शंकर सिंह भाटिया
विधानसभा की 70 सीटों में से किसी पार्टी को 57 का बहुमत मिला हो और सवा चार साल में बदल-बदल कर तीन मुख्यमंत्री लाए जाएं, किसी के समझ से बाहर है, यह कौन सा लोकतंत्र है, इसके बाद भी हाई कमान की जै-जै है।
सन् 2017 में जब भाजपा को उत्तराखंड में बंपर बहुमत मिला तो किसी को यह आस नहीं थी कि सवा चार साल के कार्यकाल में ही हाई कमान को एक के बाद तीन मुख्यमंत्री थोपने को मजबूर होना पड़ेगा। जब त्रिवेंद्र सिंह रावत को नेता चुनने का फरमान दिल्ली से आया तो थोड़ा आश्चर्य जरूर हुआ, लेकिन सबने इसे स्वीकार कर लिया। जब त्रिवेंद्र का दौर आगे बढ़ा तो उन्हीं के साथ यूपी में मुख्यमंत्री बनाए गए योगी आदित्यनाथ से उनकी तुलना होने लगी। गौरतलब है कि अजय बिष्ट सन्यास के बाद जिन्हें योगी आदित्यनाथ के नाम से जाना जाता है, पौड़ी जिले के ही मूल निवासी हैं। त्रिवेंद्र रावत भी पौड़ी जिले के ही मूल निवासी हैं। मीडिया में भी यह मुद्दा लगातार छाया रहा।
किसने क्या किया? क्या उचित था? क्या अनुचित था? इस पर बहस बहुत विस्तृत हो जाएगी। यहां दोनों पौड़ीवासी मुख्यमंत्रियों के काम करने की मंशा पर बात करते हैं। जो उत्तराखंड में अक्सर होता रहा है, पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी से लेकर सभी मुख्यमंत्रियों पर रिश्तेदार हावी रहे हैं। मुख्यमंत्री बनते ही किसी के बेटी-दामाद, किसी की पत्नी, किसी के भाई-भतीजे, किसी के निकट रिश्तेदार प्रभावी हो जाते हैं। उन पर शासन में हस्तक्षेप करने, भ्रष्टाचार में आकंठ लिप्त होने और सुपर मुख्यमंत्री का करेक्टर बन बैठने के आरोप लगते रहे हैं। जिसमें काफी हद तक सच्चाई भी रही है। त्रिवेंद्र रावत अपनों के इस सत्तालोलुपता से काफी हद तक प्रभावित रहे हैं। योगी और त्रिवेंद्र की कार्यप्रणाली को यही सबसे अधिक प्रभावित करता है।
यदि योगी आदित्यनाथ की बात करें तो योगी ने नाते रिश्तेदारों को एक योगी की तरह अपने से बिल्कुल अलग रखा। पिता की मृत्यु पर सिर्फ दो लाइन का ट्वीट कर अपनी संवेदना जता दी। कोविड का बहाना बनाकर उनकी अंतिम क्रिया में भी शामिल होने नहीं आए। उनकी बहन एक छोटी सी दुकान चलाकर अपने परिवार की पालना करती है, लेकिन कभी योगी की कोई मदद उस तक नहीं पहुंची। योगी और त्रिवेंद्र के बीच सत्ता संचालन में यही सबसे बड़ा फर्क दिखाई देता है। जिससे योगी सत्ता संचालन में निरपेक्ष हो जाते हैं। योगी पर भी हाई कमान का हमला हुआ था। योगी को हटाने की लगभग पूरी तैयारी कर ली गई थी। योगी का यही निरपेक्ष तौर पर शासन करने का तरीका उनकी ढाल बन गया। योगी की इस निरपेक्ष ताकत के सामने हाई कमान को मुंह की खानी पड़ी।
शासन में अपनों के दखल, शिक्षक पत्नी के हमेशा देहरादून में पोस्टिंग जैसे मामलों ने त्रिवेंद्र को दागी बना दिया। अन्यथा जहां तक शासन करने का सवाल है, वह बेकाबू मंत्रियों पर अपनी ग्रिप बनाने में सफल हो गए थे। हालांकि नौकरशाही पर वह नकेल कसने के बजाय उसकी नकेल में खुद आ गए थे। इस सबके बावजूद गैरसैंण कमिश्नरी का मुद्दा उनके जाने का बाहरी और दिखावे का कारण बना। हाई कमान का जो एक्शन त्रिवेंद्र के खिलाफ आया उसके पीछे छिपा कारण यह बताया जाता है कि गैरसैंण में चल रहे बजट सत्र में उनकी खिलाफत कर रहे विधायक बजट सत्र के दौरान कुछ ऐसा करने वाले थे कि उनकी सरकार गिर सकती थी। ऐसे विधायकों को कुछ मंत्रियों का भी छिपा सहयोग था। हाई कमान ने इसे सरकार पर संकट माना और बजट सत्र के बीच में ही सभी को गैरसैंण से देहरादून बुला लिया गया और त्रिवेंद्र हो हटाने की प्रक्रिया शुरू हो गई।
