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पहाड़ की धरोहर का प्रतीक और आकर्षण पहाड़ी गागर

17/09/25
in उत्तराखंड, देहरादून
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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड
पहाड़ की संस्कृति और लोक जीवन में अनेकों अनेक रंग हमारी जीवनशैली को, हमारे लोक को दर्शाते है उत्तराखण्ड़ का वह जिला जो अपनी पहचान सांस्कृतिक नगरी के रुप में रखता है, जी हां हम बात कर रहे हैं अल्मोड़ा की! यहां की कला और संस्कृति इस शहर को औरों से अलग बनाती है। साहित्य,कला हो या राजनीति इस शहर के कई बड़े हस्ताक्षर देश विदेश में जाने जाते हैं। स्वामी विवेकानंद भी इस शहर में पहुंचे और यहां कई स्थानों पर तपस्या की। स्व.गोविंद बल्लभ पंत, स्व.सुमित्रानंदन पंत, मुरली मनोहर जोशी, प्रसून जोशी और बद्री दत्त पांडे जैसे लोगों का यह शहर अपनी संस्कृति ही नहीं बल्कि अपनी ताम्र कला के लिए भी विदेशों में जाना जाता रहा है।उत्तराखण्ड़ में तांबे के बर्तनों का उपयोग प्राचीन काल से ही होता आया है, यहां उस दौर में तांबे के बर्तनों में भोजन बनाने की प्रथा थी। तांबे को बहुत शुद्ध माना गया है, इसलिए लोग तांबे के बर्तनों में ही खाना पकाते थे और तांबे के बर्तनों में रखा हुआ पानी पीते थे। तांबे के तौले (भात पकाने के लिए बड़े बर्तन) भड्डू (दाल बनाने के लिए बड़े बर्तन) गागर (गगरी) केसरी, फिल्टर, लोटे, दीये प्रमुख थे, जिनकी मांग हमेशा से बाजार में रही है। उत्तराखंड के वाद्य यंत्रों में तुतरी, रणसिंह और भौखर हमेशा से प्रमुख रहे हैं, जिन्हें तांबे से बनाया जाता था, और यह सारे काम हैंडीक्राफ्ट का काम करने वाले कारीगर ही किया करते थे। आज से 15 साल पहले अल्मोड़ा में करीब डेढ़ सौ परिवार तांबे का हैंडीक्राफ्ट काम किया करते थे।एक समय था जब अल्मोड़ा के टम्टा मोहल्ला की गलियों से गुजरते हुए आपको हर समय टन-टन की आवाज सुनाई देती थी। यह आवाज ताबा हैंडीक्राफ्ट कारीगरों के घरों से आती थी। क्योंकि दिन रात मेहनत करके वह ताबे के बड़े सुंदर बर्तनों को आकार दिया करते थे। उस दौर में अल्मोड़ा के तांबा हैंडीक्राफ्ट का सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी बोलबाला हुआ करता था। लेकिन जैसे-जैसे साल बीतते रहे यह आवाजें भी गायब सी हो गई हैं।एक दौर ऐसा भी था जब अल्मोड़ा कि हर दुकान में आपको गगरी नजर आती थी जिसे स्थानीय भाषा में गागर भी कहा जाता है। परंपरा यह थी की लड़की की शादी में गगरी देना अनिवार्य था।कभी कभी ऐसा भी होता था कि एक ही शादी में एक से अधिक गगरी मिल जाती थी। लेकिन समय के साथ तांबे की जगह स्टील व सिल्वर के बर्तनों ने ले ली, तौली व भडडू की जगह कुकर ने ली तो गागर की जगह स्टील की गगरी ने ले ली।
