डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
पृथ्वी पर जल के असीम भंडार हैं, जो समुद्र, नदी, झील, तालाब, कुएं, नौले-धारे सहित अन्य प्राकृतिक स्रोतों के रूप में मौजूद हैं। जल का सबसे बड़ा भंडार समुद्र है, लेकिन खारा पानी होने के कारण ये पीने योग्य नहीं है। समुद्र को पानी नदियों के माध्यम से मिलता है। तो वहीं नदियों, तालाबों और झीलों को पानी उपलब्ध कराने का सबसे बड़ा माध्यम विभिन्न प्राकृतिक जलस्रोत ही हैं। जलस्रोत पृथ्वी की ऐसे छोटी रक्तवाहिनियां हैं, जिनका उद्गम किसी न किसी रूप में हिमालय व पहाड़ों से होता है और ये पर्वतों के अंदर से छोटी.छोटी धाराओं के रूप में रिसते हुए बहती हैं। बारिश भी इन धाराओं के कैचमेंट एरिया को जल उपलब्ध कराने में अहम भूमिका अदा करती हैं। पानी के यही सब स्रोत भूजल को रिचार्ज करने का काम करते हैं और इस जल से इंसान सहित विभिन्न जीव.जंतु अपनी पानी की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं।
एक तरह से जल ही जीवन है, लेकिन वर्तमान में जिस तरह के हालात बने हैं, उससे इंसान और अन्य जीवों को जीवन देने वाले जल मीठे जल स्रोत का जीवन धीरे.धीरे धरती से समाप्त होता जा रहा है। धरती पर जल का अस्तित्व ग्लेशियरों पर ही टिका है, लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर पिघलकर लगातार पीछे खिसकते जा रहे हैं। इससे नदियों, तालाबों, झीलों और विभिन्न प्राकृतिक जलस्रोतों पर संकट गहराने लगा है। लोहाघाट ब्लॉक के किमतोली.खालगढ़ क्षेत्र के पेयजल संकट से जूझ रहे लोगों को उम्मीद की किरण नजर आई है। इस क्षेत्र की पेयजल योजना के लिए एक स्रोत निरीक्षण में शुरुआती तौर पर उपयुक्त पाया गया।
गुमदेश क्षेत्र के किमतोली.खालगढ़ इलाके में अभी कोई सरकारी पेयजल योजना नहीं है। पानी के लिए गांव के एक हजार से अधिक लोग चंद हैंडपंपों के अलावा नौलों और धारों पर आश्रित रहते हैं। ग्रामीणों की मांग पर क्षेत्र के लिए जल जीवन मिशन के तहत पेयजल योजना के निर्माण के लिए स्रोत का मुआयना किया गया। जल स्रोतों में भारी कमी आने के कारण नगर और ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल संकट गहरा गया है। लोग गाढ़ गधेरों, नौंलों, हैंड पंपों के पानी से अपनी प्यास बुझाने को मजबूर हो गए हैं। सुबह से ही लोग गाढ़.गधेरों, नौलों और हैंडपंपों में पानी के लिए लाइन लगाने को विवश हो गए हैं। जिला मुख्यालय के विभिन्न वार्डो में जल संस्थान की ओर से दो टैंकरों और पांच पिकअप वाहनों के जरिए पानी उपलब्ध कराया जा रहा है, लेकिन यह पानी नाकाफी साबित हो रहा है। लोगों ने ग्रामीण क्षेत्रों में भी जल संस्थान से टेंकरों के जरिए पानी बंटवाने की मांग उठाई है।
लोहाघाट नगर में तीसरे या चौथे दिन बहुत कम मात्रा में लोगों पानी मिल पा रहा है। लोग नर्सरी गधेरे, अक्कल धारे, शिवालय मंदिर के स्टेंड पोस्ट, हैंड पंपों से पानी भरने को मजबूर हैं। रामलीला मैदान के पास नगर पंचायत की ओर से लगाए गए सोलर हैंडपंप से पानी भरने वालों की भारी भीड़ उमड़ रही है। इधर गुमदेश के चमदेवल क्षेत्र में भी गंभीर पेयजल संकट गहराया हुआ है। क्षेत्र में चैतोला मेला होने के चलते काफी लोग बाहरी क्षेत्रों से गांव में पहुंचे हुए हैं। पेयजल समस्या से लोगों को जूझना पड़ रहा है। लोग दो से तीन किमी दूर गधेरों से पानी ढोने को मजबूर हैं। रायनगर चौड़ी, कलीगांव, खूना बोरा, फोर्ती आदि गांवों में लोग पेयजल के लिए दर.