यदि उनके स्थान पर लाए गए तीरथ सिंह रावत की बात करें तो उनके चार माह से भी कम के कार्यकाल में एक अलग ही घटनाक्रम देखने को मिला। अभी उनके रिश्तेदारों को दखल देने का मौका तो नहीं मिला, यदि किसी ने दखल दिया भी होगा तो वह कहीं सामने नहीं आया। तीरथ सिंह रावत के विवादित बयान उनके लिए सबसे अधिक हानिकारक साबित हुए। पहले महिलाओं की फटी जिंस, फिर भारत पर अमेरिका का दो सौ साल का शासन, कुंभ घोटाले में सीधे तौर पर त्रिवेंद्र सरकार पर आरोप लगाना, जैसे तमाम बयान उन्हें ले डूबे। वैसे भी तीरथ सिंह रावत बहुत सीधे साधे पालिटीशियन रहे हैं। वह सांसद, विधायक तथा मंत्री तक तो ठीक हैं, लेकिन मुख्यमंत्री बनकर पूरे सत्ता के तामझाम को संभालना, विरोधी चाहे पार्टी में हों या फिर विपक्ष में, उनसे राजनीति की भाषा में निपटना तीरथ सिंह रावत के बस में नहीं था। इसलिए हाई कमान ने उनके जाने का रास्ता तैयार किया, चाहे कारण संवैधानिक संकट क्यों न बताया गया हो, जो सिर्फ एक बहाना था।
इन दोनों घटनाक्रमों से सबक लेने की बारी नए मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की है। उन्हें हाई कमान की छत्रछाया में ही काम करना है और उसी पार्टी संगठन के साथ काम करना है, जिसके साथ त्रिवेंद्र सिंह रावत और तीरथ सिंह रावत कर रहे थे। धामी के मुख्यमंत्री बनते ही उनके विरोधी उनके पुराने बयानों को चटकारे लेकर सोशल मीडिया के माध्यम से प्रसारित करने लगे हैं। एक जगह मंच से भाषण करते हुए पुष्कर सिंह धामी को चोरों को उनके काम में रुकावट न डालने की बात कहते हुए उधृत किया जा रहा है। ऐसे ही उनके कई पिछले बयानों को सामने लाया जा रहा है।
यह तो होता ही रहेगा। विपक्षी ऐसा करते रहेंगे, इसे कोई रोक नहीं सकता। जहां तक पुष्कर सिंह धामी का सवाल है, वह छात्र जीवन से राजनीति में हैं, इसलिए राजनीति उनके रग-रग में है, वह राजनीति को बेहतर तरीके से समझते हैं। वह बयानों से फिसलने वाले नेता नहीं हैं। वह नौकरशाही को भी बेहतर तरीके से समझते हैं। उनके सामने जो चुनौती है, वह रिश्तेदारों को सत्ता से दूर रखने की है। नेताओं, मंत्रियों और नौकरशाहों पर नकेल कसने की सबसे बड़ी चुनौती है। समय बहुत कम है। क्या वह ऐसा कर पाएंगे? नौकरशाही के मामले में उन्होंने पहल जरूर की है, जो तीरथ सिंह रावत नहीं कर पाए थे।
एक गंभीर सवाल यह है कि उत्तराखंड में पत्रकारों, ठेकेदारों और भाजपानीत संगठनों के बहाने दलालों का एक बहुत बड़ा वर्ग काम करता है। वह हर सत्ता पर दबाव बनाने में सक्षम हंै। यदि आप उनकी मर्जी की नहीं करते हैं तो वह साम-दाम-दंड-भेद सारे रास्ते जानते हंै। वह स्टिंग कर आपको घेर सकते हंै। नारायण दत्त तिवारी के जमाने से ऐसे लोग उत्तराखंड के सत्ता प्रतिष्ठान पर हावी रहे हैं। एक तरफ आपको अपने रिश्तेदारों को सत्ता में भागीदारी देने से बचना है, दूसरी तरफ इन परभक्षी दलालों से खुद को बचाना है। यदि आप इन दोनों के चंगुल में आने से बच गए तो आपकी समस्या के बहुत बड़े हिस्से का समाधान स्वयं हो जाएगा। अन्यथा इन्हीं के जंजाल में भटकते रहो, गलती कोई करेगा, भुगतोगे आप।