डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तर प्रदेश' भारतीय राजनीति इतिहास का एक ऐसा केंद्र है, जहां से भारत
के स्वतंत्रता संग्राम के कई प्रमुख योद्धा निकले हैं। उन्हीं में से एक थे गोविंद
बल्लभ पंत, जो भारतीय राजनीति के प्रमुख स्तंभ थे। उनकी दूरदर्शिता,
समर्पण और नेतृत्व ने न केवल स्वतंत्रता आंदोलन को बल प्रदान किया,
बल्कि स्वतंत्र भारत के निर्माण में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उत्तर प्रदेश
के पहले मुख्यमंत्री और भारत के गृह मंत्री के रूप में उनके कामों ने देश की
प्रशासनिक और सामाजिक नींव को मजबूत किया। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम
से लेकर स्वतंत्र भारत के निर्माण तक हर क्षेत्र में अपनी अमिट छाप छोड़ी।
10 सितंबर 1887 को उत्तराखंड के अल्मोड़ा में पैदा हुए गोविंद बल्लभ पंत
ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री प्राप्त की और वकालत शुरू
की, लेकिन देशभक्ति और स्वतंत्रता की भावना ने उन्हें राष्ट्रीय आंदोलन की
ओर प्रेरित किया। कहा जाता है कि छात्र जीवन में ही वे बंगाल विभाजन
विरोधी आंदोलन से प्रेरित हुए और 1905 में काशी में हुए कांग्रेस के वार्षिक
अधिवेशन में भाग लिया था। आजादी की लड़ाई के दौरान उन्हें कई बार
गिरफ्तार कर जेल में डाला गया और उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ
आंदोलनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने महात्मा गांधी के नेतृत्व में
असहयोग आंदोलन (1920-22) और सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930) में
भाग लिया। इसके अलावा, उन्होंने काकोरी कांड (1925) के क्रांतिकारियों
का मुकदमा लड़ा और उनकी पैरवी भी की। यही नहीं, उत्तराखंड के कुमाऊं
क्षेत्र में सामाजिक सुधारों, विशेषकर 'कुली बेगार प्रथा' (मजदूरों से जबरन
बेगार कराने की प्रथा) के खिलाफ आंदोलन में उनकी भूमिका उल्लेखनीय
रही। जब 1928 में साइमन कमीशन संवैधानिक सुधारों का अध्ययन और
सिफारिश करने भारत आया, तो लगभग सभी भारतीय राजनीतिक गुटों ने
इसका बहिष्कार किया। पंत ने लखनऊ में इसके खिलाफ एक विरोध प्रदर्शन
में भी हिस्सा लिया था, जहां पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर बर्बरतापूर्वक
लाठीचार्ज किया था। पंत ने 'नमक सत्याग्रह' और 'भारत छोड़ो आंदोलन'
में भाग लिया। वे उन कई नेताओं में से एक थे, जिन्हें 1930 में 'सविनय
अवज्ञा आंदोलन' की योजना बनाने के लिए और फिर 1933, 1940 और
1942 में आंदोलन से पहले ही गिरफ्तार कर लिया गया था। स्वतंत्रता की
लड़ाई के अलावा गोविंद बल्लभ पंत का कांग्रेस में भी कद बढ़ता गया।
गोविंद बल्लभ पंत 1926 में संयुक्त प्रांत प्रांतीय कांग्रेस समिति के अध्यक्ष
चुने गए। 1931 में वे कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य बने, जिससे वे राष्ट्रीय
नेतृत्व के करीब आए। 1937 में वे संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री बने। हालांकि,
1939 में द्वितीय विश्व युद्ध में भारत की जबरन भागीदारी के विरोध में
कांग्रेस मंत्रिमंडलों के सामूहिक इस्तीफे तक वे इस पद पर रहे। 1946 में वे
राष्ट्रीय कार्यसमिति के सदस्य बने। 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद
गोविंद बल्लभ पंत संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) के पहले मुख्यमंत्री
बने। उनके कार्यकाल में भूमि सुधार, शिक्षा और बुनियादी ढांचे के विकास
पर विशेष ध्यान दिया गया। उन्होंने हिंदी को उत्तर प्रदेश की आधिकारिक
