डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
देश 25 जून, 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा भारत में लगाए गए आपातकाल की 50वीं बरसी मना रहा है। सामूहिक नसबंदी अभियान की यादें आज भी जीवित बचे पीड़ितों को परेशान करती हैं और सार्वजनिक स्वास्थ्य चर्चा को प्रभावित करती हैं। इनमें से कई लोगों की नसबंदी जबरदस्ती की गई थी।अकेले 1976 में, पूरे भारत में 80 लाख से अधिक लोगों की नसबंदी की गई। इनमें से ज्यादातर पुरुष थे, जिनमें से कई लोगों की नसबंदी स्वैच्छिक नहीं थी। दिल्ली के ओखला में रहने वाली 78 वर्षीय इशरत जहां ने कहा, ‘‘यह एक बहुत ही अंधकारमय दौर था — किसी युद्ध से कम नहीं था। हमें नहीं पता था कि अगले दिन क्या होगा। मुझे याद है कि हमलोग इतने डरे हुए थे कि मेरा परिवार आपातकाल खत्म होने तक दिल्ली से बाहर नहीं गया।अमीना हसन (83) आज भी उस घटना को याद करके सिहर उठती हैं। अलीगढ़ में रहने वाली अमीना ने कहा, ‘‘हम गरीब थे, लेकिन हमारे पास सम्मान था। उन्होंने उसे भी छीन लिया। हमारे इलाके में, जब अधिकारी आते थे, तो लोग खेतों और कुओं में छिपने लगते थे। ऐसा लगता था कि हमें शिकार बनाया जा रहा है।’’दबाव निरंतर और बिना किसी भेदभाव के डाला जा रहा था। ‘अनसेटलिंग मेमोरीज़’ में मानवविज्ञानी एम्मा टार्लो ने बताया है कि कैसे लोक सेवकों, फैक्टरी मजदूरों और पुलिसकर्मियों को अक्सर नसबंदी करवाने के लिए मजबूर किया जाता था। एक कर्मचारी ने उन्हें (टार्लो को) बताया, ‘‘अधिकारियों ने कहा कि आपकी नौकरी तभी रहेगी, जब आप नसबंदी करवाएंगे। मेरे पास सोचने का समय नहीं था। मैंने हामी भर दी, क्योंकि मुझे अपनी नौकरी बचानी थी और अपने परिवार का पालन-पोषण करना था। पुरुष नसबंदी से जुड़ा कलंक इतना गंभीर था कि कई समुदायों में इसे नपुंसकता के बराबर माना जाता था। उस समय पूरे उत्तर भारत में आपातकाल विरोधी एक नारा इस भावना को अभिव्यक्त करता था: ‘नसबंदी के दूत, इंदिरा गांधी की लूट।’’ सबसे हिंसक घटनाओं में से एक दिल्ली के तुर्कमान गेट इलाके में हुई, जो एक ऐतिहासिक मुस्लिम इलाका है। अप्रैल 1976 में, जब वहां रहने वाले लोगों ने शहरी ‘सौंदर्यीकरण’ अभियान से जुड़े तोड़-फोड़ का विरोध किया और नसबंदी कराने से इनकार कर दिया, तो पुलिस ने गोलीबारी शुरू कर दी। पूरे के पूरे परिवार विस्थापित हो गए, घरों को ढहा दिया गया, लेकिन यह इलाका आज भी आपातकाल की ज्यादतियों का स्थायी प्रतीक बना हुआ है। ‘पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया’ की कार्यकारी निदेशक ने कहा कि आपातकाल के दौरान उठाए गए बलपूर्वक कदमों ने ‘पुरुषों और महिलाओं दोनों के प्रजनन अधिकारों को पीछे धकेल दिया।’? उन्होंने कहा, ‘‘भारत की आबादी को लंबे समय तक डर और कमी की संकीर्ण दृष्टि से देखा जाता था। लेकिन आज, यह मान्यता बढ़ रही है कि हमारे लोग हमारी सबसे बड़ी ताकत हैं।’