दर भटक रहे हैं। लोगों ने जल संस्थान से टैंकरों से पेयजल आपूर्ति करने की मांग की इधर जल संस्थान के सहायक अभियंता का कहना है कि लंबे समय से बारिश न होने से पेयजल स्रोतों का जल स्तर 50 फीसदी से भी अधिक कम हो गया है। पहाड़ के लोगों के तमाम दर्द हैं, लेकिन जल संकट का दर्द पहाड़ की समस्या बनता जा रहा है। राज्य के 12 लाख 45 हजार 472 घरों में पानी का नल नहीं है। ये लोग पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए विभिन्न जलस्रोतों पर निर्भर हैं।
पर्वतीय इलाकों में जिन घरों में पानी के नल हैं, उनके घरों तक पानी नदियों, झील और प्राकृतिक स्रोतों पर आधारित पेयजल योजनाओं के माध्यम से आता है, लेकिन अधिकांश प्राकृतिक जलस्रोत सूख चुके हैं, जो बचे हैं उनमें से अधिकांश प्रदूषित हैं। कई नदियां सूखने की कगार पर हैं। झीलों के जलस्तर में भी गिरावट आई है। ऐसे में पहाड़ के कई इलाकों को पानी के लिए मशक्कत करनी पड़ती है। इसलिए जल जीवन मिशन के तहत हर घर को नल से जल देने की योजना है, लेकिन पहाड़ में घटते और प्रदूषित होते जल के बीच इस योजना की राह आसान नहीं होगी। प्रदेश में जो बाकी स्प्रिंग्स बचे हैं, उन पर भी खतरा मंडरा रहा है, क्योंकि पहाड़ अब शहर बनते जा रहे हैं। बड़े पैमाने पर यहां की भौगोलिक परिस्थितियों को नजरअंदाज कर निर्माण कार्य किया जा रहा है। जिससे पहाड़ों पर अतिरिक्त दबाव पड़ रहा है। इन निर्माण कार्यो के लिए वहां की भौगोलिक स्थिति और जैव.विविधता को बनाए रखने वाले पेड़ों को काट दिया जाता है। जो न केवल वहां के पर्यावरण में बदलाव लाता है, बल्कि जल की उपलब्धता भी कम होने लगती है। स्रोत सूखने लगते हैं।
इसका जीता जागता उदाहरण देहरादून में रिस्पना और बिंदाल नदी है। इन दोनों नदियों को पानी देने वाले स्रोत सूखे चुके हैं। नदियों के किनारे अतिक्रमण कर पक्के निर्माण किए जा चुके हैं। यही सब गंगा और यमुना नदी के साथ हो रहा है। बरसाती नदियों पर भी अतिक्रमण किया गया है। हर साल बारिश कम होने से बरसाती नदियों में भी पानी की मात्रा घट गई है। दरअसल, पानी के स्रोत सूखने या उनमें पानी कम होने से पर्वतीय इलाकों लोग तो प्रभावित होते ही हैं, साथ नदियों में पानी कम होने से मैदानों को भी परेशानी का सामना करना पड़ता है। जितना विशाल पहाड़ है, उतना ही विशाल यहां रहने वाले पहाड़ियों पर्वतीय लोग का हौंसला होता है। वे जीवन की हर परेशानियों के आगे चट्टान की तरह खड़े हो जाते हैं, लेकिन हार कभी नहीं मानते। उनकी इसी जीवटता के कारण उत्तराखंड के पहाड़ियों का गौरवशाली इतिहास रहा है। सैंकड़ों गौरव गाथाएं यहां प्रसिद्ध हैं।
सैंकड़ों बड़े आंदोलनों की नींव भी उत्तराखंड की धरती पर ही पड़ी है, जिनमें चिपको आंदोलन और उत्तराखंड पृथक राज्य आंदोलन अहम हैं। इन आंदोलनों में अग्रिम पंक्ति में महिलाएं ही थीं। एक तरह से जब भी पहाड़ पर कोई विपदा आती है या यहां के लोगों के अधिकारों का हनन होता है, तो पर्वतीय नारी हमेशा सबसे आगे खड़ी मिलती हैं। पहाड़ की महिलाओं ने पहाड़ के दर्द को हमेशा अपने दर्द से ऊपर रखा है और पहाड़ की रक्षा के लिए हमेशा तत्पर रही हैं, लेकिन इसी जीवट पहाड़ के लिए परेशानी बन रहा है, जल संकट। यदि समय रहते समाज में इनके प्रति सही सोच पैदा नहीं हुई तो नौला भी अतीत का हिस्सा बन जाएँगे।












