डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड अपनी खूबसूरती और तीज त्यौहारों के लिए जाना जाता है। गौर करें तो पहाड़ में हर महीने कोई न कोई त्यौहार मनाया जाता है। आज गंगा दशहरा है। गंगा दशहरा देशभर में मनाया जाता है। इस दिन गंगा को जल अर्पण किया जाता है और सुख समृद्धि की कामना की जाती है। मगर इन सब मान्यताओं के साथ उत्तराखंड में इस त्यौहार को मनाने तरीका विशिष्ट है। वो विशिष्टता गंगा दशहरा पत्रक की है। यह पत्रक दरवाजों और मंदिरों में लगाया जाता है। कई घरों में तो यह सालभर लगा रहता है।इस पत्रक में श्री गंगा दशहरा द्वार पत्र लिखा होता है। इस पत्रक में विशेष रंगों का उपयोग किया जाता है। पत्रक में शंकर भगवान और लक्ष्मी का चित्र बना होता है। पहले यह पत्रक हाथ से ही बनाया जाता था, अब हाथ और प्रिंटिंग वाले दोनों पत्रक लोगों तक पहुंच रहे हैं। पंडित अपने यजमानों तक इस पत्रक को पहुंचाते हैं। हालांकि यह पत्रक अब बाजार में भी आसानी से मिल जाता है। इसको घर के दरवाजे पर लगाने से दरिद्रता दूर होती है और कष्टों का निवारण होता है ऐसा माना जाता है।
भारतीय संस्कृति में नदियों को सर्वोच्च सत्ता के रुप में आसीन करने और उसे देवत्व स्वरुप प्रदान करने की अलौकिक परिकल्पना रही है। लोक में यह मान्यता प्रबल रुप से व्याप्त है कि नदियों का स्वभाव हमेशा से ही परोपकारी प्रवृति का रहा है। नदियां अपने जल से जीव जगत की प्यास बुझाकर उन्हें जीवनदान तो देती ही है वहीं अपने जल से वह अन्न को सिंचित कर प्राणियों का भरण पोषण भी करती हैं। यही नहीं वह अपने अन्दर समेटे असीम जल शक्ति से विद्युत पैदा कर जगत को आलोकित भी करती है। नदियों के साथ हमारा भावनात्मक लगाव सदियों से जुड़ा रहा है। विश्व के अधिकांश प्राचीन तीर्थ स्थल, आश्रम व नगर नदियों के किनारे ही विकसित हुए। जहां से भारतीय संस्कृति नदी की धारा के साथ.साथ सतत रुप से फैलती रही। इन नदियों ने हमारे भारतीय समाज व साहित्य को कई मिथकों, लोक कथाओं तथा लोकगीतों की सौगात देकर समृद्धता प्रदान की है।
देशज संस्कृति की अगुवाई करते कुंभ, महाकुंभ जैसे विशाल मेले नदियों के तट पर ही आयोजित होते हैं। नदियों ने ही प्राकृतिक तरीके से कई गांव, इलाकों व राज्यों की सीमाओं का निर्धारण किया है। यहां नदियों के नाम पर व्यक्तियों व स्थान विशेष के नाम रखने की भी परम्परा रही है। कुल मिलाकर भारतीय परम्परा में नदियां सामाजिक सृजन व चेतना का प्रतीक बनकर उभरी हैं। भारतीय संस्कृति में मनुष्य का जीवन व मोक्ष नदियों से ही जुड़ा हुआ है जिसमें गंगा को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। माना गया है कि गंगा मात्र धरती पर ही नहीं अपितु आकाश और पाताल में भी प्रवाहित होती है। इसी वजह से वह त्रिपथगा भी कहलायी। भारतीय लोक में सप्त नदियों के जल को बहुत ही पवित्र माना गया है। गंगा नदी को हिंदू धर्म तथा भारतीय संस्कृति में सबसे पवित्र नदी माना जाता है। गंगा को पापनाशनी तथा मोक्षदायनी भी कहा गया है। मान्यता है कि गंगा नदी में स्नान मात्र से व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है, जिसे ऋषि.मुनि वर्षों की तपस्या से अर्जित करते हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार गंगा नदी ब्रह्मा के कमण्डल में विराजती हैं, भगवान विष्णु के पैरों से हो कर निकलती हैं तथा भगवान शिव की जटाओं से होते हुये धरती पर अवतरित हुई हैं।
