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कोरोना बीमारी के नाम तक से अनजान हैं वन गुर्जर

28/06/21
in उत्तराखंड
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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला:

कोरोना नाम की महामारी ने जहां पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है और न जाने कितने लोग इस कॉल का ग्रास बन गए है। देश और दुनिया मे शायद ही कोई बचा हो जो कोरोना और लॉक डाउन के बारे में न जानता हो। बावजूद इसके अगर हम आपको बताए कि इन हालातों से गुजरने के बाद भी देश मे एक तबके के लोग ऐसे है जो कोरोना से अनजान है, तो शायद ही आप यकीन कर पाएंगेलेकिन आपको यकीन करना होगा कि ये लोग न तो कोरोना से वाकिफ़ है और ना ही इन्हें जागरूक करने या वैक्सीनेशन करने के लिए स्वास्थ्य विभाग ने कोई कदम उठाए है।

दरअसल, कोरोना ने दुनिया के बड़े देशों जिज़ चीन, अमेरिका और हमारे अपने देश भारत मे कहर बरपाते गए न जाने कितने लोगों की जान ली है और न जाने कितने ही लोग इस बीमारी की चपेट में आ चुके है। अभी भी कोरोना लोगो ओर अपना झपट्टा मारने में लगा हुआ है। देश और दुनिया में बच्चा-बच्चा कोरोना के बारे में जानता होगा लेकिन आज हम आपको दिखाएंगे एक ऐसे वर्ग के लोगो को जो कोरोना से कतई अनजान है।

हम आज दिखाएंगे उत्तर प्रदेश की नम्बर एक विधानसभा सीट बेहट इलाके के हरियाणा से लेकर उत्तराखंड की सीमा तक बसे वन गुर्जरों के बारे में। वन गुर्जरों से जब कोरोना के बारे में पूछा गया कि कोरोना क्या है तो उन्होंने इनकार कर दिया कि वे नही जानते है। लॉक डाउन के बारे में पूछे जाने पर बस इतना ही बता सके कि बाजार बंद है और मास्क लगाकर बाहर जाना हैअब ऐसे में सवाल उठता है कि कोरोना कॉल में जनता को बीमारी से बचाने के लिए जागरूक करने और वैक्सीनेशन के प्रति जागरूक करने के स्वास्थ्य विभाग व समाजिक संस्थाओं के दावे यहां खोखले साबित हो रहे है।

स्वास्थ विभाग के साथ साथ वन विभाग के अधिकारियों व कर्मचारियों की भी यहां लापरवाही नज़र आती है क्योंकि वन गुर्जर जंगलों में रहते है। ऐसे में वन विभाग की भी जिम्मेदारी बनती है, लेकिन शायद ही वन विभाग के किसी अधिकारी का इस ओर ध्यान गया हो। बहरहाल जो भी हो अब देखना ये होगा कि स्वास्थ्य विभाग वन गुर्जरों के स्वास्थ्य को लेकर कब गम्भीर होता है।उधर जब इस बारे में स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों से बात की गई तो उन्होंने बताया कि पिछले लॉक डाउन से अब तक वन विभाग के ज़रिए वन गुर्जरों को जागरूक किया गया है हालांकि वन गुर्जर इस दावे को सिरे से नकार रहे है।

