो बसंत ऋतु को काम ऋतु भी कहा जाता है। खैर, फूल लाने वाली बच्चियां फूल तोड़कर
लाती हैं और फिर गांव में एक छोर से दूसरे छोर तक जितने भी घर हों सभी की दहलीज पर फूल डालकर
अपने-अपने घर लौटती हैं। पूरे चैत्र माह में बिना कोई दिन छोड़े, वे सुबह-सुबह फूल लाने और डालने का
काम करती हैं। कभी-कभी घरों से उन्हें उपहार स्वरूप गुड़ या कोई पकवान भी मिलता रहता है। फूल देई
का एक प्रसिद्ध लोकगीत है जिसे गाते हुए ये बच्चे फूल तोड़ने जाते है या दहलीज पर डालने जाते हैं।फूल देई
छम्मा देई-चला फुलारी फूलों कू-सादा सादा फूल बिरोला ।चलो फूल तोड़ने चलते है, अनछुए फूलों को
तोड़कर लाते हैं। अभी भंवरों ने भी फूलों को जूठा नहीं किया होगा)। उधर प्रत्येक गांव में नव विवाहित
लड़कियां चैत्र माह में अपने-अपने मायके आ चुकी होती हैं। चैत्र संक्रांति से थडिया गीतों की प्रस्तुति को
नया उत्साह मिल जाता है। कुछ नई बहुएं अपने मायके जा चुकी होती हैं और इस गांव की नवविवाहित
बेटियां इस गांव आ चुकी होती हैं। अब प्रकृति में बहार आ चुकी होती है। तब गीत भी नए बोलों के साथ
सुनने को मिलते हैं-सेरा की मींडोली, नै डाली पैंया जामी, दिवता का सत न नै डाली पैंया जामी.. (जल
सिंचित खेत की मेंढ पर पैंया (एक पेड़ का नाम) उग आया है देवताओं के सात के प्रभाव से पैंया उग आया है
इत्यादि), मेरी ज्वाल्पा देवी, सौंजड़यों दे मिलाई, मेरा मैता की देवी सौंजड़यों दे मिलाई (ज्वाल्पा देवी जी
जोड़ियों को बनाने वाली देवी है वह जोड़ीदारों को मिला दे। जो मेरे मायके की भगवती है वह जोडिड्सरों
को मिला दे), फूलों कविलास रैमासी को फूल, फूलों कविलास के मैना मा फुलालो, फूलों कविलास चैत मा
फुलालो, फूलों कविलास कै डांडा फुलालो (रैमासी का फूल कैलाश पर्वत पर फूलेगा, यह किस महीने
फूलेगा? यह चैत के महीने में फूलेगा। यह किस पर्वत पर फूलेगा?.) इस तरह के अनेक प्रकृति के गीत हैं जो
इस बसंतोत्सव में गाये जाते हैं। इस दौरान उसी खुले आंगन में महिलाएं स्वांग भी करती हैं। कोई नेता,
पुलिस या सेना की वर्दी पहनकर उस भूमिका में आएगी। कोई अन्य तरह के पुरुष वेश भूषा धारण कर
लेगी। हंसी ठिठोली करेगी। यह हास परिहास पूरे चैत्र माह में चलता है। यह चैत्र माह सौर मास का होता
है। इसी दरमियान (फागुन माह की पूर्णिमा) होली भी आ जाती है। इसमें लड़कों की भूमिका ज्यादा रहती
है सप्तमी के दिन होली स्थापित करने का दिन होता है। लड़के लोग घर-घर जाकर होली के गीत गाते हुए
शुभकामनाएं देते हैं। इस दौरान देवर भाभियों के मध्य हास परिहास और एक-दूसरे पर रंग डालने का हंसी
मजाक भी होता है।उत्तराखंड में यह बहुत सुखद परंपरा है कि चैत्र माह में ओजी (कलावंत) अपने यजमानो
की समृद्धि की कामना के लिए चैत्वाली गाने भी आते है और गांव की जिन बेटियों के ससुराल में छोटे-छोटे
बच्चे होते हैं ये कलावंत उनके लिए नए कपड़े आभूषण आदि लेकर जाते हैं। बदले में उन्हें दुगुना उपहार भी
मिलता है। इन सभी उत्सवों का समापन वैशाखी के दिन होता है। इस दिन वैशाख माह की सौर संक्रांति