पूनम ने कहा, ‘‘भारत की ताकत इसकी युवा आबादी में निहित है इसका जनसांख्यिकीय लाभांश। लेकिन सबसे अधिक आबादी वाला देश होने के नाते हमारी बहुत बड़ी जिम्मेदारी भी है। यह केवल संख्याओं के बारे में नहीं है – यह शिक्षा, स्वास्थ्य और अवसर के माध्यम से हर जीवन में निवेश करने के बारे में है।’’ आपातकाल के पीड़ितों को श्रद्धांजलि देने के लिए दो मिनट का मौन रखा. इस दौरान सभी मंत्री अपनी सीटों से खड़े होकर उन लोगों को सम्मान देने के भाव में शामिल हुए जिन्होंने उस दौर में लोकतंत्र की रक्षा के लिए संघर्ष किया.केंद्रीय मंत्री ने बैठक के बाद जानकारी दी कि वर्ष 2025 को “संविधान हत्या की 50वीं वर्षगांठ” के रूप में याद किया जाएगा. उन्होंने बताया कि कैबिनेट ने एक सुर में इस ऐतिहासिक भूल की निंदा करते हुए यह स्वीकार किया कि आपातकाल के दौरान लाखों लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन हुआ और लोकतांत्रिक संस्थानों को दबा दिया गया. देश के युवाओं से अपील की गई कि वे आपातकाल के दौरान लोकतंत्र की रक्षा करने वाले सेनानियों के संघर्ष से प्रेरणा लें. यह भी कहा गया कि इन सेनानियों ने तानाशाही के खिलाफ आवाज उठाकर भारतीय संविधान और लोकतांत्रिक भावना की रक्षा की थी. भाजपा ने आपातकाल को लोकतंत्र पर धब्बा बताया, क्योंकि इसने जनता के अधिकार छीने, अभिव्यक्ति की आजादी कुचली और विपक्ष को जेलों में डाल दिया। दूसरी ओर, विपक्ष ने मौजूदा सरकार पर संविधान विरोधी काम करने का आरोप लगाया, जिसके जवाब में भाजपा ने आपातकाल की याद दिलाई। यह दौर स्वतंत्र भारत के सबसे विवादित समयों में से एक है, जो आज भी राजनीतिक बहस का हिस्सा बना हुआ है। आपातकाल लगे हुए 50 साल हो गए, लेकिन आज तक इसकी गूंज सुनाई देती है. गैर कांग्रेसी दल आपातकाल को लेकर कांग्रेस पर बार-बार निशाना साधते हैं. आपातकाल के दौरान कुछ ऐसे कदम उठाए गए, जिस पर आज तक विवाद जारी है. राजनीतिक इन्हीं में से एक कदम था, स्टरलाइजेशन का. इसे नसबंदी के रूप में लोग जानते हैं. दिल्ली के एक इलाके में जबरदस्ती नसंबदी को लागू किया गया. ने इसके आदेश दिए थे. एक अनुमान है कि इमरजेंसी के दौरान पूरे देश में करीब 83 लाख लोगों की जबरदस्ती नसबंदी करवाई गई थी. इस कदम के खिलाफ लोगों में बहुत गुस्सा था. आपातकाल के 50 साल पूरे होने पर, उत्तराखंड सरकार ने एक राज्य-स्तरीय कार्यक्रम आयोजित करने का फैसला किया है। यह कार्यक्रम 25 जून को मुख्यमंत्री आवास में होगा, जहाँ आपातकाल के दौरान मीसा और डीआईआर के तहत जेल में बंद रहे लोकतंत्र सेनानियों को सम्मानित किया जाएगा। इस अवसर पर, दिवंगत सेनानियों के परिवारों को भी सम्मानित किया जाएगा और उस दौर के अनुभवों को साझा किया जाएगा। यह एक भावुक और यादगार कार्यक्रम होगा जो लोकतंत्र की रक्षा के लिए लड़ने वालों की बहादुरी को याद रखेगा। जिससे यह सुनिश्चित होगा कि कार्यक्रम सफलतापूर्वक आयोजित हों और देश के इतिहास के इस महत्वपूर्ण अध्याय को याद रखा जाए। *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में में कार्यरत हैं।*