

शंकर सिंह भाटिया
देहरादून। कोरोना काल के इस दौर में लगातार घरों में कैद रहकर एक अजीब सी उक्ताहट महसूस होने लगी है। आज हमने घर से निकलने का निर्णय किया और प्राकृतिक स्रोत से पीने का पानी और पेड़ में चढ़कर गुर्जा, गिलोय की बेल तोड़कर ले आए।
कोरोनाकाल में हम सब की दिनचर्या इस कदर सीमित हो गई है कि अब बोरियत होने लगी है। हालात यहां तक हैं कि पड़ौसी के घर तक नहीं जा पा रहे हैं। जिससे जानकारी लेनी है, फोन एक मात्र सहारा है। मैं दूधली घाटी के नागल ज्वालापुर गांव में रहता हूं। दूधली और नौका के पास दो तीन प्राकृतिक स्रोत हैं। जिसमें मैं पीने के लिए पानी लाता हूं। आज हम दूधली के अंतर्गत खट्टापानी के स्रोत से बीस लीटर के जार में ताजा पानी भरकर लाए।
पत्नी लीला देवी ने सलाह दी कि गिलोय जिसे कुमाउंनी में गुर्जा कहा जाता है, भी लेकर आते हैं। इस क्षेत्र के जंगलों से हम पहले भी गुर्जा लेकर आते रहे हैं। लेकिन कोरोनाकाल में जब लोगों को इस वनस्पति के औषधीय गुणों की जानकारी हुई तो सभी पेड़ों से इस बेल को निकाल लिया गया। मेरी पत्नी लीला देवी को इसकी बेहतर पहचान है। हम कई पेड़ों के पास गए, लेकिन वहां पेड़ों में गई बेलें किसी और तरह की वनस्पति की थी। एक पेड़ में गुर्जे की बेल से बारीक तार निकलते हुए उन्होंने देखे तो उन्हें आभास हो गया कि इस पेड़ में जरूर गुर्जा है। वह पेड़ में चढ़ गई और काफी मात्रा में उसकी बेल निकाल ली। इस पूरी प्रक्रिया में हमें दो घंटे लगे। लगातार घरों में कैद रहने के बाद आज की दिनचर्या थोड़ा परिवर्तन लाने वाली रही। स्रोत का पानी और गुर्जा की बेल मिलने से दिल खुश हो गया।