होती है। उत्तराखंड में इस दिन को पर्व और त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। लोग गंगा जी या अन्य
पवित्र नदियों में स्नान कर पुण्य अर्जित करते हैं। छोटे बच्चे जो पूरे माह फूल तोड़ने जाते हैं, यह दिन उनके
लिए खास होता है। उन्हें हर घर से पकवान और पैसे भी मिलते हैं। थडिया गीत गाने वाली महिलाएं ढोल
बाजे के साथ स्नान करने पवित्र नदियों की ओर जाती हैं जहां बड़े-बड़े मेले आयोजित होते हैं।उत्तराखंड में
बसंत पंचमी से लेकर वैशाखी पर्व तक प्रकृति रिझाती है, फूलों जैसे खिलने का अवसर देती है। यह
उत्तराखंड का लोकपर्व है। जिसे कुमाऊं में सिर पंचमी का त्यौहार कहते हैं। कुमाऊं में यह त्यौहार बड़े
हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इस त्यौहार में विशेष यह है कि इस दिन खेतों से जौ की पत्तियां लाकर
सर्वप्रथम स्नान करने के उपरांत जी की पत्तियां मंदिरों, देवालयों में चढ़ाई जाती है। फिर परिवार के सभी
सदस्य एक दूसरे को हरेले की तरह जौ पूजते हैं। लड़कियां अपने माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-चाची,
ताऊ-ताई आदि घर के सभी सदस्यों के सिर में जौ पूजती हैं। बालिकाएं इस पावन दिन अपने नाक-कान
छिदवाती हैं। कुमाऊं के अल्मोड़ा, बागेश्वर, पिथौरागढ़, नैनीताल, चंपावत जनपदों के कई भागों में इस
दिन जौ की पत्तियां गाय के गोबर के साथ टीका चंदन कर घर की देहरी पर भी रखते हैं। देवभूमि के कई
भागों में इस दिन यज्ञोपवीत चूडाकर्म संस्कार भी करवाए जाते हैं। बसंत पंचमी के दिन छोटे बच्चों की
शिक्षा-दीक्षा आरंभ करने के लिए भी लिए भी यह पावन दिन शभ माना जाता है अत्यंत शुभ माना जाता
है। इस पावन दिवस पर बच्चे की जीभ में मधु अर्थात शहद से ओम बनाना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि
ऐसा करने से बच्चे ज्ञानवान बनते हैं। क्योंकि जिह्वा का संबंध मां सरस्वती से है। वाणी जो जिह्वा से प्रकट
होती है, उसका संबंध भी मां सरस्वती से है। इसके अतिरिक्त 6 माह पूरे कर चुके बच्चे को अन्न का पहला
निवाला अर्थात अन्नप्राशन के लिए भी यह पावन दिन शुभ माना जाता है। इस दिन मुहूर्त सुजाने की
आवश्यकता नहीं होती है। बसंत पंचमी के दिन सरसों के खेतों में सुनहरी चमक फैल जाती है। पेड़ों पर फूल
खिलने लगते हैं। संपूर्ण धरती श्रृंगार करती है।आदिकाल से ही विद्वानों ने भारतवर्ष में पूरे वर्ष को 6 भागों
में विभक्त किया था। जो छह ऋतु के नाम से जानी जाती हैं। इसमें वसंत ऋतु लोगों को सबसे मनचाही एवं
सर्वश्रेष्ठ ऋतु लगी। इसी कारण इसे ऋतुराज के नाम से भी जाना जाता है। मात्र प्रकृति प्रेमियों के लिए ही
नहीं, वरन सभी जीव- जंतुओं के लिए भी यह महत्वपूर्ण है। यह वह मौसम है जब प्रकृति में बहार आ जाती
है। सरसों के खेत सुनहरे रंग से चमकने लगते हैं। जौ एवं गेहूं की बालियां आने लगती हैं। प्रत्येक तरफ रंग-
बिरंगी तितलियां मंडराने लगती हैं। इसी ऋतुराज वसंत के स्वागत के लिए माघ मास के शुक्ल पक्ष पंचमी