वहीं तांबा कारीगरों को इस बात की चिंता सताने लगे कि देश में जब मशीनीकरण हो जाएगा तो शायद उनका काम भी छिन जाएगा, हुआ भी कुछ ऐसा ही जैसे-जैसे तांबे के काम को मशीनों के जरिए किया जाने लगा हैंडीक्राफ्ट के मजदूरों के हाथ से मानो काम छिन सा गया।जिस अल्मोड़ा के टम्टा मोहल्ला में एक जमाने में मजदूरों के पास सांस लेने की फुर्सत नहीं थी, आज उसी टम्टा मोहल्ला की हालत यह है कि मजदूरों के पास काम नहीं है, क्योंकि व्यापारी मशीनों से मुनाफा भी कमा रहे हैं, और कम समय में ज्यादा उत्पाद भी प्राप्त कर रहे हैं।अल्मोड़ा के टम्टा मोहल्ला में रहने वाले तांबा हैंडीक्राफ्ट के कारीगर सुनील टम्टा का कहना है कि,अब तो ऐसा लगता है कि शायद तांबा कारीगरी का यह हुनर उनकी पीढ़ी में ही खत्म हो जाएगा। नयी पीढ़ी  इस काम को नहीं करना चाहती है। क्योंकि इसमें मेहनत ज्यादा है और कमाई ना के बराबर है।सुनील टम्टा कहते हैं की एक वह भी दौर था जब वह महीने भर तांबे के बर्तनों का आर्डर भी पूरा नहीं कर पाते थे, क्योंकि डिमांड बहुत ज्यादा थी और सभी लोग हैंडीक्राफ्ट काम को ही पसंद किया करते थे। महंगा होने के बावजूद लोग तांबा खरीदा करते थे।शादियों के सीजन में गगरी और तांबे के तौले बनाने का काम उनके पास सबसे ज्यादा रहता था लेकिन अब हालात ऐसे हैं कि उनको बाजार में जाकर काम मांगना पड़ता है। सुनील टम्टा बताते हैं कि अब मशीनों से तांबे का काम ज्यादा हो रहा है, समय बच रहा है और उत्पाद ज्यादा मिल रहा है मशीनों से किया गया काम हैंडीक्राफ्ट की तुलना में सस्ता है इसलिए व्यापारी भी मशीनों से ही काम करवा रहे हैं उनके पास अब वह काम आ रहा है जो मशीनों से नहीं किया जा सकता है या जो बर्तन पुराने हो गए हैं उन्हें नई चमक देनी है।सरकारों से भी तांबा हैंडीक्राफ्ट के कारीगर नाराज नजर आते हैं, क्योंकि सरकारें वादा करती रही कि अल्मोड़ा की ताम्र नगरी को बेहतर और आधुनिक बनाया जाएगा लेकिन 1992 में बनाई गई ताम्र नगरी में आज भी तकनीकी के मामले में कुछ नहीं है।अल्मोड़ा में हरिप्रसाद टम्टा शिल्प कला संस्थान के जरिए तांबा हैंडीक्राफ्ट के क्षेत्र में प्रगति के सपने भी दिखाए गए लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।मशीनों से काम सुगमता और कम समय में ज्यादा उत्पाद के तौर पर हो रहा है इसलिए लोग हैंडीक्राफ्ट की ओर कम जा रहे हैं
उसमे हमारी आस्था विश्वास और संस्कृति से गहरा लगाव किसी से छुपा नहीं है।एक समय था जब लोग पानी भरने घर गांव से लगभग एक या आधा किलोमीटर दूर से पीने का शुद्ध पानी भरकर लाया करते थे और गांव की बसायत पानी के स्रोत से लगभग दूरी ही हुआ करती थी जिसके बहुत सारे कारण भी रहे होंगे हो चाहे हमारे स्वास्थ या स्वच्छता के हिसाब से रहा होगा,धर्मिक मान्यताओं की वजह से या कुछ और ये बता पाना थोड़ा मुश्किल है। घरेलू काम में सुबह उठकर सबसे पहले ताजा पानी भरना रोज का नियम होता था और ये दिन का सबसे पहला और महत्वपूर्ण काम भी था और गागर में पानी भरकर लाना वो भी कम मुश्किल काम नहीं था पर पहाड़ी जीवनशैली में उतना मुश्किल भी नहीं क्योंंकि हम लोग रोजमर्रा की जीवनशैली में इन कामों को आसानी से कर लेते है। एक समय वो भी था जब लोग पहाड़ में फिल्टर और आर वो जैसी तकनीक से बिल्कुल भी अनजान थे लोग परिचित थे तो सिर्फ गागर से या मिट्टी के घड़े से लोगों ने अपनी बसायत के लिए ऐसी जगह का चयन किया रहता था जहां पर 12 महीनों पानी की जलधारा बहती हो,जो कभी दूषित न हो बल्कि मौसम के अनुसार सर्दियों में गरम और गर्मियों में ठंडे पानी की बहने वाली धारा वाले स्रोत होते थे और ऐसे पानी को गागर में भरा जाए तो उसका स्वाद और मीठा हो जाता था।