भाषा के रूप में स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके बाद
1955 से 1961 तक वे भारत के गृह मंत्री रहे। इस दौरान उन्होंने देश की
आंतरिक सुरक्षा, प्रशासनिक सुधार और राज्यों के पुनर्गठन में महत्वपूर्ण
योगदान दिया। 1956 के राज्य पुनर्गठन अधिनियम के तहत भाषायी
आधार पर राज्यों का गठन उनके नेतृत्व में हुआ। पंत ने शिक्षा के प्रसार और
सामाजिक समानता पर जोर दिया। वे महिलाओं के अधिकारों और
सामाजिक सुधारों के समर्थक थे। उनकी प्रेरणा से उत्तराखंड में कई शैक्षिक
संस्थानों की स्थापना हुई। सरकार ने 1957 में उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक
सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया। इनमें उत्तराखंड के पंतनगर में स्थित
गोविंद बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय शामिल है।ऐसे
विराट व्यक्ति का व्यक्तित्व कुछएक शब्दों में लिख पाना असंभव है।पंडित
गोविंद बल्लभ पंत देश के स्वतंत्रता संग्राम के महानायक थे,
जिन्होंने एक उत्कृष्ट अधिवक्ता, कुशल राजनेता और प्रशासक के रूप
में अपनी अमिट छाप छोड़ी। पंडित पंत संविधान सभा के सम्मानित
सदस्य थे और देश की आजादी के बाद 1954 तक उत्तर प्रदेश के
मुख्यमंत्री के रूप में राज्य की व्यवस्था को सुदृढ़ करने में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई। इसके बाद वे देश के गृह मंत्री बने और हिंदी को राजभाषा
के रूप में स्थापित करने का श्रेय भी इन्हें जाता है, संयुक्त प्रांत के मंत्री के
रूप में, पंडित पंत ने कई सामाजिक और आर्थिक सुधारों को लागू किया
जिसने इस क्षेत्र को बदल दिया। उन्होंने जमींदारी उन्मूलन अधिनियम पेश
किया, जिसने जमींदारी प्रथा को समाप्त कर दिया और भूमि का स्वामित्व
किसानों को हस्तांतरित कर दिया। उन्होंने कृषि साख समितियों की भी
स्थापना की, जो किसानों को कम ब्याज दरों पर ऋण प्रदान करती थी,
और न्यूनतम मजदूरी अधिनियम पेश किया, जिसने श्रमिकों के लिए उचित
मजदूरी सुनिश्चित की।पंडित पंत ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और
लखनऊ विश्वविद्यालय सहित कई विश्वविद्यालयों की स्थापना में भी
महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उन्होंने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान,
खड़गपुर और भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलोर की स्थापना में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई। वह महिलाओं की शिक्षा के प्रबल समर्थक थे और उन्होंने
लड़कियों की शिक्षा की पहुंच में सुधार के लिए अथक प्रयास किया।
स्वतंत्रता संग्राम में पंडित पंत के योगदान और एक आधुनिक और
प्रगतिशील भारत के निर्माण की उनकी प्रतिबद्धता को व्यापक रूप से
मान्यता दी गई है। उन्हें 1957 में भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार भारत
रत्न से सम्मानित किया गया था, और भारतीय डाक सेवा ने 1977 में उनके
सम्मान में एक स्मारक डाक टिकट जारी किया था। गोविंद वल्लभ पंत
अच्छे नाटककार भी रहे। उनका 'वरमाला' नाटक, जो मार्कण्डेय पुराण की
एक कथा पर आधारित है, बड़ी निपुणता से लिखा गया है। मेवाड़ की पन्ना
नामक धाय के अलौकिक त्याग का ऐतिहासिक वृत लेकर 'राजमुकुट' की
रचना हुई है। 'अंगूर की बेटी' (जो फ़ारसी शब्द का अनुवाद है) मद्य में
दुष्परिणाम दिखाने वाला सामाजिक नाटक है। विदित हो कि पंत जी के
जन्म के चौथे दिन 14 सितम्बर को देश भर में हिन्दी दिवस मनाया जाता
है। इसके साथ ही हिन्दी को विश्वव्यापी पहचाने दिलाने के लिए 10
जनवरी को अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत रत्न