बेहट सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के प्रभारी चिकित्साधिकारी ने बताया कि वन विभाग के सहयोग से वन गुर्जरों को जागरूक किया गया था जंगलों में रहने वाले वन गुर्जरों के पास भी टीम भेजकर रजिस्ट्रेशन कराया जाएगा और वैक्सीन लगवाई जाएगी।उत्तराखंड के देहरादून में राजाजी नेशनल पार्क के पास कई मुस्लिम वन गुर्जर परिवार रहते हैं, जिनका मुख्य व्यवसाय गाय-भैंस पालना और उनका दूध बेचना है। पिछले कई साल से दूध का व्यवसाय करने वाले लियाकत कहते हैं, “पहले हर दिन 60-70 लीटर दूध जाता था, अब लोग दूध ही नहीं लेना चाह रहे हैं, लोग कहते हैं कि ये मुसलमान हैं ये कोरोना लेकर आते हैं, हम तो जंगल में रहते हैं, हम कहां से कोरोना लाएंगे। हम तो कभी जंगल से भी नहीं गए। हमारा तो धन्धा ही यही भैंस पालना। अब दूध नहीं बिक रहा तो भैंसों को चारा भी नहीं मिल रहा हैं।”पशुओं के चारा के लिए मजबूरी में बाहर जाना पड़ता है, एक तो चारा नहीं नहीं मिल रहा है और अब दूध भी नहीं बिक रहा है।” लॉकडाउन की वजह से पशुओं के चारे की पहले से ही दिक्कत थी।

खली और पशु आहार महंगे दाम में बिक रहे हैं और अब दूध न बिकने के कारण इनके लिए चारा खरीदना मुश्किल हो रहा है। लॉकडाउन की वजह से दूध उत्पादन की लागत भी बढ़ी है। लॉकडाउन की वजह से गाड़ियों की आवागमन रुकी है। जिस कारण चारा एक जिले से दूसरे जिले तक नहीं पहुंच पा रहा है।जबकि वनाधिकार कानून के धारा चार के अनुसार किसी स्थान को वन्यजीवों के संरक्षण-स्थल की घोषणा करने में स्थानीय समुदाय की सहमति जरूरी है।

इसके अलावा वैज्ञानिक तौर पर यह साबित करना होगा कि उस स्थान पर इंसान और वन्यजीव एकसाथ नहीं रह सकते और वन पर अधिकार दिया गया तो वन्यजीवों का अस्तित्व संकट में आ जाएगा। “वनाधिकार कानून यह नहीं कहता कि वनवासियों का विस्थापन नहीं हो सकता। इसका मकसद कानूनी तौर पर वन्यजीव और इंसानों के साथ रहने और जंगल के संरक्षण की संभावनाओं को तलाशना है। जब कोई और उपाय न बचे तब विस्थापन किया जाए। पर सबकी सहमति से,” शरतचंद्र लेले कहते हैं जो अशोका ट्रस्ट से जुड़े एक पर्यावरण नीति विशेषज्ञ हैं।इनका कहना है कि वनों को एकदम प्राचीन अवस्था में बनाये रखने का आग्रह अवैज्ञानिक है।

यह मानव-वन्यजीव सह-अस्तित्व की संभावना को समाप्त करता है। उत्तराखण्ड़ के पौड़ी जिले के कोटद्वार रेंज की सुखरो बीट में रहने वाले वन गुर्जर मस्तू और उनके परिजन अपने पालतू पशुओं के ग्रीष्मकालीन प्रवास की तैयारी कर रहे थे। परंपरागत रुप से हर साल मार्च-अप्रैल में वन गुर्जर अपने पशुओं को लेकर उच्च हिमालयी क्षेत्रों के लिए रवाना होते थे. 

जिन्हें स्थानीय भाषा में बुग्याल कहते हैं। लेकिन उत्तराखंड हाईकोर्ट के एक आदेश के बाद, जिसमें बुग्यालों में जाना प्रतिबंधित किया गया है, ये गुर्जर नजदीकी इलाकों का रुख करते हैं, जहां उनके पशुओं को पर्याप्त मात्रा में चारा, पानी और ठंडा वातावरण मिल सके। सरकार ने उनकी समस्याओं के समाधान में रुचि नहीं दिखाई है। इसके अलावा वन गुर्जरों को उनकी जमीनों का मालिकाना हक भी अभी तक नहीं मिल सका है। कहा कि वन गुर्जर परिवारों की समस्याओं से प्रदेश की सरकार भी अनभिज्ञ बनी है।

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