गंगा जी के इसी अवतरण दिवस को गंगा दशहरा के नाम से जाना जाता है गंगा दशहरा के पर्व पर घरों में गंगा दशहरा द्वार पत्र लगाने को बहुत ही शुभ माना जाता है। मान्यता है कि इस द्वार पत्र लगाने से घर में विनाशकारी शक्तियां प्रवेश नहीं करती हैं और वज्रपात, बिजली गिरने जैसी घटनाओं से बचाव होता हैण् इसके साथ घर में नकारात्मक ऊर्जा के प्रवेश को भी यह द्वार पत्र रोकता है तथा घर में सुख समृद्धि बनी रहती है। उत्तराखंड में यह परंपरा प्रमुख रूप से प्रचलित है उत्तराखंड में इस पत्र को घर के मुख्य दरवाजे पर लगाने की परंपरा है। इस पत्र को विशेष तौर पर तैयार किया जाता है। भोज पत्र या फिर श्वेत पत्र पर मंत्रों को लिखकर दरवाजे पर चिपकाए जाते हैं। यह पत्र वर्गाकार होना चाहिए। इस पत्र पर भगवान शिव, गणेश, दुर्गा, सरस्वती, गंगा आदि का रंगीन चित्र बना कर उसके चारों तरफ एक वृतीय या बहुवृत्तीय कमलदलों की आकृति बनाई जाती है। लाल, पीले और हरे रंगों का प्रयोग किया जाता है। इस दिन यहां के लोग प्रातःकाल होते ही सरयू व गोमती के संगम स्थल बागेश्वर, भागीरथी व अलकनंदा के संगम देवप्रयाग, ऋषिकेश हरिद्वार, रामेश्वर, थल सहित कई अन्य तीर्थ व संगम स्थलों में स्नान कर पुण्य अर्जित करते है।
मान्यता है कि पहाड़ के लोक में हर छोटी.बड़ी नदी गंगा का ही प्रतिरूप हैण्गंगा दशहरा पर्व के पीछे गंगा नदी द्वारा पृथ्वी में पहुंच कर वहां के जन.जीवन को तृप्त करने की जो लोक भावना दिखायी देती है उस दृष्टि से गंगा और इसकी सभी सहायक नदियों को भी गंगा के सदृश्य ही पवित्र समझा गया है। अतः प्रकृति में प्रवाहमान सभी जलधाराओं व नदियों को साफ सुथरा रखने और उन्हें पर्याप्त संरक्षण प्रदान करने की हमारी यह लोक मान्यता भारतीय संस्कृति व दर्शन को अलौकिक और महान बनाती है। इस दिन यहां चीनी, सौंफ और कालीमिर्च के मिश्रण से स्वादिष्ट शरबत तैयार करने की भी परम्परा है। यह शरबत गंगा.अमृत जैसा माना जाता है। पहाड़ में यह मान्यता चली आयी है कि इस दिन इस शरबत के सेवन करने से लोग वर्ष पर्यन्त निरोग रहते हैं। गंगा और उसकी समकक्ष नदियों को इतनी महत्ता मिलने के बावजूद भी हमारा समाज इनकी पवित्रता व शुद्धता को बरकरार रखने में असमर्थ साबित हो रहा है। जगह.जगह नगरीय आबादी का, प्लास्टिक व अन्य कूड़ा कचरा, सीवेज जल व कल कारखानों के खतरनाक रासायनिक अपशिष्ट प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष तरीके से नदियों में जा रहा है। नदी तट पर मूर्ति व पूजन सामग्री का विर्सजन, श्मशान घाटों में अधजले शवों को नदी में बहा देने से दिन.ब.