आज समस्या इस बात की है कि न जल श्रोत बचे न गागर घर के अंदर दिख रही है क्योंंकि जल संस्थान और जल जीवन मिशन और न जाने सरकारी महकमे की बड़ी बड़ी योजनाओं ने हमारे जल स्रोतों और हमारी गागर को निगल लिया है क्योंंकि जल धाराओं के जीर्णोद्वार के नाम पर सीमेंट और कंक्रीट के निर्माण से जल स्रोत सुख गए है तो जब जल धाराएं ही नही बची तो गागर भी क्यों बचेगी सरकार का दावा है कि हर घर में पानी के नल पहुंचा दिए जाएंगे बल्कि नल तो पहुंच गए पर पानी नहीं पहुंचा और यदि पानी पहुंच भी जाए तो उसकी स्वच्छता की कोई गारंटी नहीं है बल्कि बरसात में कीड़े मकोड़ों का नल से निकलना आम बात है जिससे पहाड़ के घरों में गागर जैसा बर्तन तो नहीं दिख रहा है बल्कि उसकी जगह फिल्टर और आर वो जैसी तकनीक ने ले लिया है।गागर सिर्फ पहाड़ी गानों में में शादी ब्याह और धार्मिक आयोजनों में एक रस्म अदायगी के रूप में दिखती है लोग बेटी को दहेज में गागर तो देते है पर उसके महत्व को समझाने का एक छोटा सा प्रयास भी कर लें तो आज इस बर्तन की उपयोगिता हमारी रोजमर्रा की जीवनशैली में हो सकती है जो कि हमारे स्वास्थ्य के हिसाब से बहुत अच्छा साबित हो सकता है विवाह संस्कार के सम्पूर्ण होने में भी गागर का विशेष महत्व है। नववधु के आगमन पर धारा पूजने की रस्म और फिर उसी जल स्रोत से तांबे की गागर में जल भरकर घर ले जाना उस गागर के महत्व को बतलाता है। समय बदला है आज तांबे की गागर की जगह प्लास्टिक के गागर नुमा बर्तन भी गाँव में देखे जा सकते हैं। आज जब पानी की पाइप लाइन ने पानी को घर घर पहुंचा दिया है तो पानी की स्वच्छता और गुणवत्ता में फ़र्क आया है पानी के स्रोतों की साफ सफाई न होने से कई बार हम कई तरह की बीमारियों से ग्रसित होते रहते है क्योंंकि बहुत सारी बीमारियों का एक ही कारण होता है और वो है दूषित पानी तो आज अगर जरूरत है तो वो है पानी के जल स्रोतों को संरक्षण देने की उनकी स्वच्छता की और गागर की। जिससे एक बार फिर से चरित्रार्थ होती वो कहावत “गागर में सागर” नजर आएगी वरना आने वाली भावी पीढ़ी गागर और जल स्रोतों की विलुप्तता का जिम्मेदार ठहराने का जिम्मा हम लोगो को माना जाएगा। सरकारों को तांबा कारीगरों को तकनीक से युक्त बनाने की जरूरत है और मशीनों के तौर पर उन्हें सब्सिडी भी दी जानी चाहिए जिससे वह मशीनों के जरिए भी अपना कार्य कर सकें।तांबा हैंडीक्राफ्ट का काम विदेशों में भी बड़े पैमाने पर पसंद  किया जाता है।अल्मोड़ा और उसके आसपास के क्षेत्रों में घूमने आने वाले पर्यटक काफी मात्रा में तांबे के बर्तनों को खरीदते हैं विदेशों से बड़े पैमाने पर इनकी डिमांड भी आती है। ऐसे में सरकार को चाहिए कि तांबा हैंडीक्राफ्ट को बचाने के लिए योजनाएं शुरू की जाए। तांबा हैंडीक्राफ्ट से जुड़े कारीगरों को तकनीक से युक्त बनाने के साथ-साथ उन्हें मशीनों में सब्सिडी भी दी जाए।

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