के दिन उत्सव मनाया जाता है। जिसमें मां सरस्वती, ब्रह्मा, विष्णु एवं कामदेव की पूजा होती है। जो बसंत
पंचमी का त्यौहार कहलाता है।इस दिन बसंती अर्थात पीले रंग का का विशेष महत्व है। लोग पीले रंग के
वस्त्र धारण करते हैं। यदि संभव न हो तो कम से कम पीले रंग का रुमाल अपने पास रखते हैं और पीले रंग
का रुमाल मंदिरों, देवालयों में चढ़ाते हैं। इस दिन पकवान भी पीले रंग के बनाकर रिश्तेदारों, मित्रों एवं
आस पड़ोस में बांटने की परंपरा भी है। इसके अतिरिक्त छोटे शिशुओं की शिक्षा का प्रारंभ भी इसी दिन से
किया जाता है। शिशु की तख्ती पर शुभ चिन्ह अंकित कर शिशु को अक्षर ज्ञान कराने का प्रारंभ भी इसी
दिन किया जाता है। अब वर्तमान आधुनिक समय में तख्ती पर लिखने की परंपरा तो रही नहीं। शिशु को
अक्षर ज्ञान घर पर कराने की व्यवस्था भी लगभग समाप्त हो चुकी है। इसके बावजूद भी शिशु के विभिन्न
संस्कार इस पावन तिथि पर संपन्न किए जाने की परंपरा कुछ शेष बचीहै।देवभूमि उत्तराखंड के कुमाऊं
संभाग में इस पावन दिवस का एक और महत्व इस कारण से भी है कि बसंत पंचमी के दिन से ही कुमाऊंनी
बैठकी होली का आरंभ भी इस दिन से होता है। कुमाऊंनी बैठकी होली की परंपरा के अनुसार इस पावन
दिवस से लेकर फाल्गुन शुक्ल पक्ष एकादशी अर्थात आंवला एकादशी तक बैठकी होली गायन चलता है।
इसी प्रकार बैठकी होली के गायन के प्रारंभ के साथ ही होली के उत्सव का प्रारंभ भी हो जाता है। हमारे
प्राचीन ग्रंथों के अनुसार सृष्टि के प्रारंभ काल में भगवान विष्णु की आज्ञा से ब्रह्मा ने 8400000 योनियों के
साथ मनुष्य योनि की रचना का, इसके बावजूद भी वे अपनी इस रचना से पूर्णतया संतुष्ट नहीं थे। उन्हें
लगता था कि सृष्टि में कुछ कमी रह गई है। जिस कारण चारों ओर मौन संस्कार अर्थात जनेऊ संस्कार एवं
अया रहता है।अंत में विष्णु भगवान से आज्ञा लेकर ब्रह्मा ने अपने कमंडल से पृथ्वी पर जल छिड़का। जिस कारण
जल के कण बिखरते ही उसमें कंपन होने लगा तथा वृक्षों के बीच से एक अद्भुत शक्ति प्रकट हुई। प्रकृति का यह
प्राकट्य एक चतुर्भुज देवी के रूप में था, उसके एक हाथ में वीणा थी तथा दूसरा हाथ वर देने की मुद्रा में था। अन्य दो
हाथों में पुस्तक एवं माला थी। ब्रह्मा ने देवी को हाथ जोड़कर प्रणाम किया तथा उनसे वीणा बजाने का अनुरोध कियो
। जैसे ही देवी ने वीणा के तारों को झंकृत किया, मधुर नाद से धरती के सभी जीव-जंतुओं को वाणी प्राप्त हो गई।
विश्व के समस्त जल धाराओं में स्वरों का संचार होते ही उसमें कोलाहल व्याप्त हो गया। ऋग्वेद में कहा गया है कि-
प्रणोदेवी सरस्वती वाजेभिवर्जिनीवती धीनामणित्रयवततु। अर्थात यह परम चेतना है, सरस्वती के रूप में यह हमारी
बुद्धि प्रज्ञा तथा मनोवति की संरक्षिका है। हममें जो आचार और मेधा है, उसका आधार देवी भगवती सरस्वती ही
है।लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।

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