राजर्षि पुरूषोत्तम दास टण्डन ने हिन्दी को राजभाषा और देवनागरी को
राजलिपि के रूप में स्वीकृत कराने में बड़ी भूमिका निभायी है। भारत रत्न
श्री अटल बिहारी बाजपेई जी ने भी हिन्दी के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका
निभायी थी। अटल जी ने वर्ष 1977 में जनता पार्टी सरकार में विदेश मंत्री
रहते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी में भाषण देकर इतिहास रचा था।
वैश्विक बिरादरी ने इस ऐतिहासिक हिन्दी भाषण तथा करोड़ों भारतीयों के
प्रति अपना सम्मान व्यक्त किया था। वर्तमान में प्रधानमंत्री को वैश्विक
पहचान दिलाने के लिए जी−जान से कोशिश कर रहे हैं। पंत जी का
व्यक्तित्व बहुआयामी था। वह अच्छे नाटककार भी थे। उनका 'वरमाला'
नाटक, जो मार्कण्डेय पुराण की एक कथा पर आधारित है, काफी लोकप्रिय
हुआ करता था। मेवाड़ की पन्ना नामक धाय के त्याग के आधार पर
'राजमुकुट' लिखा। 'अंगूर की बेटी' शराब को लेकर लिखी गई है। जाने−माने
इतिहासकार बताते हैं कि उनकी किताब 'फारेस्ट प्राब्लम इन कुमाऊं' से
अंग्रेज इतने भयभीत हो गए थे कि उस पर प्रतिबंध लगा दिया था। बाद में
इस किताब को 1980 में फिर प्रकाशित किया गया। पंत जी के डर से
ब्रिटिश हुकूमत काशीपुर को गोविंदगढ़ कहती थी।साम्प्रदायिकता की निन्दा
करते हुए पंत जी का कहना था कि जातीय तथा धर्म के नाम पर होने वाले
दंगे हमें अपने आजादी के लक्ष्य से मीलों दूर फेंक देते हैं। हिन्दू और
मुसलमान एक जाति के हैं। वे आपस में भाई−भाई हैं उनकी नसों में एक ही
खून दौड़ रहा है। धर्मान्धता हमारे जीवन के परम लक्ष्य मानव जाति के
सेवा के मार्ग में एक बड़ी बाधा बन जाता है।एक बार पंत जी ने सरकारी
बैठक की। इस बैठक में चाय−नाश्ते का इंतजाम किया गया था। जब उसका
बिल पास होने के लिए उनके पास आया तो उसमें हिसाब में छह रूपये और
बारह आने लिखे हुए थे। पंत जी ने बिल पास करने से मना कर दिया। जब
उनसे इस बिल पास न करने का कारण पूछा गया तो वह बोले, 'सरकारी
बैठकों में सरकारी खर्चे से केवल चाय मंगवाने का नियम है। ऐसे में नाश्ते
का बिल नाश्ता मंगवाने वाले व्यक्ति को खुद भुगतान करना चाहिए। हां,
चाय का बिल जरूर पास हो सकता है।' जब साइमन कमीशन के विरोध के
दौरान इनको पीटा गया था, तो एक पुलिस अफसर उसमें शामिल था। वो
पुलिस अफसर पंत के मुख्यमंत्री बनने के बाद उनके कार्यालय के अधीन ही
काम कर रहा था। इन्होंने उसे मिलने बुलाया। वो डर रहा था, पर पंत जी
ने बहुत ही विनम्रता से बात करके उसका साहस बढ़ाया। महापुरूष सदैव
अपने लोक कल्याण के कार्यों के कारण अमर रहते हैं। आत्मा अजर अमर
तथा अविनाशी है। आज वह देह रूप में हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके उच्च
नैतिक विचार, सेवा भावना, सादगी, सहजता, हिन्दी प्रेम तथा उज्ज्वल चरित्र
देशवासियों का युगों−युगों तक मार्गदर्शन करता रहेगा। हम इस महान आत्मा को
शत-शत नमन करते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषाओं में हिन्दी भाषा
को भी शामिल कराना हिन्दी प्रेमी पंत जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। ऐसे
पंत जी को शत् शत् नमन। भारत रत्न प. गोविंद बल्लभ पंत न केवल स्वतंत्रता
संग्राम आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई वरन आजादी के बाद भी उन्होंने राष्ट्र
के नवनिर्माण में अहम भूमिका निभाई। भारतीय संविधान में हिन्दी भाषा को
राजभाषा का दर्जा दिलाने में उनका महत्वपूर्ण योगदान था। *लेखक विज्ञान व*
*तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*