दिन नदियों का प्रदूषण बढ़ता ही जा रहा है। पिछले वर्ष केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड की ओर से किये गये जल गुणवत्ता पर आधारित एक सर्वे के मुताबिक गंगोत्री से लेकर गंगा की खाड़ी तक उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार व पश्चिम बंगाल तक 86 स्थानों पर बने मॉनीटरिंग स्टेशनों से केवल 7 स्थानों पर ही गंगा जल को शुद्ध करने बाद ही पीने योग्य बताया गया है। इनमें अधिकांश स्थान तो ऐसे हैं जहां का पानी नहाने लायक भी नहीं है। कमोवेश अन्य नदियों का हाल भी कुछ ऐसा ही माना जा सकता हैण् सही मायनों में देखा जाय तो हमारी भोगवादी जीवन शैली ही इन नदियों की सेहत को खराब कर रही है। हांलाकि नदियों को प्रदूषण मुक्त करने की दिशा में कई महत्वपूर्ण योजनाओं पर कार्य भी हो रहा है परन्तु औद्योगिक इकाईयों की लापरवाही, आबादी के बढ़ते भार, पर्यावरण जागरुकता के न होने व दूरदर्शी सोच के अभाव से यह योजनाएं कारगर नहीं हो पा रही हैं।
यह एक बड़ी विडम्बना ही है कि जिन नदियों को हम सदियों से पवित्र मानकर पूजते आये हैं उसकी वर्तमान दुर्दशा के प्रति हम अनभिज्ञ बने हुए हैं। सामयिक सन्दर्भ में देखें तो कोविड.19 के संक्रमण को रोकने के लिए देश में लॉकडाउन की जो प्रक्रिया अपनायी गयी उसकी वजह से वातावरण में अन्य प्रदूषणों के साथ.साथ जल.प्रदूषण के स्तर में भी उल्लेखनीय गिरावट देखने को मिली। इसके फलस्वरुप उत्तर भारत की गंगा, यमुना व हिंडन सहित कई नदियों की सेहत में काफी कुछ सकारात्मक सुधार देखने में आया है। अतः इस नजरिये से भी नदियों की साफ.सफाई की तरफ ध्यान देना उपयुक्त समझा जाना चाहिए। नदियों की गिरती सेहत के सुधार के लिए राज्य व केन्द्र की सरकारों की ही जिम्मेदारी नहीं बनती अपितु समाज को भी इसके लिए आगे आने की जरुरत है। व्यक्गित व सामूहिक सहभागिता के जरिए हम इन लोककल्याणकारी नदियों की साफ.सफाई व सुरक्षा का प्रबन्ध कर सकते हैं। अन्यथा वह दिन भी दूर नहीं जब शनैः.शनैः हमारी नदियां अलोप होने लगेगीं और पौराणिक सरस्वती नदी की तरह यह नदियां भी एक इतिहास बन लेकिन कोरोना काल होने के कारण किसी भी प्रकार का कोई आयोजन नहीं हो पाएगा।
कोरोना के मामले जरूर कम होने लगे है लेकिन खत्म नहीं गंगा दशहरा स्नान पर्व पर हरकी पैड़ी पर सांकेतिक स्नान है गंगा दशहरा के शुभ दिन कुमाऊँ के कई गांवों में गांव के भूमिया देवता को भोग लगाने की परंपरा भी है। भूमिया को भोग लगाने की परंपरा में नए अनाज यानी रवि की फसल का पहला भोग गांव के भूमिया देवता को लगाया जाता है। पहले प्रिंटिंग प्रेस नहीं हुआ करते थे, तो पंडित जी, कागजो में बच्चों की स्केच पेन खुद ही, गंगा दशहरा द्वार पत्र बनाते थे। ये पंडित जी के लिए काफी मेहनत भरा काम होता था। क्योंकि उस समय पलायन नही था तो हर एक पंडित जी के पास कम से कम 100 जजमान तो होते ही थे। तो उन सभी के लिए मैनुवली स्वरचित 100 पेपर बनाने होते थे। और कुमाऊँ के कुछ क्षेत्रो में लगभग 90 साल पहले एक सपाट पत्थर या स्लेट पर उल्टी आकृति में चित्र एवं श्लोक को बना कर, उसमे काली स्याही लगाकर मशीन से दबाकर दशहरा द्वार पत्र बनाते थे। वर्तमान में प्रिटिंग प्रेस होने के कारण एवं आधुनिक सुविधाएं होने के कारण श्री गंगा दशहरा द्वार पत्र सुंदर और आकर्षक मिलते हैं।